हॉस्पीटल में घुसते ही बदबू का भभका नाक में घुस गया। सब लोगों के मुंह पर रूमाल बंधे थे। वही बैठे एक सिक्योरिटी गार्ड से पूछा कि वार्ड नंबर 6 कहां है। 23-24 साल के उस सिक्योरिटी गार्ड की आवाज में बेहद ऊब थी और उसने बता दिया की उल्टे हाथ से जाआों और फिर सीधे हाथ मुड़ जाना- वार्ड नंबर 6 लिखा दिख जायेगा। वार्ड नंबर 6 तक के रास्तें में बेहद बदबूदार पानी फैला हुआ था। उसको पार करते ही एक गैलरी में दाखिल हुआ। गैलरी में साईड में सामान रखा फैला हुआ था। खून के पुराने पड़ चुके धब्बों और धूल से अट गयी ये चादरें इस बात का इशारा भर कर रही थी कि ये चादरें जब बनी थीं तो सफेद थीं। एक व्हील चेयर पर इंसानी ढांचा निकल रहा था। उसके कुर्तें की बांहे जैसे उनमें लटक रही थी। व्हील चेयर को लेकर चल रही महिला के चेहरे में उदासी का पूरा जीवन दिख सकता था। लेकिन उसके सूख गये चेहरे में जीवंत थी तो आंखें जिसमें वो अपने करीबी की जिंदगीं की आस के साथ इस अस्पताल में थीं। जैसे ही दाखिल हुआ तो लगा कि कहां आ गया। चारों तरफ गंदें बेड़ पर लेटे हुए लस्त-पस्त इंसान। उनके पास बैठे घर के लोग जो बेहद खामोश है या फिर अगले दिन के ऑपरेशन पर बात कर रहे है।
मेरे मन में बेहद खौंफ भर गया। अपने परिचित को देखने के बाद भी मैं संयत नहीं हो पा रहा था। हालांकि उसके ऑपरेशन की बात मैं कर जरूर रहा था लेकिन रास्ते में शवगृह में जाते हुए स्ट्रेचर को दिमाग से नहीं निकाल पा रहा था। ये अस्पताल देश की किसी प्रांत या आदिवासी इलाकों में नहीं बना हुआ है। पेशे से वकील मेरे दोस्त बता रहे थे कि अस्पताल में बेड़ की समस्या है। इससे बावजूद कि मरीज मर कर बेड़ खाली कर रहते है। ये अस्पताल है लाला रामस्वरूप टीबी हॉस्पीटल। राजधानी दिल्ली में टीबी यानि तपेदिक का सबसे ज्यादा अहमियत वाला अस्पताल। इसकी दीवारें अगर दो तीन रेड लाईट्स पार कर लेती है तो एनसीआरटीई और देश के सबसे शानदार संस्थान आईआईटी से मिल जाएंगी।
इस अस्पताल में घुसने के बाद ही आपके स्नायुतंत्रों को लकवा मार सकता है। ये देखकर कि देश में तपेदिक के इतने सारे पोस्टर लगाने वाली और निजि मीडिया से लेकर सरकारी मीडिया को एडवरटाईजमेंट से पाट देनी वाली सरकार ने सुविधा के नाम पर इस अस्पताल को क्या दिया। मैंने किसी भी साईट्स पर जाकर इस अस्पताल के बारे में रिसर्च नहीं की है। मैंने इस संस्थान के अधिकारियों से भी जानने की कोशिश नहीं की। क्योंकि जो भी था वो आंखों से दिख रहा था। इस हॉस्पीटल में मरीजों की संख्यां कितनी थी उसका अंदाजा इतने से लग सकता है कि अपने मरीज की भर्ती के लिए संस्थान के डायरेक्टर को कई बार फोन करना पड़ा। और जैसे ही मैं देखने गया तो पांव तले की जमीन खिसक गयी। इसीतरह से लड़ रही है सरकार इस महामारी से।
ये वही सरकार है जो देश की इज्जत के नाम पर सत्तर हजार करोड़ रूपये दिल्ली पर लगा सकती है। ये वहीं सरकार है जो एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के घोटाले पर आंख मूंद कर बैठ सकती है और जब दलालों की महारानी का भांडा-फोड़ हो जाएं तो साझा सरकार की मजबूरी बता सकती है। एक ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री हो सकता है जिस पर जनता को इतना विश्वास है कि कांग्रेस की आंधी में भी चुनाव हार गया। देश की सत्ता में जीत कर आएं नेताओं से ज्यादा भऱोसा जताया था सोनिया गांधी ने उस पर तब भले हीमीडिया के बौनों ने लिखा हो कि ये योग्य है। लेकिन योग्यता बढ़ती मंहगाईं के कारण हर रोज गुम होते आदमी की जद्दो-जहद में दिखती है।
