"आप मेरी नहीं अपनी चिंता करे क्योंकि अब बारी आपकी है। आप सरकारों का हिसाब कीजिए कि आपके राज में बोलने कि कितनी आजादी है और प्रेस भांड जैसा क्यों हो गया। यह मजाक का मसला नहीं है। मैं जानना चाहता हूं कि समाज का पक्ष क्या है, मैं आम लोगो से जानना चाह रहा हूं कि इसके पक्ष में बोलेंगे या नहीं, आप मीडिया के आजाद स्पेश के लिए बोलेंगे कि नहीं, आप किसी पत्रकार के लिए आगे आएंगे कि नहीं, अगर नहीं तो मैं युवा पत्रकारों से अपील करता हूं कि इस समाज के लिए आवाज उठाना बंद कर दे। यह समाज उस भीड़ में मिल गया है यह किसी भी दिन आपकी बदनामी से लेकर हत्या में शामिल हो सकता है, पत्रकारों ने हर कीमत पर समाज के लिए लड़ाई लडी है, बहुत कमियां रही है और बहुतों ने अपनी कीमत वसूली है, लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि समाज आगे आता है कि नहीं।" रवीश कुमार
रवीश हिंदी टीवी पत्रकारिता के स्टार है। स्टारडम हासिल किया है। लंबी पत्रकारिता की जिंदगी। लाखों लोग उनके फैन है। इसका सबूत है कि बहुत से लोगो ने उनके खत को शेयर किया। उस पर लिखा। चिंता जताई। चिंता अपनी जगह है। और विचार अपनी जगह। सोशल मीडिया पर व्यक्तिगत गालियों से आहत रवीश कुमार ने सोशल मीडिया से पलायन कर लिया। लेकिन पत्रकारिता में आगमन के समय की खामोशी के साथ नहीं बाकायदा गा-बजाकर। रवीश कुमार अच्छे पत्रकार हो सकते है। लेकिन गुस्सा कुछ ज्यादा आ गया। आज पत्रकारिता की हालत क्या है उनके एक लैक्चर में सुन चुका हूं। लेकिन अपने खत में वो युवा पत्रकारों से समाज के की आवाज उठाना बंद करने की बात करते है। ये थोड़ा ज्यादती है। और अगली लाईन में वो समाज सुधारक और पत्रकार के बीच की विभाजक रेखा को बिलकुल मिटा गए। पत्रकार अपनी नौकरी करता है। इसके लिए वो बाकायदा तनख्वाह लेता है। कोई भी समाज पत्रकारों की कांत्रि पर निर्भर नहीं होता है। हजारों साल की सिविलाईजेशन में टीवी को आए हुए भी दो दशक भी नहीं हुए है। और अखबार को भी दो सौ ही साल हुए है उससे पहले समाज अपने से चलता रहा, रास्ता देखता रहा और मौजूदा समय तक यानि आपके समय तक आया है। और समाज को अपने संवाद की एक व्यवस्था करना आता है। पहले कवि और जब कवि भांड बन गए तब भाट और जब भाटों ने राजाओं को ही सर्वस्व बताना शुरू किया तो फिर लोकगीतों में जनता की आवाज मुखरित हुई। और फिर अखबार आया तो जनता के लिए ये भी एक संवाद की चीज थी। और बड़े अखबारो को चुनौती देते हुए कुछ एक पेजी अखबार भी निकले। नब्बे के दशक में बुद्दु बक्शा स्मार्ट हुआ और आप जैसे स्मार्ट लोग आम जनता के संवाद का जरिया बने। लेकिन जैसे ही संवाददाताओँ की आवाज से समाज गायब हुआ तो उन्होंने संवाद का नया रास्ता चुन लिया। क्या टीवी ही तय करेगा कि क्या सही है और क्या गलत है। क्या आप जैसे पढ़े-लिखे लोग सूरज को सूरज कहेंगे तभी लोगो को रोशनी दिखेंगी। आपने एनडीटीवी को न छोड़ना भी अपनी प्रतिबद्धता में गिनवाया है। लेकिन जिन लोगो ने एक टीवी चैनल छोड़कर दूसरा टीवी चैनल ज्वाईन किया क्या वो आपसे कम प्रतिबद्ध