अबीर-गुलाल उड रहा था। कोशिश थी कि रंग हरा ही हरा दिखें। लेकिन गुलाल-अबीर में लाल रंग बचा है सो दिख रहा था। कोलकाता या कहिये सारा बंगाल मस्ती के आलम में था। ये बंगाल के रंग बदलने की मस्ती थी। लाल बंगाल हरा हो गया। चौंतीस साल तक जो बंगाल लाल था वो अब हरा है। बुद्ध के देवत्त से बंगाल ममता की छांव में आ गया। मीडिया के गपौड़ियों और बे-सिर पैर के तर्क देने वाले बक्कालों के पास बहुत सारी कहानियां रातो-रात आ गयी। ऐसी कहानियां जिनके मुताबिक लेफ्ट ने अपनी नीतियां खो दी थीं। वो आम जनता से दूर हो गया था। इसके लिए उनके पास बहुत सारे उदाहरण भी है। वामपंथियों को सबसे ज्यादा गरिया रहे रिपोर्टर कम एंकरों के पास जो सबसे बड़ा मुद्दा है- परमाणु मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना। इन लालबुझक्कड़नुमा पत्रकारों के पास हर चीज का प्रोम्पटर पर लिखा हुआ समाधान है। ये सर्वज्ञानी है। ये अलग बात है कि जिस कोर्स से पढ़ कर आएँ हैं उसमें थर्ड डिविजन से पास होंगे और या फिर आईएएस का एक्जाम फेल कर यहां पहुंचे होंगे। यदि मार्क्सवादियों का सबसे बड़ा दोष यहीं है तो फिर टीवी चैनल्स और अखबारों ने तब हल्ला क्यों मचाया जब जापान में सुनामी की चपेट में आएं परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा का मुद्दा उठा। न इन बेचारों को परमाणु मुद्दे का पता न बंगाल का। बस इनको रन डाउन के हिसाब से बोलना था। परमाणु मुद्दें पर बहस करने वाला ऐंकर अगले ही पल गांव में पंचायती फैसलों पर होने वाली हिंसा पर बोलने के लिये तैयार था। क्या गजब का विस्तार है इनकी समझ का। लेकिन माफ करना हम यहां बात बंगाल की कर रहे है। तो वहीं पर बात करते हैं। बात शुरू हुई कि वामपंथी क्यों के हारे के मीडिया चिंतन पर।
मीडिया के मार्किट के दलालों की भूमिका का सबसे बड़ा और आसानी से समझ में आने वाला उदाहरण है ममता की गलतियां बताने वाला एक आर्टिकल। नवभारत टाईम्स के मुताबिक ममता ने टाटा को बंगाल के बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी राजनीतिक अपरिक्पक्वता का परिचय दिया। अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें अपनी भूल सुधारनी होंगी। इस वक्त्वय के दो मतलब है। एक कि ममता ने टाटा का विरोध किया -गलती की। तब टाटा का समर्थन करने वाले वामपंथियों को इसका फायदा क्यों नहीं मिला। माना वामपंथियों की गलतियां ढ़ेर सारी थीं इसीलिए इस का फायदा नहीं मिला तो दीदी की पार्टी को दूसरी बार उस इलाके से इतना भारी जनसमर्थन क्यों मिला। इसका कोई जवाब दलाल पत्रकार नहीं दे पाएंगे। इसके लिए उनको ईमानदारी से काम करना होगा। लेकिन वो कर नहीं सकते। सत्ता की दलाली, देश को लूट रही मल्टीनेशनल कंपनियों के एडवर्टाईजमेंट का लालच और दूसरे मालिकों की हित साधना ये ऐसे रोड़े है जो बेचारे दलाल पत्रकार का गला दबाते रहते हैं।
बात फिर ममता दीदी पर। इस देश में दिया लेकर कर खोजनें पर भी सत्ता में ऐसी ईमानदारी ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी। 14 बाई 12 के लगभग की उस खोली में रह रही दीदी सालों से सत्ता में ताकतवर भूमिका में रही है। लेकिन उनका लाईफस्टाईल आज भी वहीं है। सूती धोती-हवाई चप्पल पहनने वाली दीदी उन सबके मुंह तमाचा है जो पत्थर के हाथियों को खड़ा कर गरीब दलितों का दर्द या अपने लिए हजारों जोड़ी जूतियों खरीद कर राज्य के करोंड़ों नंगें पैरों का दर्द दूर करने वाली महारानियों की तारीफ करते हैं। इस देश को ममता की छांव की जरूरत हैं। उसी ममता की छांव जिसने यादव शिरोमणि या आय से अधिक संपत्ति की रेल में बैठने वाले लालू के झूठ का पर्दाफाश किया। सालों तक दलाल पत्रकारों और लुटेरी मल्टीनेशनल कंपनियों और भ्रष्ट्र नौकरशाहों के दबावों को झेलते हुए गरीब आदमी का रेल किराया नहीं बढ़ाया। ऐसी ममता दीदी देश के करोड़ों गरीब आदमियों की आखिरी उम्मीद है लेकिन दलाल पत्रकार उनके दिमाग में ये बैठाने में जुट गएं है कि आपको क्या करना है क्या नहीं। ये वही दलाल पत्रकार है जो अब दीदी को ये समझाने में जुट गएं है कि आप जिसे अपनी ताकत समझ रही हो वो आपकी ताकत नहीं है। जो हम बता रहे है वो आपकी ताकत है। और ये उनको दलाली की भाषा समझा रहे है। चूंकि न तो दीदी को इन लेखों को पढ़ना है न ही अपनी समझ उस जननेता को समझाने की है लेकिन हमारी समझ में दीदी पहली गलती कर चुकी है, अमित मित्रा जैसे पुराने घाघ अर्थशास्त्री को वित्त मंत्री बनाकर। ये उन्हीं लोगों में शामिल है जो देश में लाखों किसानों की मौत की जिम्मेदार नीतियां बनाने के लिए जिम्मेंदार है अब वहीं किसानों के हक में नीतियां बनाएंगें।
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