Tuesday, April 14, 2015

पगली की कोख .



हर साल बच्चा जनती थी
हर बार मर जाता था बच्चा
किलकारियों से कभी नहीं गूंजी उसकी गोद
हरी-भरी होती रही हर साल कोख
बच्चा पैदा होता था
बच्चा मर जाता था
खून से भीगी हुई धोती/कुर्ता -सलवार
हर साल कई दिनों तक लिपटी रहती थी उसके बदन से
दफनाना है या जलाना है
बेपरवाह रहती थी इससे
दर्द की चींखों से गूंजती रहती थी
रात में सुनसान हुई सड़क
कभी हाड़ कंपाने वाली सर्दी
कभी रक्त उबालने वाली गर्मी
वो मौंसम से बेअसर
मां बनती रहती थी
प्रकृति के कायदे से
जिला अस्पताल के ठीक सामने
शव को नवजात के कुछ लोग ठिकाने लगाते थे
बाप को जरूर दर्द होता
हर बाप को होता है
अगर पता होता कि बाप कौन है
अस्पताल से चौंक के बीच चक्कर लगाती उस औरत के बच्चे का
ठीक उसी जगह से गुजरते थे
धर्म की ध्वजा उठाने वाले
नारी कल्याण की योजनाएं चलाने वाले
सड़क के किनारे साल दर साल
घूमते देखा उसको
हॉस्पीटल की दीवार पर हंसतें बच्चों के चिपके हुए पोस्टरों
और सड़क पर लगे सरकार के जगमगाते होर्डिंगों के बीच
जच्चा बने देखा उसको
बच्चा मरे हुए देखा उसका
नहीं देखा तो ये
मां कब बनती थी
पुण्य दिखाकर करने वाले
पाप छिपा कर ही करते है
मैंने देखा-सुना था
वो एक पगली थी
एक नीम पागल औरत
मां थी न बाप उसका
घर था न द्रार उसका
सडकों के किनारे
कुडे के ढेर से
चुनती रहती फेंकी गईं रोटियों के टुकडे
या सड़े-गले फल
और मैंने देखा था
समाज और उसके ठेकेदारों को
उसी हाल में घूमते हुए
साल दर साल
जनता की भलाई के लिए बेहाल
भूल गया था
उसका चेहरा
इस अनजाने शहर में
कल फिर दिख गई
सड़क पर घूमती एक पगली
हे भगवान
इसकी कोख का क्या करता है तू
इतने जानवरों के बीच घूमते हुए

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