है। शायद कुछ ज्यादा बड़ा आरोप है। रही बात कि पत्रकार क्यों इंसुलेट रहे। सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बना है जिसपर देश ने एक्शन और रिएक्शन लेना शुरू किया है। लेकिन ये एक्शन और रिएक्शन लिखकर लिया जा रहा है। हो सकता है कि ये प्रोपेगंडा ज्यादा हो लेकिन देश में बहुत सारी चीजें इसी पर चल रही है। पत्रकारिता के नाम पर देश भर में चल रही धींगामस्ती की पोल खुलने के लिए भी यही सोशल मीडिया कारगर साबित हुआ।
किसी भी पत्रकार के पास ऐसी एक दो दस नहीं सैकड़ों कहानियां होगी जो उसने अपने पत्रकारिता में देखी होगी जो चुपचाप दफना दी गई। हाथ में कागज-पत्तर लेकर मीडिया के दरवाजे पर निराश खड़े लोगो को बहुत बार देखा है मैने रवीश जी। लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था लिहाजा वो गरीब अपने कागजों के साथ ही वक्त की रेत में दफन हो गए। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है मैं सिर्फ एक ही उदाहरण दे कर इस बात को साफ कर सकता हूं। निठारी कांड। दिनों, हफ्तों नहीं महीनों तक निठारी के गरीब आदमी अपने गायब बच्चों की फोटो कुछ अखबारों में छफी कतरनों के साथ हर मीडिया चैनल के दरवाजें गुहार लगाने गए। लेकिन किसी को उनमें खबर नजर नहीं आई। ये अलग बात है कि जैसे ही ये खबर निकली तो फिर हर कोई उनमें रब देखने लगा था। आपने भी एक आध आधा घंटा अपनी खूबसूरत चालाकी के साथ किया गरीब दर्द के साथ किया होगा। ऐसी सैकड़ों घटनाएँ आप आसानी से लिख सकते है।
आजादी के दशकों बाद देश ने संवाद करना शुरू किया। एक दूसरे से संवाद करता हुआ समाज आपको आसानी से दिख जाता है सोशल मीडिया पर। लेकिन सवा अरब की आबादी के देश में एक छोटी सी धारा भी काफी बड़ी साबित होती है। जैसे कि देश की आबादी का 90 फीसदी हिस्सा अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि उसकी शिक्षा और रहन-सहन का स्तर आपके स्तर का हो जाएं। इतिहास के साथ खिलवाड़ , नौकरशाही की बर्बर चालाकियां और कबीले के नेताओं का सत्ता में काबिज होना ये सब अलग-अलग हिस्सों में अलग तरह से मुखरित हुआ क्योंकि देश में एक दूसरे से संवाद करने का माध्यम मौजूद ही नहीं था। लिहाजा कई दिनों बाद एक छोटी सी खबर का इंतजार करते हुए लोग अपने सामने दिख रहे भदेश को जमीनी सच और आप जैसे पत्रकारों को एक मात्र सच मानकर स्वीकार कर रहे थे। क्या हम लोग इस बात से पल्ला झाड़ सकते है कि समाजवाद की आ़ड़ में हमने क्रिमिनल्स को नेताओं के रूप में स्वीकार किया। क्या बदलाव की राजनीति के नाम पर सामने आए लोगो के परिवारवाद या दूसरे आरोपो को मीडिया ने पूरा दिखाया। क्या उन पत्रकारों को आप कुछ कह पाएं जो जेपी के चेलों को जातिवादी नेता नहीं बल्कि पिछड़ों की आवाज बताने में लगे रहे। परिवारवाद, जातिवाद, और लूट को कानून बना देने वाले इऩ लोगो के महिमामंडन करने वालों को आप कभी कठघरे में खड़ा कर पाएं। मेरा कोई उद्देश्य आपको कठघरे में खड़ा करना नहीं है लेकिन सोशल मीडिया को पूरे तौर पर एक पक्षीय घोषित करना शायद ठीक नहीं है। आपको