शैतानों के बीच जिंदा रहने के लिए जिस बल की जरूरत होती है वो मानव के शरीर में नहीं होता बल्कि उसको आत्मिक बल की जरूरत होती है। महात्मा गांधी की डांडी यात्रा के बीच में ही राजकोट की ओर चला आया। ये शहर जहां गांधी जी का बचपन बीता, उन्होंने भविष्य की ओर देखा और फिर वो गांधी बनने के रास्ते पर चल पड़े। उनके घर को म्यूजियम बना दिया गया है। खूबसूरत सा छोटा सा घर। गलियों के बीच। गलियों में सिर्फ दुकाने। घर में लिखने को बहुत कुछ था लेकिन एक उक्ति पर निगाह पड़ी। महात्मा के घर में लगे हुए ब्रटेंड रसेल की फोटो पर लिखा हुआ था कि
"अहिंसक प्रतिरोध का निश्चय ही अपना महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इससे भारत में गांधी जी ने अंग्रेजों के विरूद्ध विजय पाई। कितुं इसकी सफलता का कुछ हद तक उन लोगों पर भी निर्भर है जिनके विरूद्ध इसका प्रयोग किया जाता है। जब भारतीय रेल की पटरियों पर लेट गए और उन्होंने अंग्रेजों को ललकारा कि हमें कुचल डालिये तो अंग्रेज ऐसा अमानवीय कार्य कर न सके"
"अहिंसक प्रतिरोध का निश्चय ही अपना महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इससे भारत में गांधी जी ने अंग्रेजों के विरूद्ध विजय पाई। कितुं इसकी सफलता का कुछ हद तक उन लोगों पर भी निर्भर है जिनके विरूद्ध इसका प्रयोग किया जाता है। जब भारतीय रेल की पटरियों पर लेट गए और उन्होंने अंग्रेजों को ललकारा कि हमें कुचल डालिये तो अंग्रेज ऐसा अमानवीय कार्य कर न सके"
सोचा कि ऐसा क्या होता अगर अंग्रेज कुचल देते उस विद्रोह को। क्यों नहीं कुचल पाएं तब लगा कि कल के संवाद से आगे कुछ और भी है। वामपंथियों के इतिहास पर कूद कर इस देश को महज कुछ टुकड़ों में तब्दील करने और जेहादियों और अभिव्यक्तियों के मायनों में कुछ भी फर्क न करने वालों का सच दिखा। लगा कि जब शैतान चारों तरफ हो तब उसमें अपने कौल पर जिंदा रहना कितना मुश्किल होता होगा। लगातार अत्याचारों के सिलसिले में अपना सब कुछ खो कर भी अपनी आत्मा के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए पूर्वजों के विश्वास को बचाएं रखने के लिए आत्मबल और उसके लिए प्रतीकों की जरूरत पड़ती है वो कितनी मुश्किलों से मिलते होगें।
जिंदा चिता पर बैठने पर शायद पहले ( मैं अभी चिता में गया नहीं हूं) कपड़े जलते होगे, वो कपड़े जौहर में पहने जाते है जो शादी के वक्त होते है या फिर सबसे कीमती। जल कर चिपट जाते होंगे अंगों से। उसके बाद बाल और खाल दोनों जलती होगी। उस वक्त की चीत्कार में कितना दर्द होता होगा ये इन सबको मालूम है जो अभिव्यक्ति और इतिहास की कहानी सुना रहे है। 17000 औरतों के जिंदा जलने की ये कहानी तो झूठ नहीं है ना मक्कारों या इसमें भी कोई पेंच है जो वामपंथ के षडयंत्र में पैदा हुआ हो।
दरअसल किसी भी किताब में इस बात का जिक्र नहीं किया गया क्योंकि अलाउुद्दीन सिर्फ शैतान था और ये बात लगातार जिक्र की गई है। औरतों को हरम में भऱने के अलावा मलिक काफूर नाम के लड़के के साथ उसके रिश्तें थे( बाद में जलोदर से तड़प कर मरा अलाउद्दीन और उसकी औलाद को अंधा कर जेल में डाल कर उसका वंश खत्म करने का काम उसी गुलाम ने किया जो उसकी वासना पूर्ति के लिए हिजड़ा बनाया गया था)
