रास्तें हो या फिर चारदीवारियां
इस पार क्या कर रहे है ये लोग
उस पार कुछ हो रहा होगा।
हंसता है तो जरूर कुछ किया
होगा
रो रहा है तो कुछ छिपा रहा है
आंसूओं की दीवार के तले
मैं यहां ख़ड़ा हूं
उस पार वो बुढिया भीख मांग रही
है
चौराहे पर दस में पांच पैन बेचती
है
उलझे बालों मे उधडती घघरी पहने
बच्चीं हो सकती है ठक ठक गैंग
की
हाथ देता सिपाही, पास खडा ट्रक
जरूर पैसा ले रहा होगा
भीख मांगता हुआ आदमी जरूर मजे
में
रात घर मे टीवी देखता हुआ चैन से सो जाता होगा
कार में कुछ ऐसा वैसा ही कर रहे
होंगे
बंद कर शीशे बैठने वाले
ऑफिस से दरवाजा खोलने वाला चपरासी
मेरी मेज पोंछते वक्त क्यो घूर रहा था कागजों को
घर के बाहर खड़ा हुआ
भिखारी देख रहा था बार बार घर की ओर
हे भगवान ये सीरियल क्यों देख
रही है मां
बच्चों कंप्यूटर में क्या खोज
रहे है
रूको जरा देखने दो पूरा है या
नहीं
पूरा सामान नहीं देते है दुकान
वाले
हे भगवान
आज सुबह शीशे में हंस क्यों रहा
था मेरा चेहरा
क्या कर दिया मैंने ऐसा।
1 comment:
साले सब चोर हैं... तुम्हारा ही लाइन है डियर।
दुनिया विलेनों से भरी हुई है।
आदमी हर पल दांवपेच में रहता है।
तुम संदेह की घंटी टनटनाते हो
मौसम का पता गर किसानों को ठीकठाक होता
तो वह भी चकमा देकर कूट ही लेते फसल
सुबह से शाम तक
या फिर नींद आने तक
हम सोच रहे थे
तुम्हारे चेहरे का क्या करूं
तुम्हारी कविता मुझे अच्छी लगती है। साउथ कैंपस के जमाने से।
बस... लगे रहो मुन्ना भाई...
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