खेत में झरती हुई बरबादी के बीच
गेंहू की काली बालियों को हाथ में मसलते हुए
किसान के मुंह पर माईक लगा था
रिपोर्टर पूछ रहा था खराब फसल के बारे में
कैमरे का लैंस आंखों पर फोकस
रिपोर्टर की चौकस निगाहें लपकने को तैयार
कब आंख से फूटे आंसू
और कब पढ़े वो आंसूओं से भरी किसान की जिंदगी पर पीटीसी
प्रोड्यूसर ने काफी मेहनत से विकीपिडीया से लिखा है
कई रूलाने वाले सवाल कर चुका है अपनी समझ से
फसल कैसे खराब हुई
फसल कितनी खराब हुई
कितनी बार सरकारी मुलाजिमों ने खेत देखा
अब कैसे चलेगी अऩ्न उपजाने वाले की जिंदगी
इन सब सवालों से ऊबा हुआ किसान
कौतूहल से देख रहा था
कैमरे को, रिपोर्टर को
रिपोर्टर इतना रोने को क्यों है
उधर रिपोर्टर सोच रहा था
कब रोएंगा
कब शाट्स पूरा होगा
और किसान सोच रहा था
ब्याह टल नहीं सकता
अगली फसल के बीज के बिना हल चल नहीं सकता
बिना रोटी के ये साल निकल नहीं सकता
दवा-दारू भी लानी है
टूट्हें ही सही लेकिन स्कूल की फीस जानी है
बर्तन/गहने/बच्चें
किस चीज को पहले
ऱखना/बिकना पड़ेगा
उस छोटी सी दुकान में जाकर
इतने बड़े खेत में
बिछी बरबादी की सुरंगों से
गुजरते/मरते/बचते
परंपराओं में ढलें सदियों के अनुभव से
जानता है किसान
सरकारी/फाईलों की
बढ़ जाती है भूख
अकाल के अलाव में
कई बार जर जाता है
कई बार जमीन जाती है
कई बार जोरूं ही चली जाती है
कई बार बच्चें जाते है
हर बार पथराएं से सपने जाते है
दफ्तर में बैठे उस बाबू
और चील-कव्वौं की तरह
मंडरा रहे पटवारी के पेट में
गेंहू की काली बालियों को हाथ में मसलते हुए
किसान के मुंह पर माईक लगा था
रिपोर्टर पूछ रहा था खराब फसल के बारे में
कैमरे का लैंस आंखों पर फोकस
रिपोर्टर की चौकस निगाहें लपकने को तैयार
कब आंख से फूटे आंसू
और कब पढ़े वो आंसूओं से भरी किसान की जिंदगी पर पीटीसी
प्रोड्यूसर ने काफी मेहनत से विकीपिडीया से लिखा है
कई रूलाने वाले सवाल कर चुका है अपनी समझ से
फसल कैसे खराब हुई
फसल कितनी खराब हुई
कितनी बार सरकारी मुलाजिमों ने खेत देखा
अब कैसे चलेगी अऩ्न उपजाने वाले की जिंदगी
इन सब सवालों से ऊबा हुआ किसान
कौतूहल से देख रहा था
कैमरे को, रिपोर्टर को
रिपोर्टर इतना रोने को क्यों है
उधर रिपोर्टर सोच रहा था
कब रोएंगा
कब शाट्स पूरा होगा
और किसान सोच रहा था
ब्याह टल नहीं सकता
अगली फसल के बीज के बिना हल चल नहीं सकता
बिना रोटी के ये साल निकल नहीं सकता
दवा-दारू भी लानी है
टूट्हें ही सही लेकिन स्कूल की फीस जानी है
बर्तन/गहने/बच्चें
किस चीज को पहले
ऱखना/बिकना पड़ेगा
उस छोटी सी दुकान में जाकर
इतने बड़े खेत में
बिछी बरबादी की सुरंगों से
गुजरते/मरते/बचते
परंपराओं में ढलें सदियों के अनुभव से
जानता है किसान
सरकारी/फाईलों की
बढ़ जाती है भूख
अकाल के अलाव में
कई बार जर जाता है
कई बार जमीन जाती है
कई बार जोरूं ही चली जाती है
कई बार बच्चें जाते है
हर बार पथराएं से सपने जाते है
दफ्तर में बैठे उस बाबू
और चील-कव्वौं की तरह
मंडरा रहे पटवारी के पेट में
उधर पीटीसी के लिए रोते हुए किसान
बेहतरीन विज्यूअल कंटेट की तलाश में
अगले खेत की और बढ चला था रिपोर्टर
No comments:
Post a Comment