Sunday, March 15, 2015

अब मैं शहीद नहीं हो सकता।


मैं शहादत की उम्र पार कर गया हूं
अब मेरे शहीद होने की संभावनायें खत्म हो गयी
आंखों में अखबार की सुर्खियां
नाबालिग से रेप, वर्दीवालों ने बेगुनाहों पर बरसायीं लाठियां
या फिर सरे रहा मारा गया कोई
अखबार में छपें कुछ अक्षर भर है
जिनमें मैं खोजता रहतां हूं व्याकरण की गलतियां
अक्सर झुंझलाहट हो जाती है मुझे
जब भी किसी को सही तरह से मौत लिखते हुए नहीं देखता हूं
किस तरह सत्यानाश कर रहे है लेखन का लोग
दूर के राज्य में बम विस्फोट में मरे लोगों को अखबार के किस पेज पर खबर हो
इस बात का लगता है नये लोगों को पता ही नही है
पहले पेज पर लगा देता है
बिना ये जाने कि इस इलाके की खबरों से अखबार नही बिकता है
अखबार हो या टीवी
दोनो में खोजता हूं रेप की खबरें
मिल जाएं कुछ ब्लर की हुई तस्वीरें
जनता को खबर देने की आजादी के नाम पर
मांगता हूं कुछ भी छापने की आजादी
काश ये फोटो छापने दे सरकार
कितना बिकेगा अखबार
एक और दूरी जो मैंने तय की है
वो है ये जानने की
भाषा से बदल जाता है कारोबार
अंग्रेजी में छाप सकता हूं बहुत सी नंगी तस्वीरें
बात करता हूं बेधडक किसी भी शब्द पर
हिंदी में थोड़ा परेशानी है
लेकिन फोटों को देकर मुझे थोड़ी दूरी मिटानी है
मिटानी है एक ऐसी भीड़ की भूख
जिसको सिर्फ छूट की खबरें चाहिएं
जिसकों फिल्मों के नए विवरण चाहिए
जिसकों देशभक्ति के ऐसे गीत चाहिएं
जिनमें अपनी जेंब से कुछ भी खर्च किये बिना
बस शेयर कर बन सके राष्ट्रभक्त
मुझे इन सब में काफी मजा आता है
जानता हू कि वो भी जानता है सच और मैं भी
फिर भी सच का कारोबार मजा देता है
और देता है शहादत से मुक्ति भी
बाहर सड़क पर भिखारी पैसे मांगकर खरीदता है फिल्म का टिकट
पर्दे पर भिखारी बना हुआ अरबपति महानायक
अभिनय से आंखों में ला देता है आंसू
फिर से बाहर बैठकर करना चाहता है नकल
लूला लंगड़ा भिखारी परदे पर भिखारी बने नायक की
मंचों पर ललकारते हुए महानायकों की आवाज
गांव-गांव में अपने ही खून के रिश्तों में दुश्मन तलाश करती है
चुनाव के दौरान दिखते है देश बदलने के संकल्प
उछलती है सपनों की लहरें
चुनाव खत्म शुरू होते है रिश्तें
अनाम-अनजान , भीड़ तालियां बजाती है
उनकी नायकों के व्यक्तिगत रिश्तों को निबाहने पर
मुझे ये अंतर नहीं दिखता
मैं खोजता हूं उसमें भी राजनीति की जीत
मानवीय गरिमा और रिश्तें
नहीं दिखती नंगई, खून से भींगे चावल
जाति के नाम पर उछलती पगड़ियां और लूट
मैं जानता हूं शहादत से पार है ये सब
सच बोलना या लिखना शहादत के करीब ले जाता है
सेमिनार में बोलना मुझे बहुत अच्छा लगता है
खूबसूरत से फूलों के गुलदस्तें
खूबसूरत से हाथों से तिलक
खूबसूरत से चेहरों की जिज्ञासा
खूबसूरत सी बातें
बिसलेरी से शुरू कर
कई बार मिल जाती है विदेशी भी
इन सब में कितनी बार मैंने दोहराया है
बाल श्रम अपराध है
कितनी बार रोया हूं ऐसे आंसूओं में
जिनके बदले में तालियों की गड़गड़ाहट मिली
और कभी हैदराबादी तो कभी करीम की बिरयानी के बीच
कितने ही खूबसूरत चेहरों ने ली है तस्वींरें
लगता है कि शहादत की जरूरत नहीं
शहादत पर बात करने की जरूरत है
इसी से चल जाता है मेरा काम
फिल्मों के नायकों से मिलती है मुझे बहुत प्रेरणा
शहीदों की तस्वीरें अच्छी लगती है फेस बुक पेज पर
कभी-कभी बेटे की अलमारी पर चिपका
कर लेता हूं अपना कर्तव्य पूरा
कई बार लेख शुरूआत करता हूं
यत्र नार्यस्तु पूज्यते
तंत्र रमन्ते देवता
इससे पूरा हो जाता है
कई बार सरेआम बेईज्जत होती
लड़कियों के प्रति मेरा अपराध बोध
कई बार देखता हूं
लोगों के साथ होते हुए अन्याय
लेकिन उसमें खोज लेता हूं अपने लिए कोई रास्ता
धीरे से बोल देता हूं
काश ये थोड़ी मेहनत कर लेते
जिस वक्त स्कूल गया था मैं
उस वक्त ये भी रट लेते
शहादत के फायदें
शहीदों के नाम
और कुछ ऐसे अक्षर
जिनसे बिना किसी शहादत के
मिल जाएं शहादत का पुण्य

2 comments:

bhavpreetanand said...

अब मैं... अच्छी कविता। ब्लॉग के पहले पन्ने पर छपी तीन-चार कविताओं की तुलना में। शहीद के बहाने परिस्थितयों की व्याख्या में गहराई है। एक प्रतीक के साथ जीवंत कविता का बोध होता है। यहां सबकुछ है। मतलब अपना-पराया सबका इनवेस्टीगेशन। पिज्जा वाली कविता में एक हिरोइक छवि है। जैसे हिंदी फिल्मो के दृश्य चलते हैं। कविता में किसी को हीरो बनाने के अपने खतरे होते हैं और उसे तार्किक कसौटी पर साधना होता है। इसमें गड़बड़ी हुई है डियर।

mediajantantra said...

शुक्रिया दोस्त। पिज्जा वाली सांकेतिक कविता में मैं सिर्फ एक चीज दिखाना चाह रहा था कि किस तरह से गुलाम हो गया हूं मैं वक्त का। मुझे मालूम है कि अगर कही गलती होती है समय में तो वो मेरी है कंपनियों ने इनता इंसुलेशन कर लिया है अपने आपको कि वो आपकी मौत से भी फायदे में है