बीजेपी के अंहकार को धूल में मिला दिया गया। बीजेपी इस लिए कह रहा हूं क्योंकि इस वक्त बीजेपी का मतलब नमो और उसकी एक मोटी परछाई यानि कथित चाणक्य हो गया है। अंहकार की पराकाष्ठा दिख रही थी। कपड़ों से देश की छवि पेश की जा रही थी और देश की समस्याओंं के बारे में फार्मूल फ्रांस की रानी मेरी लुई आंत्वेन (नाम सही से नहीं लिख पाया) की ही दिए जा रहे थे। फ्रांस की भूखी जनता रानी की गाड़ी के पीछे भाग रही थी और रानी ने अपनी सहायक से पूछा कि ये क्यों चिल्ला रहे है तो सहरायक का जवाब था कि ये इनके पास रोटी नहीं है तो रानी ने बड़ी हैरानी से जवाब दिया था कि तब ये केक क्यों नहीं खाते। उसी तरह से हंबल चाय वाले ने गरीब हिंदुस्तानियों को दस लाख का सूट पहन कर जवाब दिया था कि अरे घरों में बिजली का बिल ज्यादा आ रहा है तो क्या हुआ हम न्यूक्लियर बिल पर देश का सम्मान अमेरिका की चौखट में रख रहे है। मीडिया में इस वक्त नमो नमो चल रहा है जिसको देखों वही चिल्ला रहा है। ऐसे में इस बात पर बहस किसी ने की ही नहीं कि भाई अमेरिका कितने पीछे हटा ये बताओं। बस ये हुआ कि एक लाख करोड़ रूपए के ऑर्डर दो और गरीब को बिजली मिल जाएंगी यानि 2025 की डेडलाईन अब खिसक कर 2035 तक चली जा चुकी होगी। खैर मोदी जी ने कहा भारत मेकिंग शुरू हो गया है अंबानी और अडानी अब महागर बसाने पर लग गए है आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरे हुए नगर। और मोदी जी ने झुग्गी वालोें को कह दिया अगर झुग्गी में लाईट नहीं तो पानी नहीं तो परेशान न हो अंबानी और अडानी के बसाये गये शहरों में रहो। जनता ने जो जवाब देना था दिया। और चूंकि हिंदुस्तानियों की सबसे खूबसूरत आदत है जनतंत्र में विश्वास तो जवाब सधा हुआ दिया गया। कैसे लोग है जी को पता चल गया कि लोग ऐसे ही होते है। लेकिन इस पूरे शोर-शराबे में एक बात से लोग अपना ध्यान हट रहा है और वो है कि आप पार्टी बीजेपी से भी ज्यादा एक आदमी आश्रित पार्टी है। आम आदमी का मतलब सिर्फ अरविंद केजरीवाल है। दिल्ली में मोदी के पोस्टर.बैनर और पंपलेट में कभी कभी ए4साईज में स्टांप साईज में कोई दूसरा नेता भी मिल जाता था। कभी कभी किरण बेदी भी पोस्टर में नरेन्द्र बेदी के साथ चल दी है। लेकिन आम आदमी के पोस्टरों में किसी का चेहरा नहीं था अरविंद के अलावा। चाहे वो बस स्टॉप पर लगे पोस्टर हो या फिर कही भी बैनर। और तो और जिस गाने को आपने मुख्यालय में सुना वो गाना या संगीतमय प्रस्तुति भी सिर्फ पांच साल अरविंद केजरीवाल का नारा था। जनता ने सुन लिया नारा और अपने जनतांत्रिक अधिकारों को सबसे बड़ी ताकत थमा अरविंद के हाथो। इस बहुमत का बोझ आपको आप नेताओं के कल के भाषणों में सुनाई दे रहा था। हर कोई इस जीत से डरा हुआ था। हर कोई इस बोझ को महसूस कर रहा था। लेकिन हम को अगर किसी से डर लग रहा है तो अरविंद केजरीवाल से। व्यक्तिगत तौर पर कोई वास्ता नहीं रहा लेकिन जैसा दिखा उसमें अरविंद एक तेज-तर्रार और समीकरणों की जोड़-तोड़ में माहिर एक नौकरशाह दिख रहे है। अंदर से कितने डेमोक्रेटिक है मालूम नहीं। लेकिन पूरा आंदोलन एक आदमी के बदल गया है। पूरी सरकार एक आदमी पर निर्भर हो गई है। ऐसे में अरविंद की पसंद और नापसंद ही पार्टी की पसंद और नापसंद हो जाएंगी। ऐसे में अरविंद की जरा सी भूल एक पूरी पार्टी की भूल में तब्दील हो जाएंगी। ऐसे में ऐसे वक्त पर जब खुशियों की शहनाईंयां आम आदमी पार्टी के दरवाजे पर बज रही होंगी आम आदमी के रणनीतिकार इस आवाज को भी सुन रहे होंगे। वक्त तय कर देंगा कि देश के आम आदमियों का लोकतंत्र में किया गया एक और प्रयोग विफल हुआ या सफल। अपनी कामना सफलता की है आगे जो अरविंद तय करे।
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