Tuesday, March 3, 2015

चुनाव या मजबूरी

कांच की किरच की तरह करक रही है झूठ की पट्टियां
रास्ते भर मैं बात करता रहा
उसके चेहरे से कभी हटा नहीं झूठ का मुखौंटा
मुझे हैरानियों में उथलता-पुथलता
सुनता रहा सटकर बैठे मुंह की
 दूर से आती हुई आवाज
भूख से भींगें हुए लोग
या खाने से लाल हुए लोग
सब एक नाव पर बैठते है
जब वो सच से टकराते है
हर के पास झूठ की नदी
झूठ के पाल, झूठ की पतवार
मगरमच्छों के साथ रहते हुए
किस कदर चेहरे पर एक नया भाव लिये घूमते है
डर से अंदर तक बिंदें हुए
लेकिन डर से बेपरवाह दिखते हुए
हर दिल में मछलियों की भीड़ में छिपा हुआ मगरमच्छ
हे ईश्वर मुझे किस से बात करनी है
इससे पहले कि मैं किसी ईश्वर से कुछ मांगूं
मेरी पीठ पर लगता है कुछ उग आया है
पीछें से हवा में लहराने लगतीं है पूंछ
मेरी आंखों में छटपटाने लगते अंदर के सच
मुझे ये क्या हो रहा है
मैं तो इनसे बात करना चाहता था
मैं सच देखना चाहता था
मेरी आंखों से अब दिख क्यों नहीं रहा है
सिर्फ हवा में उछलें हुए मांस के कुछ टुकड़ों के अलावा
मेरे मुंह से निकली आवाजों का मेरी तलाश से कोई रिश्ता नहीं
मैं वहीं बोल रहा हूं जो सुन रहा हूं

ये चुनाव था या मजबूरी 

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