लिखना हमेशा मुश्किल होता है। एक ऐसी बात लिखना
जिसको लोग पढ़ना चाहे किसी पहेली से कम नहीं होती। क्योंकि लेखन अपने विचारों को अभिव्यक्त
करना भर नहीं है। लिखना दुनिया को समझने के बाद उसको कहने का तरीका भी है। लेखन व्यक्ति
और सृष्टि के बीच का वो रिश्ता है जिसको व्यक्ति समाज के साथ साझा करता है। समाज के
तौर पर उसके पाठक उसके साथ होते है। कई बार ये समाज बहुत बड़ा हो जाता है और आदमी एकांगी
होकर अपनी रचनाओं के साथ ही गुम हो जाता है। लेखक के विचारों से दुनिया कई बार सहमति
और बहुत बार असहमति व्यक्त करती है। कई बार लेखक चीजों को व्यक्त करने के लिए गैरपारंपरिक
तरीकों का प्रयोग करता है और वही प्रयोग उसको समाज में आलोचना का पात्र बना देता है।
कई बार चीजों को इस तरह से देखता है कि ज्यादातर लोग उसके करीब नहीं पहुंच पाते और
तब भी लेखक अपनी रचनाओं में अकेला रह जाता है। सामाजिक मान्यताओं की पृष्टभूमि में
झांकना अक्सर लेखकों का प्रिय शगल रहा है तो मान्यताओं पर चोट की आशंकाओं से घिरे पाठकों
के लेखकों पर हमला करने की एक सुदीर्घ परंपरा मौजूद है। समाज के संचालन के लिए बनी
सरकार या फिर व्यवस्था हमेशा से लेखन और लेखकों के प्रति शंकाग्रस्त होती है। समाज
के हित के नाम पर लिए गए फैसलों के स्वहित को होने वाली संभावित हानि को रोकने के लिए
सरकारें या व्यवस्था सामाजिक शांति के नाम पर लेखकों पर कमान कसें रखती हैं। सामाजिक
स्वीकृतियों की प्रतिक्षा में किसी भी लेखक को शब्द नहीं मिलते। शब्दों से साक्षात्कार
का तरीका हर लेखक के लिए अनूठा और अलग होता है। व्याकरण के नियमों की परिधि में रहे
या फिर समझ और अहसास के सहारे अर्जित नए नवेले शब्दों को नई परिपाठी में प्रस्तुत करें
इस तरह की सैकड़ों बाधाओं से लिखने से पहले लेखक को पार करना होता है। लेकिन लिखना
तभी संभव हो पाता है जब लेखक को अपने अंदर घुमड़ रहे शब्दों को बाहर लाना अनिवार्य
हो जाता है। शब्द उसके अंदर से बाहर आना चाहते है और लेखक को लगता है तमाम खतरों के
बीच भी लिखना जरूरी है तभी लेखक की कलम चलती है। इसीलिए जब सालों पहले पढ़े हुए शब्द
एकाएक दिमाग में कौंधतें है तो लगता है कि कितन लंबें अर्सें पहले महान लेखक ने ये
अहसास किया था कि अभिव्यक्ति के खतरें उठानें होंगे। ऐसे वक्त में जब आपके लिखे गएं
शब्दों को हजारों लोग कुछ ही पलों में देख सकते है, पलक
झपकते ही उन पर प्रतिक्रिया कर सकते है तब लिखने में आपको बंधन का अहसास होता है। संचार क्रांत्रि और साक्षरता ने समझ बढा़ईं है या
नहीं लेकिन पहुंच बढ़ा दी है। सवाल कभी इस बात पर नहीं उठ रहे है कि देश के अतीत और
भविष्य के बीच वर्तमान के पुल है। और पुल पार करने के लिए अतीत के उपलब्ध अनुभवों का
सहारा लिया जाना चाहिए। बल्कि एक विशाल जनमानस इस बात के लिए व्यग्र है कि उसकी बात
सुनी जाएं उस बात को कहने के लिए उसने न तैयारी की है न ही अध्ययन। इस पर भी किसी लेखक
तो दुविधा हो सकती है। जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में ये बात सबसे अहम है कि बहुमत क्या
चाहता है। और ऐसे देश में जहां लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और कुलीन कुतंत्रो के बीच एक
अदृश्य लेकिन मजबूत गठजोड़ फल-फूल रहा हो वहां किसी भी बात को साफगोई से कहने में कई खतरें
हमेशा मौजूद रहेंगे। सामाजिक चेतनाओं में विषमताओं को लेकर कोई लंबी बहस की न परंपरा रही हो और न ही उस ओर कोई बढ़ता दिख रहा
हो तब लेखन एक दुष्कर कार्य हो जाता है। संचार तकनीकों पर कब्ज़ा और भी खतरे का बायस
हो जाता है। जनसंख्या शायद ही कभी इस बात का हिस्सा रही हो कि लेखन और जनसंख्या के
बीच क्या रिश्ता हो सकता है। भाषा का चयन जरूर इस बात की ओर संकेत करता है कि लेखन
अपनी बात को कितने लोगों तक पहुंचाना चाहता है और उसकी सोच के आईने में कौन सा अक्श
साफ दिख रहा है। किन मान्यताओं के बारे में उसकी राय और समझ है किन मान्यताओं को सही
सही से पहचानता है। लेकिन जनसंख्या पहली बार इतनी लेखन में इतनी महत्वपूर्ण हो गई है।
आधुनिक अनुवाद की तकनीकों ने अब लेखन को लेखक की समझ से भी आगे पहुंचा दिया है। लेखन
पहले भी अनुवाद के सहारे दूसरी भाषाओं के पाठकों तक पहुंचते रहे है लेकिन उसमें एक
बाध्यता थी कि लेखक का अनुवाद करने के लिए एक अनुवादक को खोजना होता था या फिर दूसरी
भाषा के पाठकों को अपने लिए अजनबी भाषा के लेखक के बारे में मालूम होता था या फिर लेखन
की काफी चर्चा हो गई होती थी। लेकिन तकनीकि विकास के इस दौर में लेखक अपने लेख को पब्लिश करता है उससे साथ ही इंटरनेट पर मौजूद सॉफ्यवेयर
प्रोग्राम अनुवाद कर परोस देते है। और यदि दूसरी भाषा का एक भी पाठक लेख के बारे में चर्चा सुनता है या फिर
किसी तरह से पढ़ता है तो बिजली की गति से लेख का अनुवाद उस अजनबी भाषा में हो जाता
है। ऐसे में अजनबी लोगों के बारे में भी सहिष्णुता और समझ के साथ साथ एक सामूहिक मानवीय
चेतना का अभाव फिर से लेखक को खतरें में डालता है। इसीलिए एक ही हिस्सें में मौजूद
अलग-अलग भाषा-भाषियों की जनसंख्या भी ळेखन पर प्रभाव डाल रही है। जनसंख्या
का आधिक्य इस बात की पूरी संभावना रखता है कि एक छोटे से छोटा समूह भी लेखन की धज्जियां
उखाड़ने और लेखक पर कड़ी निगाह गढ़ाएं बैठी व्यवस्था को उन्मूलक बनने का आसान सा अवसर
दे देती है। लेकिन इतनी समस्याओं से घिरने के बावजूद अगर कोई लेखन करता है तो इस बात
के लिए उसके साहस की प्रशंसा करनी चाहिए कि तमाम बातों को दिमाग में रखते हुए भी लेखन
ऩे समाज और अपने बीच के रिश्तों को बेबाकी से समाज के सामने रखा है।
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