Sunday, April 19, 2015

राहुल गांधी क्या है। उम्मीद, निराशा या बुद्दु बालक

पप्पू है। चीजों को समझते नहीं है। बिलकुल अबोध है। मां की गोद में खेलते है। 2014 में देश के सोशल मीडिया में ये ही छवि उभर कर आ रही थी। देश भर में चुनाव कवर करते हुए घूम रहा था। लोगो के लिए कांग्रेस एक भ्रष्ट्राचार की प्रतीक बन चुकी थी। और आलोचनाओं का सारा नजला अगर किसी पर उमड़-उमड कर गिर रहा था तो वो सिर्फ राहुल गांधी के ऊपर। एक के बाद एक घोटाला सामने आया था पिछळे चुनाव से पहले। और हर बार संख्या इतनी बड़ी कि किसी भी गणितज्ञ से सीधा पूछ ले तो बताने में गड़बड़ा जाएं कि कितनी जीरो आएंगी। खैर जनता ऊब चुकी थी। भ्रष्ट्राचार की लौ से बचे तो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाले जातिवादी हुजूम के भाईभतीजावाद से लेकर जातिवाद और लूट का समारोह भी अपना असर छोड़ रहा था। और देश में विकास का एक ऐसा मंत्र लेकर निकले थे नरेन्द्र मोदी जिसका किसी को मालूम नहीं था कि मंत्र की शक्ति क्या है। हर भाषण में रोम की रानी और युवराज को कोसते मोदी को तालियों की गर्जना मिलती थी वो इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि शाहजादा पर तंज कसने से पब्लिक तालियां बजाती है। अपनी दुर्दशा का बड़ा कारण राहुल गांधी को मान रही है। इसी बीच एक चुनाव से लौटते वक्त प्लेन में कांग्रेस के करीब रहने वाली एक बड़ी पत्रकार से भेंट हुई। उनको लगता था कि राहुल गांधी कुछ कर नहीं रहे है। सवाल तो कई थे। लेकिन हम चिंतक नहीं पत्रकार है हमको जनता की बात सामने रखनी होती है अपने विचार नहीं। सवाल दर सवाल। राहुल गांधी के चेहरे पर चिपक रहे थे। एक दिन प्रेस क्लब में राहुल ने सांसदों को कवर देने वाले विधेयक को फाड़ दिया अपनी सरकार के तो सबने नारा दिया कि ये प्रधानमंत्री का अपमान है। 
चुनाव हुआ तो रिजल्ट उसी तर्ज पर आएं जिस तर्ज पर दिख रहे थे। और कांग्रेस अपनी सबसे कम संख्या पर लौट आई। अब जनता नहीं मीडिया के बौंनों की उठापटक शुरू हुई। सारा घड़़ा राहुल के सिर पर। खैर मोदी जी के आकर्षण और भाषणों की अविरल परंपरा चल रही थी। लेकिन ये लगभग तय हो चुका था कि उनके मंत्रों की शक्ति और तेल कॉरपोरेट मुहैय्या करा रहा है। और अब तक आलोचनाओं के काले अंधेरों में घूम रहा राहुल गांधी का नाम फिर से सतह पर गूंजने लगा। ये मालूम हुआ कि साहब भूमि अधिग्रहण कानून जो 127 साल बाद पहली बार किसानों के हक में दिख रहा था वो राहुल गांधी की देन था। किसानों के इतना हक में कि देश को लूटने में सुई की नोंक से हाथी निकालने में माहिर हो चुका कॉरपोरेट जमीन में घुस चुका था। किसी भी किसान की जमीन का सरकार अधिग्रहण करके प्राईवेट बिल्डर को नहीं देंगी या ऐसे ही बहुत से प्रावधान उसमें थे उनका पता जनता को तब चला जब मोदी ने इसको वापस अंग्रेजों की तर्ज पर वापस कॉरपोरेट के हाथ में दे दिया। खैर ये तो एक बात थी। फिर रीयल इस्टेट सेक्टर से संबंधित एक और विधेयक जिसमें फिर बदलाव किया महान प्रथम सेवक ने और इसका भी पता चला कि ये बिल्डर के मुफीद बनाया गया। पहले बिल में था कि कोई बिल्डर किसी प्रोजेक्ट के 70 फीसदी अमांउट को दूसरे एकाउंट में ट्रांसफर नहीं कर पाएंगा। मोदी जी ने इसको घटा कर 50 कर दिया। इस का क्या फर्क है इसका जवाब