पद्मावति के होनेया न होने पर इतिहास की किताबों के काले अक्षर दिखाने वाले वामपंथी और देश को खत्म करने की हद तक नफरत करने वालों के लिए ये देश जमीन के टुकड़ों से ज्यादा कुछ है ही नहीं। अगर देश की लोककथाओं में कुछ नहीं है अगर देश में कोई अपना है ही नहीं तब इस देश की जरूरत ही क्या है। किस पर गर्व करना चाहिए। किस के लिए लड़ना चाहिए। सीमा पर युद्ध के वक्त लड़ते हुए सैनिकों को इन मुफ्तखोरों के फोटों के लिए लड़ना चाहिए। या किस के लिए। हमलावर, हत्यारे और आजादी के लिए लडने वाले सब एक ही है तो फिर देश की जरूरत क्या है। क्यों नहीं इसको कबीलों में बदल डालते है।
एक महानुभव को पढ़ा ( हर किसी का हक है लिखना) पद्मावति को कल्पना मान कर कहा कि इस तरह से इतिहास नहीं होते और ये अभिव्यक्ति का गला घोटना है। और उन्हीं साहब की वॉल पर जाईंये तलाश कर लिए कि रोमियों दस्ते काे नाम लिखने भर पर वो रोने को हो गए थे कि कैसे एक प्रेम के प्रतीक बन चुके पात्र का नाम बदनाम किया जा रहा है भले ही काल्पनिक क्यों न हो।
मैं कई बार सोच चुका हूं कि आखिर देश का मतलब क्या है। ये लोग जो अभिव्यक्ति को सलेक्टिव इस्तेमाल पर खुश होते है। ये कुछ भी लिख उस पर सवाल अभिव्यक्ति का विरोध और यदि कोई दूसरा लिखे तो वो कट्टर और भक्त और अंधा जाने क्या क्या। खैर मैं पहली बार किसी दूसरे के लेखों को लेकर इतना लिख रहा हूं अपना काम है सिर्फ पद्मावति को लेकर कुछ भी बना देने वाले की कहानी को लेकर है।
और राहूल सांस्कृतायन की किताब है अकबर। उस किताब में महाराणा प्रताप को देश की एकता के लिए लड़ रहे अकबर का विरोधी कहते हुए निंदा की गई है। खैर बात बहक रही है वापस संजय लीला भंसाली और उसके नायक अलाउद्दीन की कुछ और इतिहासकारों की नजर में क्या है।
दरअसल किसी भी किताब में इस बात का जिक्र नहीं किया गया क्योंकि अलाउुद्दीन सिर्फ शैतान था और ये बात लगातार जिक्र की गई है। औरतों को हरम में भऱने के अलावा मलिक काफूर नाम के लड़के के साथ उसके रिश्तें थे( बाद में जलोदर से तड़प कर मरा अलाउद्दीन और उसकी औलाद को अंधा कर जेल में डाल कर उसका वंश खत्म करने का काम उसी गुलाम ने किया जो उसकी वासना पूर्ति के लिए हिजड़ा बनाया गया था)
पद्मावति के होनेया न होने पर इतिहास की किताबों के काले अक्षर दिखाने वाले वामपंथी और देश को खत्म करने की हद तक नफरत करने वालों के लिए ये देश जमीन के टुकड़ों से ज्यादा कुछ है ही नहीं। अगर देश की लोककथाओं में कुछ नहीं है अगर देश में कोई अपना है ही नहीं तब इस देश की जरूरत ही क्या है। किस पर गर्व करना चाहिए। किस के लिए लड़ना चाहिए। सीमा पर युद्ध के वक्त लड़ते हुए सैनिकों को इन मुफ्तखोरों के फोटों के लिए लड़ना चाहिए। या किस के लिए। हमलावर, हत्यारे और आजादी के लिए लडने वाले सब एक ही है तो फिर देश की जरूरत क्या है। क्यों नहीं इसको कबीलों में बदल डालते है।
एक महानुभव को पढ़ा ( हर किसी का हक है लिखना) पद्मावति को कल्पना मान कर कहा कि इस तरह से इतिहास नहीं होते और ये अभिव्यक्ति का गला घोटना है। और उन्हीं साहब की वॉल पर जाईंये तलाश कर लिए कि रोमियों दस्ते काे नाम लिखने भर पर वो रोने को हो गए थे कि कैसे एक प्रेम के प्रतीक बन चुके पात्र का नाम बदनाम किया जा रहा है भले ही काल्पनिक क्यों न हो।
मैं कई बार सोच चुका हूं कि आखिर देश का मतलब क्या है। ये लोग जो अभिव्यक्ति को सलेक्टिव इस्तेमाल पर खुश होते है। ये कुछ भी लिख उस पर सवाल अभिव्यक्ति का विरोध और यदि कोई दूसरा लिखे तो वो कट्टर और भक्त और अंधा जाने क्या क्या। खैर मैं पहली बार किसी दूसरे के लेखों को लेकर इतना लिख रहा हूं अपना काम है सिर्फ पद्मावति को लेकर कुछ भी बना देने वाले की कहानी को लेकर है।
