Friday, April 3, 2015

यहां सच कुछ नहीं .......................................................................................

हर पीढ़ी का अपना सच होता है,
जिसमें वो जीती है
जिसे वो भोगती है,
मेरी पीढी का सच है
कि, 
यहां सच कुछ नहीं, 
हम मर्यादाओं को चीरतें हुए
अंधविश्वासों की सुरंगों में घुसते हैं 
और अंधविश्वासों को गिराते हुए धंसते है वासना की गलियों में
हम किसको चुनते है
हम किसको छोड़ते है
उसका कोई मानक नहीं 
सिर्फ सहूलियत है
हर बार ऊंचा उठने के नाम 
और नीचा गिरते हैं हम
सच के नाम पर 
सच का जाल बुनते हुए
जिसको काट कर प्रकट होते है लोग
नायक नहीं भद्दें विदूषक दिखने लगते है
जब भी सच की आंच में परखा गया उन्हें
सच के नाम पर सच
कितनी बार बोला जाता है
दूर से उठती है गंध
चिल्ला उठते है लोग
सच के नाम पर झूठ है ये 
कई बार मुखौंटे-मुखौंटे खेलते 
खुद ही उतार कर रख देते है पात्र
और हंसने लगते है कहते हुए
अरे आप इसे सच समझ रहे थे
इसी तरह उठते है ज्वार
सौं बार बोलते रहो
हर झूठ सच हो जाएंगा
इसी बुनियाद पर 
खड़ी मीनारों में
जब भी पुकारेंगे सच
लौट आंएगी गूंज एक झूठ को लपेटें हुए
और मुमकिन नहीं होगा गूंज-गूंज में से सच खोजना
हर लडाई सच की लड़ाई 
सच के लिए लड़ाई 
लड़ाई में सच कुछ भी नहीं
सच की तलाश में लगे लोग
चुन लेते है झूठ पहले ही मौंके पर
फिर किस नायक की तलाश में जुट जाती है भीड़ 
जो ले चले उन्हें सच के रास्ते पर 
सच की तलाश में
झूठ के पैरों से चलती 
भीड़ खुद से चिल्ला देती है
यहां कोई भी सच्चा नहीं
यहां कुछ भी सच नहीं
जिन्हें खोजना हो नायक
वो आगे बढ़े
हम लोग वापस जाते अपने रास्ते।

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