Sunday, March 29, 2015

अरविंद केजरीवाल शाह---योगेंद्र यादव शून्य

"ये फ्रख तो हासिल है, बुरे है कि भले है
दो -चार कदम हम भी तेरे साथ चले है।"
दिल्ली के आम आदमी पार्टी में जूतम-पैजार हुईो। इंसान का इंसान से बढ़े भाईचारा यही संदेश देने वाले अरविंद ने पिछवाड़ें पर लात मार कर ही निकाला प्रशांत और योगेन्द्र यादव को। इस वक्त बहुत से लोगो को दुख हुआ। बहुत सारी राजनीतिक टिप्पणी आईं लेकिन मुझे एक को शेयर करने का मन हुआ जो कश्मीर पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की थी। " पुराने दलों को आप जैसा बनने की सलाह दी जा रही थी पर लगता है आप ने हम जैसा बनने का फैसला किया है "। ये एक उम्मीद के धुंधला जाने की आवाज लगती है यहां तक कि उन लोगों को भी जिन लोगो के विरोध में ये पार्टी खड़ी हुई थी। क्योंकि सब लोगों ने उम्मीद पाली हुई थी कि ये वैकल्पिक राजनीति का एक नया अध्याय है। मुझे याद है 2011 और अब मैं नाम भी लिख सकता हूं शिवेन्द्र सिंह चौहान और शर्मिष्ठा (क्योंकि वो इस सपने के टूटने से पहले ही टूट चुके थे इन लोगो की सच्चाईंया देखकर)जैसे कार्यकर्ताओं से मेरी बातचीत। बहस इसीलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मैं उनमें शामिल नहीं था लिहाजा मैं उन लोगो से बस बातचीत करता था। शिवेन्द्र और शर्मिष्ठा पत्रकारिता का अपना करियर छोड़ कर इस मूवमेंट ( जैसा वो उस वक्त कहते थे) में शामिल हुए थे। मैं अपने एक अभिन्न दोस्त सिदार्थ तिवारी के साथ शिवेन्द्र से मिला और बेबाक बातचीत में मैंने इन लोगों को नाटकखोर कहा कि लोकपाल की नहीं जवाबदेही का बात करनी चाहिए। उस वक्त से लेकर आजतक मुझे कभी अरविंद और उसकी टीम पर भरोसा नहीं रहा। हां ये लोग कुछ अच्छा कर सकते है लेकिन नया नहीं कर सकते। इस बात पर हमेशा मै दृड रहता था। उस वक्त का एक आर्टिकल्स है और "और वो दिन भी आ गया" मीडियालोक में लिख दिया था जो मेरा ब्लॉग है। उस वक्त लोग ब्लॉग लिखते थे तो पढ़ते भी थे । उस ब्लॉग पर इतनी गालियां थी मां-बहन से लेकर मां-बाप को सबको कोसा गया मेरे। मेरे लिए उसका सिर्फ एक ही मतलब था कि ये लोग इतने छोटे है कि विरोध का स्वर तो दूर की बात है चुपचाप बोले गए शब्द तक बर्दाश्त नहीं है। और उस वक्त भी नायक अरविंद ही था। जबकि अरविंद का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड इस बात की गवाही नहीं देता था कि वो आदमी एक ईमानदार आदमी भी है। एक सवाल से ही सब कुछ जवाब मिल जाते है कि 15 साल तक नौकरी में रहने के बावजूद बताने के लिए एक भी काम नहीं जो उसने भ्रष्ट्राचार के खिळाफ किया हो। हां ये तय था कि वो मीडिया में प्रसिद्धी का बेहद तलबगार है और उसकी अटेंशन हासिल करने के लिए कुछ भी करेगा। । खैर एक गवैया भी जुड़ गया( पर्सनल टिप्पणी नहीं लेकिन बड़े -बड़े बालों में बीच की मांग और गले में मोटी सोने की चैन हाथों में कड़े और बातचीत में तुम्हारी भाभी ने दो लाख के कंगन खऱीद लिए या कितने का क्या खरीद लिया के अलावा टीवी ऑन होते ही एक दम दार्शनिक सुकरात) एऩजीओ के गैंग से कई और लोग सौगात में मिले एक नाम मनीष सिसौदिया। भी। गांव में कहा जाता है ना लीपने का ना पोतने का। खैर बात वापस वही जा रही है जहां हर बार चली जाती है। इसको यही छोड़ते है आगे की बात करते है। इससे कई लोगों के दिल टूटे होंगे। अरविंद की एक बात जो उसकी पद लोलुपता को दिखाती है वो है उस स्टिंग्स में गाली-गलौंज नहीं ( ये तो उसकी व्यक्तिगत औकात दिखाती है) ये कहना कि मैं 67 विधायकों को लेकर अलग हो जाता हूं आप चलाओं ये पार्टी। पहली बात अगर अरविंद को साफगोई की राजनीति करनी थी और उसके जेहन में होती तो ये कहता कि आप संभालों ये विधायक और पार्टी में सच्चाई के हक में अकेला खड़ा हो जाता हूं। लेकिन नौकरशाहों के राजनीति में आने के बाद के तेवरों के एक मिरर ईमेज है ये सब। इस नौकरशाह से कतई उम्मीद नहीं है। क्योंकि याद कीजिए जीत के बाद अपनी पत्नी का हाथ हिलाते हुए ये कहा था कि ये कभी मेरे साथ कही सामने नहीं आई क्योंकि इसको डर था सरकार इसके खिलाफ कुछ कर देंगी तो मैंने इस बार कहा कि सरकार कुछ नहीं करेंगी। गुरू का ये गणित लाजवाब है, मुख्यमंत्री वो भी पांच साल किसी सरकार की औंकात नहीं उसकी बीबी को कुछ कहे दफ्तर जाएं या नहीं। लेकिन बॉस अगर आप सच्चाई के रास्तें पर चल रहे थे तो औरों की तरह सबकुछ दांव पर लगाने में परहेज कौन सा था। बेटी स्टूडैंट विंग की अध्यक्ष। गालियां बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं के वंशवाद को। गिनवाएं तो क्या। लेकिन उनके साथ जुड़े लोगों को उनसे उम्मीद है। मेरा तो कहना है कि वो दिल्ली का कुछ भला करे जो उनके लिए अब बेहद जरूरी है क्योंकि जिस सिद्वांत का नारा उसके चंपू गवैया, मनीष सिसौदिया या फिर पत्रकारिता में बहुत सी कहानियों के नायक खेतान और आशुतोष है दे रहे है वो तो तार तार हो गया है। और बहुत से लोगो के लिए ये फिर एक उम्मीद टूटने का दौर है। 
" दीप था या तारा क्या जाने. दिल में क्यू डूबा क्या जाने
आस की मैली चादर ओढ़े, वो भी था मुझ-सा क्या जाने"।