और राहूल सांस्कृतायन की किताब है अकबर। उस किताब में महाराणा प्रताप को देश की एकता के लिए लड़ रहे अकबर का विरोधी कहते हुए निंदा की गई है। खैर बात बहक रही है वापस संजय लीला भंसाली और उसके नायक अलाउद्दीन की कुछ और इतिहासकारों की नजर में क्या है।
पता नहीं कौन पढ़ना चाहे लेकिन बहुत से लोगों को दिक्कत होती है कि वो इतिहास और भक्त में अंतर करने में। मैं ये जो उदाहरण दे रहा हूं उन्ही लोगों के मकबूल अमीर खुसरो साहब की किताब का दे रहा हूं ।
अक्सर इन अभिव्यक्ति की आजादी के दीवानों को झूमते हुए देखता हूं
छाप तिलक सब छीनी मौसे नैना मिलाय के गीत पर।
किताब का नाम है खजाईनुल फुतूह।
अब शैतान अलाउद्दीन के कारनामों को पढ़िये ।
"नए भवनों को रक्त दिया जाना आवश्यक होता है। इस कारण हजारों मुगलों के सिर बकरों के सिर की तरह काट दिए गए"
अक्सर इन अभिव्यक्ति की आजादी के दीवानों को झूमते हुए देखता हूं
छाप तिलक सब छीनी मौसे नैना मिलाय के गीत पर।
किताब का नाम है खजाईनुल फुतूह।
अब शैतान अलाउद्दीन के कारनामों को पढ़िये ।
"नए भवनों को रक्त दिया जाना आवश्यक होता है। इस कारण हजारों मुगलों के सिर बकरों के सिर की तरह काट दिए गए"
"23 फरवरी 1299 को सुल्तान ने आरिजेवाला को यह फरमान भेजा कि इस्लामी सेना गुजरात के तट पर सोमनाथ के मंदिर के लिए खंडन के लिए प्रस्थान करे। उलुगखां को सेना का सरदार गया। जब शाही सेना उस प्रदेश के नगर में पहुंचीत तो उस परर अत्यधिक रक्तपात के उपरांत विजय प्राप्त कर ली। तत्पाश्चात खाने आजाम ने अपनी सेना लेकर समुद्र की ओर प्रस्थान किया और सोमनाथ को, जो हिंदुस्ओं की पूजा का केन्द्र है , घेर लिया। इस्लामी सेना ने मुर्तियाों का खडन कर दिया और सबसे बड़ी मूर्ति को सुल्तान के दरबार में भेज दिया। नहरवलाला खभ्भायत तथा समुद्र तट के अनय नगरों पर भी विजय प्राप्त कर ली।"
"तब अत्याधिक ऊंचा किला जिसकी अट्टालिकाएं नक्षत्रों से बात करती थीं, इस्लामी सेना द्वारा घेर लिया गया। हिंदुओं ने किले की दसों अट्टारियों पर आग लगा दी, किंतु अभी तक मुसलमानों के पास इस अग्नि को बुझाने के लिए कोई सामगर्गी एकत्रित न हुई थी। थैलों में मिट्री भर कर पाशेब तैयार किया गया। कुछ अभागे नव मुसलमान जो इससे पहले मुगल थे हिंदुओं से मिल गए थे। मार्च से जुलाई तक सेना किले को घेरे रही। किले से वाणों की वर्षा के कारण पक्षी भी उड न सकते थे। इस कारण शाही बाज भी वहां नहीं पहुंच पाते थे। किले के भीतर से अरादों द्वारा शाबान के अंत तक पत्थऱ फेंके जाते रहे किले में अन्न की कमी हो गई। किले में अकाल पड़ गया। एक दाना चावल दो दाना सोना देकर भी प्राप्त न हो सकता था। नवरोज के पश्चात सूर्य रणथंभौर की पहाड़़ियों पर तेजी से चमकने लगा । राय( हम्मीर) को संसाल में रक्षा का कोई स्थान दिखाई न पड़ता था।
उसने किले में आग जलवा कर अपनी स्त्रियों को आग में जलवा दिया। तत्पश्चात अपने एक दो साथियों के साथ पाशेब तक पहुंचा किंतु उसे भगा दिया गया। इस प्रकार 10 जुलाई 1301 में किले पर विजय प्राप्त हो गई।"
(इसमें भी जौहर हुआ है )
उसने किले में आग जलवा कर अपनी स्त्रियों को आग में जलवा दिया। तत्पश्चात अपने एक दो साथियों के साथ पाशेब तक पहुंचा किंतु उसे भगा दिया गया। इस प्रकार 10 जुलाई 1301 में किले पर विजय प्राप्त हो गई।"
