इनके हक में धर्म है। इसीलिए ये कितना भी अधर्म कर ले, धर्म इनका ही है। इनके धत्कर्म हमेशा सत्कर्म रहेंगे। क्योंकि ये सत्ता के लिए है। सत्ता के लिए बने है, सत्ता ही धर्म है। पारस पत्थर लिए पैदा हुए है दिल्ली के तख्त पर जिस पर भी रख रहे है वही सोना हुआ जाता है। एक बार सभी को साथ ले ले सरकार। कीमत रखी है या फिर दिल बाग बाग हुआ है इसी लिए ये सब औघड़ बन गए है। कुछ भी लिखना लगता है स्याही फेरने जैसा है। ये उन लोगों के मुंह पर पोत रहे है कालिख जिन्होंने इनको उजला बनाया था। सत्ता का यही गुण है। मस्त रहिए सत्ता में इतनी शक्ति होती है कि वो काले को सफेद और सफेद को काला करती है।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Monday, March 26, 2018
इनके गिलास के गंगाजल नहीं मदिरा थी , अगर नहीं दिखी तो आपकी आंखों में मोतियाबिंद था।
इनके हक में धर्म है। इसीलिए ये कितना भी अधर्म कर ले, धर्म इनका ही है। इनके धत्कर्म हमेशा सत्कर्म रहेंगे। क्योंकि ये सत्ता के लिए है। सत्ता के लिए बने है, सत्ता ही धर्म है। पारस पत्थर लिए पैदा हुए है दिल्ली के तख्त पर जिस पर भी रख रहे है वही सोना हुआ जाता है। एक बार सभी को साथ ले ले सरकार। कीमत रखी है या फिर दिल बाग बाग हुआ है इसी लिए ये सब औघड़ बन गए है। कुछ भी लिखना लगता है स्याही फेरने जैसा है। ये उन लोगों के मुंह पर पोत रहे है कालिख जिन्होंने इनको उजला बनाया था। सत्ता का यही गुण है। मस्त रहिए सत्ता में इतनी शक्ति होती है कि वो काले को सफेद और सफेद को काला करती है।
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