Sunday, April 5, 2015

जय कलकत्ते वाली

कलकत्ता की गलियों में
बंधी जवानियों की कहानियां
गीतों में बिखरे दर्द को
अक्सर लोकगीतों में सीती हुए औरतें
काले जादू को कोसती अकेली बहुएं
उसी जादू को जिसके जोर पर
कभी कुत्ता, कभी बकरा तो कभी भैंसें में बदल जाता था
घर के लिए मजूरी करने कलकत्ता पहुंचा हट्टा-कट्टा नौजवान
सालों तक, दशकों तक या फिर सदियों तलक
झरती हुई कहावतों और कहानियों के बीच
दर्द- कौतूहल और डर बन कर जिंदा रहा कलकत्ता
पहली बार मिला कलकत्ता से
खोजा कलकत्ता की उन गलियों को
उन जादूगरनियों को
जिनसे खफा-खफा
बददुआ उड़ेलती हुई
विदा हो गई कई पीढियां गांव-जौहार में
पैरों पैरो रिक्शा खींचतें
सर पर बोझा ढ़ोंते
हड्डियों पर मढ़ी चमड़ी वाले
मजदूर मजदूर मजदूर
कही कोई बंधा नहीं था
किसी के जादू से
रोटियों की जद्दो-जहद से उपज गए झूठ
और झूठ की नाव पर
जिंदगी के दर्द की नदी
पार करती रही गांव में बैठी औंरतें
और यहां महाजनों के नीचे
रोटी के टुकड़ों को टुकुरते
मजदूर आने-जाने के खर्चे से बचने
छुट्टियों के नाम पर पैसे कतरने
और पुल के नीचे, नदी के किनारे पक्के घाट पर
किसी सड़क के किनारे की राह बाट पर
अपनी जगह बचाने की जद्दो-जहद में
घर भेजते रहे
कुछ बचे-कुचे कुछ पैसे
और झूठ की कहानियां
अपने ही किसी
घर लौटते मजदूर के हाथ

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