इसी सोशल मीडिया ने इज्जत बख्शी है। आपकी कई स्टोरिज को मैने सैकड़ों के लाईक्स होते हुए देखा, शेयर होते हुए देखा लेकिन अगर आपको सोशल मीडिया पर एक खास ग्रुप ने निशाना बनाया है तो जनाब ये एक खास राजनीति है और आप पत्रकार होने के नाते इसको इग्नोर कर सकते है, जवाब दे सकते है और सबसे ऊपर अपनी लाईऩ पर डटे रह सकते है लेकिन संवाद के एक पूरे माध्यम को देश की नजर में जलील नहीं साबित कर सकते है। कोई पत्रकार या पत्रकारिता समाज से बड़ी नहीं होती है रवीश जी।
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे
हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में
रवीश हिंदी टीवी पत्रकारिता के स्टार है। स्टारडम हासिल किया है। लंबी पत्रकारिता की जिंदगी। लाखों लोग उनके फैन है। इसका सबूत है कि बहुत से लोगो ने उनके खत को शेयर किया। उस पर लिखा। चिंता जताई। चिंता अपनी जगह है। और विचार अपनी जगह। सोशल मीडिया पर व्यक्तिगत गालियों से आहत रवीश कुमार ने सोशल मीडिया से पलायन कर लिया। लेकिन पत्रकारिता में आगमन के समय की खामोशी के साथ नहीं बाकायदा गा-बजाकर। रवीश कुमार अच्छे पत्रकार हो सकते है। लेकिन गुस्सा कुछ ज्यादा आ गया। आज पत्रकारिता की हालत क्या है उनके एक लैक्चर में सुन चुका हूं। लेकिन अपने खत में वो युवा पत्रकारों से समाज के की आवाज उठाना बंद करने की बात करते है। ये थोड़ा ज्यादती है। और अगली लाईन में वो समाज सुधारक और पत्रकार के बीच की विभाजक रेखा को बिलकुल मिटा गए। पत्रकार अपनी नौकरी करता है। इसके लिए वो बाकायदा तनख्वाह लेता है। कोई भी समाज पत्रकारों की कांत्रि पर निर्भर नहीं होता है। हजारों साल की सिविलाईजेशन में टीवी को आए हुए भी दो दशक भी नहीं हुए है। और अखबार को भी दो सौ ही साल हुए है उससे पहले समाज अपने से चलता रहा, रास्ता देखता रहा और मौजूदा समय तक यानि आपके समय तक आया है। और समाज को अपने संवाद की एक व्यवस्था करना आता है। पहले कवि और जब कवि भांड बन गए तब भाट और जब भाटों ने राजाओं को ही सर्वस्व बताना शुरू किया तो फिर लोकगीतों में जनता की आवाज मुखरित हुई। और फिर अखबार आया तो जनता के लिए ये भी एक संवाद की चीज थी। और बड़े अखबारो को चुनौती देते हुए कुछ एक पेजी अखबार भी निकले। नब्बे के दशक में बुद्दु बक्शा स्मार्ट हुआ और आप जैसे स्मार्ट लोग आम जनता के संवाद का जरिया बने। लेकिन जैसे ही संवाददाताओँ की आवाज से समाज गायब हुआ तो उन्होंने संवाद का नया रास्ता चुन लिया। क्या टीवी ही तय करेगा कि क्या सही है और क्या गलत है। क्या आप जैसे पढ़े-लिखे लोग सूरज को सूरज कहेंगे तभी लोगो को रोशनी दिखेंगी। आपने एनडीटीवी को न छोड़ना भी अपनी प्रतिबद्धता में गिनवाया है। लेकिन जिन लोगो ने एक टीवी चैनल छोड़कर दूसरा टीवी चैनल ज्वाईन किया क्या वो आपसे कम प्रतिबद्ध है। शायद कुछ ज्यादा बड़ा आरोप है। रही बात कि पत्रकार क्यों इंसुलेट रहे। सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बना है जिसपर देश ने एक्शन और रिएक्शन लेना शुरू किया है। लेकिन ये एक्शन और रिएक्शन लिखकर लिया जा रहा है। हो सकता है कि ये प्रोपेगंडा ज्यादा हो लेकिन देश में बहुत सारी चीजें इसी पर चल रही है। पत्रकारिता के नाम पर देश भर में चल रही धींगामस्ती की पोल खुलने के लिए भी यही सोशल मीडिया कारगर साबित हुआ।
