Saturday, June 11, 2011

आधी रात को आजादी

एक खामोश सी चादर शहर पर है
बोलते हुए लोगों के ऊपर
शहर के बीचों-बीच मारे गये लोगों की निगाह
टिक गयी शहर में बसे हुए लोगों पर।
हिल गये अंतस में
डूब गयी एक आवाज को दबाने में जुट गया शहर
आवाज जो गले से निकली ही नहीं
लेकिन कानों में बजती रही जोर से-
- चोर है सब
बुरी तरह पिट कर निकले लोगों की निगाह में
ये शहर था जहां उनकी धुंधली सी आवाज
अपने भाईयों के लिए
घुट गए बचपन के लिए
और गुमशुदा जवानियों के लिए
निकल कर-
गले गूंज बन जाती
लेकिन
शहर में खरीद कर लाएं गये बांस के डंडों में
रूंध कर रह गयी।
रात के तीसरे पहर में दौड़ते वक्त
उनको
याद नहीं रहा
तिंरगा जो मचान पर खंभें के बांध दिया गया था
नहीं दिख रहा था लालकिले का वो मचान
जिस पर पचासियों बार प्रधानमंत्रियों ने
माईक से आवाज बढ़ा कर
गोरों के भाग जाने का आश्वासन दिया था।
कांपते-हाथों और जाम की चढ़ गई गर्मी से
नर्म गद्दे में धंस कर नाराज होते हुए कहा
नींद खराब हो जाती है
रामलीला मैदान से आते हुए खर्राटों से
अंधेंरे में ढूंढ़ते हुए शत्रु शिविरों का
आग लगाकर मिटा देना है नामो-निशान
इतना आदेश बहुत था
सदियों के अनुभव को अपने में समेटे हुए
वर्दी के अनुशासन को।
उधर पुलिस पर यकीन रखने वालों को नशे के बाद हरारत हुई
गोपीनाथ बाजार में सपने डूबी लड़की
जीने के अधिकार को सीने से लगाएं घूम रही थी
उठाया
रौंदा
फेंक दिया
उसी जगह पर
सफेद से लाल हो गये खून से कपड़े
एजेंसी को शक है
जरूर किसी संगठन से रिश्ता है इसका
लाल कपड़े पहने
और आंखों में सपने लिए घूम रही थी
अकेले
राजधानी की सड़कों पर।
इस बीच ढोंगियों को लगा दिया
ठिकाने
भगा दिया सड़कों पर
बेघर बेचारों की तरह
सड़कों पर दौड़ते
नींद में इधर-उधर हाथ मारते
लोगों के
अंदर का राक्षस
दिख रहा था संसद
से
लेकर अकबर रोड़ तक
आखिर नंगें हाथ और
भूख के सहारे
खतरा बन सकते थे
हजारों लोग
मासूम दिखने वाले
औरतों बच्चों और बूढ़ों के चेहरे।
बदल गया फोकस कैमरे का
फ्रेम में चीखतें बौंनों को
दिखाई दे रहा था
किसी पिरामिड के गणितीय ज्ञान की तरह
कभी लगता है कि भीड़ आवारा नहीं है
कभी लगता है ढोंगी बाबा के पास सरकार उड़ाने के बम है
झूठ के सहारे चलती एकाउंटिंग में
100 के चालान से बचने के लिए
कमिश्नर तक की कुर्सी हिलाने वाले बौंनों को
मैंदान में मिट्टी कुचलने वाले ढ़ोंगी के भक्तों के खिलाफ
फ्रेम बनाने थे, कलम चलानी और ढूंढने थे ऐसे शब्द
जो संसदीय लोकतंत्र को बचाने में मददगार रहे
इसके लिए जूता दिखाने वाले को पिटते देखने से ज्यादा
मजा है
खुद जूता उतार कर जूतिया दिया जाएं

क्रमश.....

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