Friday, July 29, 2011

टुकड़ों में कुछ

बहुत वक्त लगा इस शहर को जीने में यारों
खंजर मेरी भी आस्तींन में था
शमशीरों के इस शहर में
दिल नहीं मिला किसी के सीनें में यारों

हर चीज की कीमत यहां
हर एक अहसास के दाम यहां
शीशें से पत्थर तोड़ों
खून बहाकर रिश्तें जोड़ों

हुनर है तो मंजिल के लिए
धोखा है मंजिल का नाम यहां
धोखा खाया तो सीख लिया
धोखा दिया तो जीत लिया

आंखों में चमक की कमी नहीं
मुस्कुराहटों में बस नमी नहीं
हमने भी बहुत सीखा-भूला
पर अपनी बिसात जमी नहीं



पुष्पेन्द्र ग्रेवाल के एक लेख में लिखी गईं
एक सीरियाई कवि निजार कब्बानी की कुछ पंक्तियां

अगर हम अपनी जमीन /और मिट्टी के सम्मान /की हिफाजत करते हैं/
अगर हम अपने और अपनी जनता के/ बलात्कार के खिलाफ/ विद्रोह करते है
अगर हम अपने आसमान के/ आखिरी सितारे की हिफाजत करते है..
अगर यह पाप है/तो कितनी खूबसूरत है दहशतगर्दी/
इस सब के लिए मैं/अपनी पुरजोर आवाज बुलंद करता हूं/
मैं दहशतगर्दी के साथ हूं/जब तक नयी विश्व संरचना/
मेरी संतानों को जिबह करके/ उन्हें कुत्तों के आगे परोसती रहेगी
इन सबके खिलाफ मैं आवाज उठाता रहूंगा/ मैं दहशतगर्दी के साथ हूं





न कोई वादे वफा
न खतो-किताबत
इस तरह भी कोई जाता है
महफिल से रूठकर।
लहर से बच गयी तो क्या
वक्त की हवा थी जो ले गई
रेत की तस्वीर थी उसकी याद
गिरी औऱ बिखर गई टूटकर

1 comment:

Anonymous said...

कहां लगा...बहुत जल्द तो सीख लिया और क्या सीखना है...दिल तो घड़कन सुनने से महसूस होता है खोजने से नहीं...और ये चीज भी ऐसी नहीं कि बाजार में मिल जाएं...ये को कमाई जाती है...हर चीज की कीमत नहीं होती...होती तो मां की ममता खरीदी जा सकती थी...बाप का वो प्यार जो खामोश जुबा और आंखों से बयां होता है...वो देखता है अपने पौधों को दरख्त बनता और खुश होता है...चुपचाप किसी ढलते सूरज सा... यकीन की कीमत तो कहीं नहीं...यकीन खुद पर कर तो यकीन भी यही....हुनर मंजिल धोखा...तीनों कामयाबी का नाम हैं...बिसात जमाने के लिए यकीन जरूरी...धोखा खाना भी यकीन की कहानी....धोखा खाकर भूल जाना शराफत की जुबानी...गलतफहमी को धोखा कहना बदजुबानी....फिर कर यकीन दुनिया पर...क्योंकि दुनिया ही है उसके बाद कुछ नहीं।