आपको वही दे सकते है जिन्होंने एक ऐसे बिल्डर के यहां फ्लैट बुक कराया था जिसके कई प्रोजेक्ट चल रहे है और सारे के सारे अधूरे रहते है हां हर बार एक नये प्रोजेक्ट लांच करने के पोस्टर जरूर दिख जाता है। फिर पता चला गया कि मोटरव्हीकल एक्ट में भी बदलाव किया गया है उसमें कुछ कड़े प्रावधान को हल्का कर दिया है जिससे कॉरपोरेट को मदद मिलेगी। इसके अलावा चुनावों के दौरान ही पर्यावरण को लेकर अटके प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी भी कांग्रेस की नेता जंयती नटराजन ने राहुल गांधी पर लगाई थी। उस वक्त भी मीडिया ने दिखाया कि राहुल गांधी आदिवासियों के हक में खड़े होकर सरकार के वो प्रोजेक्ट पास नहीं होने दे रहे है जिनसे पर्यावरण को खतरा हो सकता है। बात ऐसे नहीं कही गई कहा गया कि संविधानेत्तर सत्ता है राहुल गांधी है। 
लेकिन मेरे मन में एक सवाल रहा कि राहुल गांधी ने जिनको टिकट वांटे थे जो राहुल गांधी के कैंडीडेट थे वो कितने जीते है। उनकी हार का ठीकरा भी राहुल गांधी के मत्थे ही फोडा गया। मैने देखा था कि मीनाक्षी नटराजन, प्रदीप जैन, या दूर दराज में ऐसे नेता जिन्हें राहुल ने टिकट दिया था जमीन से उठाकर वो सारे के सारे बुरी तरह से चुनाव हारे। फिर क्या कारण था क्या कोई नेता अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं से संबंध न बनाएं ये भी राहुल ने तय किया था। राहुल गांधी के बिल अचानक ऐसे अच्छे कैसे हो गए। क्या राहुल गांधी वाकई बदलाव कर रहे थे कांग्रेस में। पहले से मौजूद ढांचे ने राहुल को पूरी तरह विफल कर अपनी गलतियों को पूरे तौर पर राहुल की मत्थे मढ़ दिया। इस सबके बारे में सोच ही रहा था कि ऐसे में मेरे सीनियर पत्रकार और अब आम आदमी के नेता आशुतोष जी की एक किताब आई जिसमें राहुल गांधी को क्राऊन प्रिस, और मोदी जी को ग्लेडिएटर और अपने नेता (जाहिर बात है) अरविंद केजरीवाल को होप बताया तब मुझे लगा कि इस बात पर जरूर देखना चाहिेए क्या वाकई अरविंद केजरीवाल होप है।
हम सिर्फ तीन मुद्दों पर परख सकते है। एक है नेता का जनतंत्र में विश्वास और मेरा इन तीनों नेताओं से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लिहाजा मैं सिर्फ मीडिया में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही लिख सकता हूं। पहली बात है जनतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास। मोदी ने चुनाव में अपनी मर्जी से टिकट बांटे। मोदी ने अपनी मर्जी से उम्मीदवार तय किए। मोदी ने जीत के बाद अपनी मर्जी से मंत्री तय किए। और मंत्री तय करने के बाद ये भी खुद ही तय किया कि कौन कौन उनके पीए बनेंगे। यानि अफसरशाही को खुद ही चुना उसमे किसी नेता का कोई दखल नहीं है। 
अरविंद केजरीवाल के अहंकार के बारे में कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है। आशुतोष जैसे पत्रकार मित्रों की बदौलत ये अंहकारी नेता बेहद जनतांत्रिक बन पाया कागजों में। और ये कागजों की छवि भी उधड़ कर बिखर गई जब उन्होंने कहा कि उनके विरोधियों को पिछवाड़े पर लात मार कर निकालना चाहिए। 
मीडिया कह रहा है कि राहुल गांधी अपनी पार्टी में भी नहीं चला पा रहे है। अपनी मर्जी से अधिकारी नियुक्त नहीं कर पाएंगे। 
क्रमश।

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