Friday, October 28, 2011

सायक की उम्मीद

सायक को
कोई शिकायत नहीं है
उसे उम्मीद है।
रोता नहीं है बस देखता है
आस-पास
वक्त को
खेल और सपनों के बीच पुल बनाने में डूबे भाई को
काम में दिन को धोती हुई अपनी मां को
धीमें-धीमें बोलने से पहले खामोश होते हुए अपने पिता को
वो धीरे-धीरे झपकाता है पलकों को
उसको उम्मीद है- शिकायत नहीं
पलकों उठने गिरने से चौंक जाएंगा भाई
मां रोक देंगी दिन को उथलने का काम
पिता की आवाज में लौंट आएँगी गर्मी
कोई ध्यान नहीं देता
लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं है
वो धीमें से हिलाता है अपने हाथ-पांव
आवाज के भारी पर्दें गिराता-उठाता है
इधर-उधर घूमती नजर में कोई शिकायत नहीं
उम्मीद रहती है
वो आया है
दुनिया की ऐसी गोद से
जहां वो शिकायत कर जिंदा नहीं रह सकता था
वहां सिर्फ उम्मीद थी
अंधेंरों में डूबे उन महीनों ने
सायक को सिखाया है
उम्मीद रखना
चारों ओर से बंद दीवारों में
भी सांस ली जा सकती है
जिंदा रहने के लिए
ली जा सकती है खुराक
और जरूरत नहीं होती
किसी इंसान के बनाएं किसी कपड़े की
लेकिन कितनी जल्दी
ये सब बदल सकता है
ये दुनिया सायक को बदल देंगी
उम्मीद की जिंदगी से
शिकायत करते एक मासूम में।

क्या सिर्फ यहीं है
इस दुनिया के पास
एक उम्मीद
के बदले में

1 comment:

Anonymous said...

बड़ा होने दें इसे आप फिर पता चलेगी असल बात अभी तो गोद में कृष्ण सा दिख रहा है...जब बड़ा हो जाएगा और पूछेगा कि क्यों मेरे दादा की बात नहीं मानी, दादी से क्यों मां बात नहीं करती...मां क्यों चुप रहती है...आप क्यों झल्ला जाते हो...और क्यों समाज को बदलने के लिए आप अपना आईना ही रखते हो...तब सायक ये भी सवाल करेगा की क्या जीवन का मतलब सिर्फ अपना मतलब सीधा करना है...सायक ये भी शिकायत करेगा कि क्यों वो आपके साथ खुद को अकेला महसूस करता है...जैसे साया साथ होता तो है लेकिन, फिर भी साथ नहीं होता.....