मैं बार-बार बहक रहा हूं। मुझे याद आ रहा है मेरा गांव का दोस्त सतेन्दर उर्फ पटवारी। अपने शहर तो जाता रहता हूं लेकिन गांव जाना अब कम हो गया है। गांव में भी उन दोस्तों के साथ बातचीत और भी कम हो गयी जिनके साथ मई-जून की गर्मियों में सालों तक जानवर चुगाता रहा। ऐसे ही दोस्तों में शामिल था सतेन्दर। गांव की कुनबे और खानदान की परंपरा में मेरे कुनबे में आऩे वाला सतेन्दर पतला-दुबला तो बचपन से ही था। कभी का बड़ा किसान परिवार रहा सतेन्दर का परिवार अब पुरखों के खेतों की कहानियां और दूसरे किसानों के खेतों में मजदूरी के सहारे दिन काट रहे थे। सतेनदर के साथ रहने में घर वालों को एक ऐतराज और था कि मौका लगते ही सतेन्दर के पिता और बड़े भाई दूसरे के खेतों से फसल काट लेने के लिये भी बदनाम थे। लेकिन दोस्ती चलती गयी। सतेन्दर मुझे हमेशा अपने लिए एक ऐसा दोस्ता मानता रहा जो उसके साथ शहर की बातें भी बांटता था।
इधर हम लोग उमर में बड़े होते गये और हमारी मुलाकातें छोटी होती गयी। सालों तक यायावरी की और फिर देश की राजधानी में डेरा जमा लिया। अमेरिका की नीतियों से लेकर अफगानिस्तान के बामियान के बारे में जानकारी बढ़ी तो दोस्तों के बारे में जानकारी और भी कम हुई। लेकिन फिर भी सतेन्दर के बारे में पता चलता रहा कि उसका परिवार गांव से पलायन कर गया। पानीपत में कपड़ों के कारखानों में मजदूरी कर रहे उसके परिवार के किसी सदस्य से वास्ता अप्रैल -मई के महीनों में ही पड़ता था जब वो लोग बटाई पर दिये गये अपने खेतों से गेंहू काटने आते थे। फिर एक दिन गांव से आएँ मेरे भतीजे ने बताया कि चाचा जी आपके दोस्त पटवारी ने शादी कर ली। मैं बहुत खुश हुआ। पटवारी पानीपत से एक महिला से शादी कर गांव चला आया था। मैं गांव गया और पटवारी से मिला। रिश्तें में बड़ा होने के नाते मैं पटवारी की पत्नी का चेहरा नहीं देख सकता था। मुंह पर पल्ला डाले एक औरत के पटवारी के आंगन में घूमते देखकर मैं बेहद खुश था। लेकिन जैसे ही पटवारी पर नजर पड़ी तो मैं हैरान रह गया लंबा पटवारी अब बस हड़्डियों का ढांचा भर था। उसकी आवाज बेहद नर्म हो गयी थी। मेरे साथ बात करते हुए पटवारी ने इस बात का बेहद ख्याल रखा कि मैं ये न भूल सकूं कि पटवारी मेरे से बेहद नीचे का आदमी है। मैं जैसे ही पटवारी से ईलाज की बात करता वो औऱ अपने में सिमटता जाता था। खैर बेहद उदास मन से मैं वापस लौट आया। मैं कुछ दिन पहले गांव गया तो मेरे भतीजे ने बताया कि सतेनदर नहीं रहा। उसको टीबी थी। ईलाज कराने के लिये शहर के अस्पताल में जा रहा था लेकिन फायदा नहीं हो रहा था। मैने सतेन्दर के भाई पवन को काफी भला-बुरा कहा कि क्यों नहीं सतेन्दर के लिए दिल्ली आएँ। मैं वहां के शानदार सरकारी अस्पतालों में उसका ईलाज कराता। वो बेचारा कहता रहा कि भाई क्या करते उसकी मौत तो बुला ही रही थी। मैने पूछा तो पता कि सतेन्दर की बीबी चली गई कहां कोई नहीं जानता।
मैं बेहद अफसोस में था कि दिल्ली चला आता तो पटवारी बच सकता था। लेकिन दिल्ली के इस सबसे बेहतर सरकारी अस्पताल की इस हालत को देखकर मुझे लगा कि अच्छा हुआ था कि पटवारी दिल्ली नहीं आया। पवन के मुताबिक आखिरी दिनों में अक्सर पटवारी ये बोलता था कि अगर वो वक्त से दिल्ली चला जाता तो उसका दोस्त बबलू उसका ईलाज करा देता। मुझे तो बस इतना ख्याल आ रहा है कि बेचारा दवाईयों के लिए भटकता पटवारी कॉमनवेल्थ खेल देख लेता तो मरने से पहले ये तो सिदक रहता कि कॉमनवेल्थ के सही तरह से होने से देश की ईज्जत बच गयी पटवारी की जिंदगी का क्या वो तो वैसे भी रास्ते का पत्थर थी।
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