(इसमें भी जौहर हुआ है )
"28 जनवरी 1303 को सुल्तान ने चित्तौड़ की विजय का दृढ़ सकंल्प कर लिया। देहली से झंडे के चांद चल पड़े । शाही काला चत्र बादलों तक पहुंच रहा था। सुल्तान सेना लेकर चित्तौड़ तक पहुंच गया। सेना के दोनो "बाजुओं के लिए यह आदेश हुआ कि वे किले के दोनों और अपने शिविर लगा दे। शाही सेना दो मास तक आक्रमण करती रही लेकिन विजय प्राप्त नहीं हुई। चत्रवाही नामक पहांडी से से सुल्तान अपना श्वेत छत्र सूर्य की तरह लगाता और सेना का प्रबंध करता रहा।
सोमवार मुहर्रम 703 हिजरी (25 अगस्त 1303) को सुल्तान उस किले में जहां किले में चिड़िया भी प्रविष्ट न हो सकती थी दाखिल हो गया। उसका दास अमीर खुसरो भी उसके साथ था। राय सुल्तान की सेवा में क्षमा याचना के लिए उपस्थित हो गया। उसने राय को कोई हानि न पहुंचाई परंतु उसके क्रोध द्वारा 30 हजार हिंदुओं की हत्या हो गई। तब शाही क्रोध ने समस्त मुकद्मों का विनाश कर दिया। और चित्तौ़ड़ का नाम खिज्राबाद रखा गया।"
सोमवार मुहर्रम 703 हिजरी (25 अगस्त 1303) को सुल्तान उस किले में जहां किले में चिड़िया भी प्रविष्ट न हो सकती थी दाखिल हो गया। उसका दास अमीर खुसरो भी उसके साथ था। राय सुल्तान की सेवा में क्षमा याचना के लिए उपस्थित हो गया। उसने राय को कोई हानि न पहुंचाई परंतु उसके क्रोध द्वारा 30 हजार हिंदुओं की हत्या हो गई। तब शाही क्रोध ने समस्त मुकद्मों का विनाश कर दिया। और चित्तौ़ड़ का नाम खिज्राबाद रखा गया।"
"सेना बसीरागढ़ के दोआब में पुहुंच गई । यह य़शर तथा बूजी नामक दो नदियों के बीच में है। कहा जाता है किि वाहं हीरे की एक खान भी थी, किंतु सैनिकों ने खान के खोदने का प्रयत्न न कियाय़ उसके बाद मलिक कुछ सैनिकों के लेकर तिलंग राज्य के सरबर नामक किले पर पहुंच गया और किला घेर लिया। भीतर से हिंदुओं ने मारो मारो चिल्लाना शुरू कर दिया। शाही सेना के धनर्धारियों ने बहुत से लोगों के शरीर छेद डाले। हिंदुओं ने अपने आपको पराजित देख कर सपरिवार अग्नि में भस्म होकर आत्महत्या कर ली। ( फिर एक जौहर) मुसलमान सकिले पर चढ कर हिंदुओं पर टूट पडे और जो आग से बच गए थे उनकी हत्या कर दी।
शेष किलों के मालिकों ने भी इस तरह आत्म विनाश का निश्चय कर लिया।" ( यानि जौहरों का सिलसिला)
शेष किलों के मालिकों ने भी इस तरह आत्म विनाश का निश्चय कर लिया।" ( यानि जौहरों का सिलसिला)
"क्योंकि सेनापति नायब अमीर हाजिब भी था और उसे चौगान (पोलो ) खेलने से बडी रूचि थी, अत उसने अपने आदमियों को आदेश दिया कि वे प्रतिदिन लुद्दर देव के सरदारों के सिर से चौगान खेला करे। जहां कही भी उन्हें कोई रावत मिल जाएं वे उसके सिर को गेद समझ कर ले आये। सवारों ने इस प्रकार बहुत से गेंद प्राप्त कर लिए और चौगान के प्रेमी मलिक के सामने पेश कर दिए। तत्पश्चात मलिक ने आदेश दिया कि मगरबियों के लिए पत्थर के गेंद खोजे जाएं। मंजनीकों ने किले को बड़ी क्षति पहुंचाई."
"युग के खलीफा की तलवार ने, जो कि वास्तव में इस्लाम की दीपक है, हिंदुस्तान का समस्त अंधेरा दूूर कर दिया।"
और क्यों राणा संग्राम सिंह और सम्राट अशोक से अलग था ये अलाउद्दीन शैतान जिसके चलते पहली बार हिंदुस्तान में जौहरों का सिलसिला चला ये अगले लेख........
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