1 comment:

bhavpreetanand said...

बड़े-पुरखे कह गए हैं जब मन उद्वेलित हो तब किसी काम से बचना चाहिए। मन के शांत होने का इंतजार करना चाहिए। आप के सिर फुटोव्वल मंे अरविंज केजरीवाल सत्ता लोलुप दिख रहे हैं। बाकी सब संत। संत हैं तो संत की तरह बात करें। केजरीवाली एक दशक से अिधक समय तक आईआरएस थे। उन्होंने कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। जाहिर है हम उन्हें जानते तक नहीं थे। पर उन्होंने अपने कार्यकाल में किसी गलत फाइल पर दस्तखत की हो तो यह जांच का विषय या उनपर तोहमत का विषय हो सकता है। पर क्या ऐसा कुछ है। है तो निकालो न स्टोरी। देश-दुनिया देखेगी। आप-हम जिस कर्म को कर रहे हैं उसमें हमारी इच्छा उच्च पद को प्राप्त करना लाेलुपता नहीं है। िफर राजनीति तो दांवपेंच का भी खेल है। उसमें कहीं भावुकता और संतगीरी नहीं है। दिक्कत यह है कि आप के जितने भी शीर्ष नेता हैं सब इतने मीडिया फ्रेंडली हैं कि माइक सामने आते ही लार टपकने लगती है। अरविंद केजरीवाल भी ऐसे ही हैं। कोई खास अंतर नहीं है। न ही पार्टी के अंदर कोई ऐसा डेकोरम है जो मीडिया ब्रीफ के लिए नियुक्त हो। जिसे जब मन होता है कुछ बोल देता है। कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है। एक कोई बिन्नी भी था अगर याद हो तो। उस समय वे भी सुबह से लेकर शाम तक मीडिया से ही बात करते दिखाई देते थे। हश्र आपके सामने है। मैं कोई केजरीवाल का भक्त नहीं हूं। मेरी अरज इतनी ही है दोस्त कि मुख्यमंत्री होने के नाते केजरीवाल ने कोई ऐसा कदम उठाया है जो व्यापक रूप् से जनहित के खिलाफ है तो हम फिर पिल पड़ने को तैयार हैं। पर ये आपस में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं तो लड़ने दो। इस अगड़म-बगड़म रास्ते से गुजरकर तो इसे परिपक्व होना है। मुझे तो दुख है मेधा पाटेकर ने आप को बाय-बाय कह दिया। आदर्श पाने का कोई आदर्श रास्ता नहीं होता है डियर। ढेरों पेंच होते हैं। मेधा पाटेकर को इसमें जमकर राजनीति करनी चाहिए थी। उस हर व्यक्ति को राजनीति करनी चाहिए, अगर यह संभव होता है तो, जो राजनीति में सुचिता देखना चाहता है। बस दो-चार ड्रामे से किनारा करना कायरता है। अभी आप में और भी ड्रामे होंगे। हमारी नजर इसपर होनी चाहिए कि आप इस दौरान घुसखोरों, जरूरी काम नहीं करने वाले, भ्रष्टाचारियों आिद को तो नहीं संरक्षित कर रही है।