Monday, April 13, 2015

बेशर्म भीख- मांगनेवाली .

ये तो हर बार सोचते है 
कामचोर है
बेशर्म है
शराबी है
नशेड़ी है
किसी की पाप है
चोरों की औलाद है
गिरी हुई है
बाजारू है
लेकिन कई बार ऐसा सोचना भी अनोखा है
कितनी परेशानी होगी
हाथ फैलाने में
कार के बोनट
मोटरसाईकिल के पहिये पर सर लगाने में
एक सिक्के के साथ हाथों के कही और तक पहुंच जाने में
हर रोज हर पल हर जगह
हजारों ऐसी निगाहों से गुजरने में
जो जिस्म के हर हिस्से को बींध देती है
ऐसी कई बातों से अनजान हो जाने में
जिससे छिल जाएं आत्मा तक के तार
कितना मुश्किल होता होगा
ट्रैफिक वाले, बीट वाले
और उनके साथ आने वालों की
दावत का व्यंजन बनना
धोना बेआवाज शरीर की चादर को
कितनी बार समेटना होता होगा
जिस्म और आत्मा दोनों पर
उभर आई खराश दर खऱाश को
दाग दर दाग को
उस बेघर होने के पाप को
कितनी बार
दिन भर में हासिल महज कुछ सिक्कों का हिस्सा होने में
उधड़ती होगी जिस्म की सिलाईं
नीले और काले निशान एक दूसरे में होतें होंगे गड़्ड-मड्ड
ढ़लते हुए सूरज के साथ
चढ़ता होगा डर जिस्म के आसमान पर
रात भर किस तरह चादर के अंदर
पत्थर में बदलती होगी रूह
और औरत की गोलाईंयों में शरीर
प्यार जैसे शब्द से उलट
वासनाओं के कीड़ों में
रात गुजारना कैसा लगता होगा
तेज हवा में चादर का कोना उड़ता है
या जिस्म और आत्मा की धज्जियां
आंखों को खोल कर भी अंधा करने में खुद
काम की तलाश में झटके हुए जिस्म को
लेकिन इस अनोखी सोच के साथ
चौराहा पार हुआ
और फिर से
अगले चौराहे पर
फिर से दिख गईं
बेशर्म भीख मांगने वाली

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