Thursday, September 3, 2015

गंदगी में लहालोट बाडा और बाड़े के मालिक नौकरशाह--



बचपन में गांव में गर्मियों की छुट्टियां बीतती थी। रात में सोते वक्त अक्सर गांव के दूसरे सिरे पर बजते ढोल से नींद खुल जाती थी। दिन भर गांव में बसने वाले बच्चों से सुनी डायन, सिरकटे भूत और जिन्नातों की कहानियों से रात में बिस्तर में सहमे पड़े हुए ये ढोल और भी रहस्यमय और डरावने सुनाई देते थे। एक रात डर से कांप रहा था तो ताऊ से पूछ लिया कि ये आवाज किसकी है। क्योंकि मेरा एक दोस्त पहली रात बता चुका था कि डायनों ने किसी जिंदा बच्चें को पकड़ लिया और उसका खून पीने से पहले के महोत्सव का ढोल बज रहा है, मैं उसकी बात तो ताऊ जी से पक्की कराना चाहता था। ताऊ जी जवाब दिया कि किसी दलित की सुअरी ने बच्चे दिए होगे, मेरा डर फौरन काफूर हो गया और डर की जगह अचरज भर गया। मैंने लड़का होने पर थालियां बजाने की बाते तो पढ़ी और सुुनी थी लेकिन सुअरी के बच्चे होने पर ढोल बजाने की बात मेरे लिए नई थी। मैंने फिर पूछा कि सुअरी के बच्चे होने से ढोल बजाने का क्या रिश्ता तो उन्होंने कहा कि ज्यादा बच्चे दिए होगे। अगला सवाल था कि ज्यादा बच्चे तो भी ढोल क्यों तो ताऊ जी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा कि जितने बच्चे बढ़ेगे उतने बिकेगे, कटेंगे और मालिक को फायदा होगा। सालों बाद ये बात जिंदगी की लाखों ऐसी बातों के साथ यादों के गर्त में चली गई जिनके संदर्भ की कभी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन पत्रकारिता के दौरान जगह जगह देश के हालात देखने के बाद एक दिन अचानक ये बात याद आई। देश की आबादी पर किसी को बात करने जरूरत नहीं। कभी किसी धर्म के नाम पर तो कभी उस धर्म के विरोध के नाम पर सवालों के जवाबों से बचा जाता रहा। लेकिन अपनी ही गदंगी में लहालोट ये देश एक बाड़े में तब्दील होता गया। लेकिन इस बाड़े का मालिक कौन है। पहली नजर में किसी भी हिंदुस्तानी से देश की इस हालत का जिम्मेदार पूछोंगे तो वो एक क्षण में जवाब देगा कि राजनेता। ये बेहद सरलीकृत जवाब है और इस जवाब से किसी के चेहरे पर छाई मुस्कान अगर गाढ़ी होती है तो वो है नौकरशाह। देश में नौकरशाहों को नेताओं को गाली देता हुआ मीडिया और हालात के लिए भ्रष्ट्र और नाकारा राजनेताओं को कोसती आम जनता बेहद रास आती है। लेकिन अगर कोई जरा सी भी गहराई में जाने की कोशिश करता है तो वो समझ जाएंगा कि बाड़े के मालिक राजनेता नहीं बल्कि बेहद देशभक्त और निरीहता का चोला ओढ़े नौकरशाहों का जमघट है। पांच साल बाद राजनेता जनता के गुस्से का शिकार होकर धूल चाटता दिखाई देता है। लेकिन नौकरशाह हमेशा पदोन्नति लेता हुआ, जनता के पैसो पर ऐश करता हूआ और इसके बाद लूट में मिली( अपना निशाना नौकरशाहों में उन पर जो अपनी करतूतों से देश की जनता के सामने नुमााय हुए है) अपनी संपत्ति को विदेशों में सेट करता हूुआ अपने बच्चों के साथ मस्ती में देश