Friday, March 20, 2015

भगवान बादशाहों को ऊब न देना। ...................................................

बादशाह गिनते रहे सिक्को कों
चलते रहे मनोरंजक पाशें
उलझे रहे अय्याशियों में
गलबहियां करे पूंजिपतियों के
बेहद लोचदार तिलिस्म में
इसका कोई गम नहीं
मगर भूल कर भी
भगवान इन बादशाहों को ऊब न देना
ऊबें हुए बादशाह चलते है मोहरा
राजनीति की गली-गली बिछी बिसात पर
बिसात की दूसरी और बैठा पूर्व बादशाह या
आने वाला बादशाह या उम्मीद का बादशाह
(यही मजा है इस खेल को देखने वालों का कोई भी बादशाह बदल सकता है पूर्व बादशाह में और पूर्व बादशाह बैठ सकता है इस ओर)
बदले में चलेगा जवाबी चाल
और इन चालों में छिपी होगी कुछ ऐसी बात
बिसात पर जमें मोहरे
पल भर में बदल जाएंगे
एक दूसरे के रक्तपिपासुओ में
लहराने लगेंगी धर्म की ध्वजाएं
फैसलें होने लगेंगे
हजारों साल के अनजाने इतिहास के
कुछ अनाम से मोडों पर
कानों में गूंजनें लगेगी
बेवा चींखें
दिखने लगेंगे
जले हुए घर
हवा में फैलने लगेगी
सड़कों और मिट्टी में
बिखरे रक्त की बदबू
घर से स्कूल
स्कूल से पार्क
और पार्क से घर तक
रास्तों पर बिछ जाएंगी खंदकें
इनसे गुजरता हुआ मोहरा
भूख और हिंसा दोनो से जूझता हुआ
आवारा जानवरों को देखने लगता है
भाग्यशालियों के तौर पर
इन सबसे में फायदे तलाशते हुए
दूर हो जाएंगी बादशाहों की ऊब
नए नए शब्दों के साथ
कारिंदों की फौंज खड़ी हो जाएंगी मैदानों में
बादशाहों के कोमल दिलों से बह निकलेंगे आंसू
और रो देंगी मोहरों से जनता में तब्दील भीड़
मोहरों और आदमियों में यही अतंर बस होता है
दर्द आदमियों के गले पड़ जाता है
चाल में बढ़ते हैं मोहरें
कई बार इसी ऊब में सज जाता है
इंद्रलोक किसी सैफई में
(बादशाह तो बादशाह है तो फिर कही से हो)
शर्माता है पुराणों में वर्णित इंद्र का वैभव
छिप जाती है अप्सराएं किताबों के पन्नों से भी निकल कर
अनजान सी कंदराओं में
फाहिशाओं की ख्वाहिशें होती है पूरी
सीखती है नएं-नएं नखरें
मोहरों के खून से लथपथ इस तरह चमकती है सड़कें
चमक दिखती है खून नहीं
खूशबों से सराबोर
बादशाहों की अगली पीढियां
मंच पर गायन करते
कवि/चारण/भाट
नेपथ्य में कोरस
दंगें/भूख/लूट/किसानों की आत्महत्याएं/बच्चों को मारती माएं/
दूर हो जाती है साल भर के लिए बादशाहों की ऊब
साल भर तक चलता है जश्न का चर्चा
बादशाह भी जानते है
राजनीति की बिसात पर
जीत का खाना रहता है तब तक साथ
जब तक चले खर्चा, पर्चा और चर्चा
और अगर पूछतें हो तो जान लो
बिसात के मोहरों का हाल
फेंकी गईं हड्डियों को मुह में दबाएं
भागता है एक झुंड ऐंठ के साथ
मलाल में डूबे मोहरे
करते है इंतजार
कब बदलेगी बादशाह की जगह
हड्डियों से कब निकलेंगा उनके लिए लहूं
लेकिन बच्चों की आंखों में झांकते हुए
बस एक ही प्रार्थना करते है कुछ लोग
भगवान बादशाहों को ऊब न देना

2 comments:

bhavpreetanand said...

तुम्हारे उत्साह को सलाम है डियर। मैं जब भी तुम्हारी कविताएं पढ़ता हूं तो लगता है कोई आदर्श सेना के साथ में विद्रोहियों के खिलाफ गीत गा रहा हूं। अब चीजें इतनी स्खलित हो चुकी हैं कि तुम्हारे पास भी एक ब्लॉग है और पीएम के पास भी एक ट्वीटर है। दोनों अपने-अपने सुर-राग के साथ हो। अभिव्यक्ति अब खतरा नहीं रह गया है क्योंकि पीड़ित वर्ग की परिभाषा बदल गई है। पीड़ित वर्ग कोई गाय की टोली नहीं है मुक्तिबोध के जमाने वाली। शब्द अपनी रोमांचकता में अब कोई हिरोइज्म नहीं पैदा करता। तुरत जन्म लेता है तुरत जवान होता है तुरत सद्गगति को प्राप्त करता है। ऐसे में रचनात्मकता के अपने खतरे होते हैं। मैं बहुत दिनों से उपन्यास नहीं पढ़ा हूं। हो सकता है मेरे विचार स्थ्ूल लगे। तुम किताबों के लिए जितना समय निकाल लेते हो या स्वभाविक रूप से किताबें तुम्हारे साथ रहती है उतनी मेरे साथ नहीं है। हाल में मैं एक लेखक का, जिनका नाम भूल रहा हूं उपन्यास अंश कथादेश में पढ़ रहा था। दो पन्ने भी नहीं पढ़ पाया। मेरे अहंकार को क्षमा करना, पर मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा, क्यों मैं दो पन्ने तक भी धैर्य नहीं रख पाया। दोनों बातें हो सकती है या तो मुझमें शब्द को लेकर विश्वास घट गया है या फिर सचमुच उपन्यास अंश बहुत चलताऊ किस्म का था। खैर जो सो, शब्दों पर टिके रहना किसी भी सामाजिक व्यवस्था में नितांत जरूरी है क्योंकि हम फटे में टांग अड़ा सकें। अड़ा कर सचेत कर सकें। बता सकें कि देखो यहां अभी व्यवस्था दुरुस्त नहीं हुई है। भगवान बादशाहों... में कील कांटें दुरुस्त है पर अब तुमसे कुछ और अपेक्षाएं हैं- एक-शब्द संकोची बनो। दूसरा- शब्दों को और...और...और तराशो। धारदार तो हो ही छूने भर से कत्ल हो जाए इसकी व्यवस्था करो।

mediajantantra said...

मैें फिर से कोशिश करता हूूं मेरे दोस्त। तुम जानते हो कि मैं सिर्फ भाव रखता हूं अपनी उद्दंडता के साथ । बाकि शब्दों को लेकर हो सकता है मैं काफी खर्चीला हूं लेकिन मैं कोशिश करूंगा कि इसमें सुधार कर सकूं। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि ना लिखूं फिर लगता है कि लिख लो शायद कभी तो ठीक आ ही जाएंगा।