Sunday, June 12, 2011

यूं तो मैं बोल सकता था

यूं तो मैं कह सकता था,
कि ये आवारा भीड़ नहीं है
मुझे बोलने से पहले सोचना नहीं था
इस भीड़ में कोई खतरा नहीं है.
या ऐसा ही कुछ
ये दीवानों का जमावड़ा
तोड़ सकता है
बनी-बनाईं व्यवस्था
मेरे पास लाईंने थीं
सीखें गएँ शब्द थे
मेरे पास कलम भी थी
और पेपर भी
मुझे लिखना था
और फिर उसे छाप देना था
ऐसा ही जैसा मुझे बताया गया
लेकिन मेरी आंखों में दर्द ज्यादा था
न मैं लिख पाया
न मैं बोल पाया।
यूं तो मैं बोल सकता था
बस और मत मुस्कुराओं मेरी तरफ
अंतर नहीं कर पाता हूं मैं
तुमहारी इन मुस्कानों में
ये सब तरफ से एक सी दिखती है
कातिल की तरफ हो
तुम्हारा चेहरा
या फिर कत्ल हुएं की ओर
बंद करों इस तरह दिखना
कि
दोनों में कोई फर्क दिखाईं न दें
बंद करो इस तरह से मुस्कुराना
लेकिन आवाज नहीं निकली
यूं तो मैं कह सकता था
कि किताबों में बंद बेजान अक्षरों में
बंद नहीं की जा सकती है
बेसाख्ता हंसतें हुए किसी बच्चें की तकदीर
रोका नहीं जा सकता हवा में झूमना किसी फिरकी का
गहराईं में धरती की गोद में
समाएं हुए किसी पेड़ की जड़ नहीं उखाड़़ सकते
हो महज काली लाईनों को पढ़कर
लेकिन सोच ही नहीं पाया
यूं तो बोल सकता था
मैं इस खेल में शामिल नहीं हूं
बंद करों
ये गोटियां उछालना
जिसकी हर चाल तुमकों मालूम है
मत छनकाओं वो सिक्के
जिसमें दोनों ओर तुम्हारे लिए ही जीत
लिखी हो।
लेकिन
मेरी जुबान सर्द है
मैं बस देख रहा हूं तुम्हारा सिक्का, गोटियां और मुस्कानें
मैं बिक गया था,
तुम जानते हो मेरे डर को और मेरी कीमत को
बिना किसी और के ये जाने........

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