सुधार के कार्यक्रम बताता रहता है। पिछले कुछ समय से एक के बाद एक लूट की कहानी देखताा हूं एक के बाद एक नेता को जनता की नजरों में हीरो से जीरो बनता देखता हूं और फिर वोट के मैदान पर अपनी मौत मरते हुए भी। लेकिन इस लूट की पूरी स्क्रिप्ट लिखने वाले नौकरशाह मजे से अपनी नौकरी करते रहते है। इस वक्त पूरे देश में लूट की छूट चल रही है। नौकरशाह रिटायर नहीं हो रहे है। एक कैबिनेट सेक्र्ट्री रहने के बाद किसी बोर्ड का अध्यक्ष बनता है तो कोी रिटायर होकर आयोग का मेंबर। एक के बाद एक कंपनियों को देश की जनता का खून बेचकर हासिल की गई संपत्तियों से अपने बच्चों को विदेशों में सैटल कर इस देश को उपनिविश की तरह इस्तेमाल कर रहे ये नौकरशाह बड़ी आसानी से बौने से कबीलाईं नेताओं को ये यकीन दिला देते है कि पैसा कमाने से ब़़ड़ी देश सेवा कुछ नहीं है लिमिटेड टाईम है लूट सको उतना लूटो पैसा ठिकाने लगवा देंगे। मैं आजतक नहीं समझ पाया कि महज कुछ करोड़ रूपए का रिटर्न फाईल करने वाले मर्सिडीज बेंज में कैसे घूमते है। समाजवादी चिंतक और राष्ट्र के महान नेता ( चमचो की भीड़ नहीं चमचों में तब्दील मीडिया ने ऐसा ही कहा है) मुलायम सिंह यादव जिस गाड़ी से चलते है उसकी कीमत कितनी है ये 10 साल का वो बच्चा बता देंगा जो किसी पब्लिक स्कूल में पढ रहा है। लेकिन ये एक नाम भर है। लूट का ऐसा तंत्र किसी और ने नहीं बल्कि नौकरशाहों ने खड़ा किया है। जो भी पत्रकार सरकार कवर किया है वो जानता है कि दफ्तर में नौकरशाहों के सामने रखी फाईल का पन्ना पलटने के लिए भी एक सहायक खड़ा होता है। जो किसी पेज पर साईन करने के बाद फिर से अगला पेज पलटता है। पानी एक घंटी पर हाजिर, चाय एक घंटी पर हाजिर। बच्चों के लिए कुत्तों की तरह से दौडते नौकर। गजब का लोकतंत्र पसरा हुआ है देश में। अभी हाल में एक और हैरानी हुई। एक नौकरशाह से बात कर रह थे। देश के बिना ताज के बादशाह की भांति अपने कमरे में बेहतरनी सोफों और एसी से घिरा वो नौकरशाह देश प्रगति की मिसाल गिना रहा था कि इसी बीच बाहर बैठने वाला चपरासी आया और साहब के बैग से एक पैकेट निकाला दवाई निकाली और पानी के साथ साहब को दे दी। साहब ने दवाई ली और अपना भाषण दोबारा से शुरू कर दिया। इस सीन को देखते ही बचपन में सुनी वो बात याद आ गई कि जितने बढ़ेगे उतने कटेंगे और मालिक को फायदा देगे। ये सेक्रेट्री, ये नौकरशाह क्या देश का भला करेंगे जो अपनी दवा के लिए नौकर रखे हुए है। अब सवाल ये ही है कि क्या बाड़े में गंदगी मे डूबे हम लोग कभी खड़े हो पाएंगे। और इन बिना ताजों तख्त के देश पर राज कर रहे नौकरशाहों से कोई सवाल पूछ पाएंगे।
तुम्हारी आँखों में कोई सम्वेदनाएँ नहीं
न सत्य तुम्हारी बातों में
न ही आत्मा तुम्हारे भीतर
मज़बूत हो जा, ओ हृदय, पूरी तरह
सृष्टि में कोई सृष्टा नहीं,
न ही प्रार्थनाओं में कोई अर्थवत्ता !
फ्योदर त्यूत्चेव

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