किसी भी पत्रकार के पास ऐसी एक दो दस नहीं सैकड़ों कहानियां होगी जो उसने अपने पत्रकारिता में देखी होगी जो चुपचाप दफना दी गई। हाथ में कागज-पत्तर लेकर मीडिया के दरवाजे पर निराश खड़े लोगो को बहुत बार देखा है मैने रवीश जी। लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था लिहाजा वो गरीब अपने कागजों के साथ ही वक्त की रेत में दफन हो गए। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है मैं सिर्फ एक ही उदाहरण दे कर इस बात को साफ कर सकता हूं। निठारी कांड। दिनों, हफ्तों नहीं महीनों तक निठारी के गरीब आदमी अपने गायब बच्चों की फोटो कुछ अखबारों में छफी कतरनों के साथ हर मीडिया चैनल के दरवाजें गुहार लगाने गए। लेकिन किसी को उनमें खबर नजर नहीं आई। ये अलग बात है कि जैसे ही ये खबर निकली तो फिर हर कोई उनमें रब देखने लगा था। आपने भी एक आध आधा घंटा अपनी खूबसूरत चालाकी के साथ किया गरीब दर्द के साथ किया होगा। ऐसी सैकड़ों घटनाएँ आप आसानी से लिख सकते है।
आजादी के दशकों बाद देश ने संवाद करना शुरू किया। एक दूसरे से संवाद करता हुआ समाज आपको आसानी से दिख जाता है सोशल मीडिया पर। लेकिन सवा अरब की आबादी के देश में एक छोटी सी धारा भी काफी बड़ी साबित होती है। जैसे कि देश की आबादी का 90 फीसदी हिस्सा अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि उसकी शिक्षा और रहन-सहन का स्तर आपके स्तर का हो जाएं। इतिहास के साथ खिलवाड़ , नौकरशाही की बर्बर चालाकियां और कबीले के नेताओं का सत्ता में काबिज होना ये सब अलग-अलग हिस्सों में अलग तरह से मुखरित हुआ क्योंकि देश में एक दूसरे से संवाद करने का माध्यम मौजूद ही नहीं था। लिहाजा कई दिनों बाद एक छोटी सी खबर का इंतजार करते हुए लोग अपने सामने दिख रहे भदेश को जमीनी सच और आप जैसे पत्रकारों को एक मात्र सच मानकर स्वीकार कर रहे थे। क्या हम लोग इस बात से पल्ला झाड़ सकते है कि समाजवाद की आ़ड़ में हमने क्रिमिनल्स को नेताओं के रूप में स्वीकार किया। क्या बदलाव की राजनीति के नाम पर सामने आए लोगो के परिवारवाद या दूसरे आरोपो को मीडिया ने पूरा दिखाया। क्या उन पत्रकारों को आप कुछ कह पाएं जो जेपी के चेलों को जातिवादी नेता नहीं बल्कि पिछड़ों की आवाज बताने में लगे रहे। परिवारवाद, जातिवाद, और लूट को कानून बना देने वाले इऩ लोगो के महिमामंडन करने वालों को आप कभी कठघरे में खड़ा कर पाएं। मेरा कोई उद्देश्य आपको कठघरे में खड़ा करना नहीं है लेकिन सोशल मीडिया को पूरे तौर पर एक पक्षीय घोषित करना शायद ठीक नहीं है। आपको इसी सोशल मीडिया ने इज्जत बख्शी है। आपकी कई स्टोरिज को मैने सैकड़ों के लाईक्स होते हुए देखा, शेयर होते हुए देखा लेकिन अगर आपको सोशल मीडिया पर एक खास ग्रुप ने निशाना बनाया है तो जनाब ये एक खास राजनीति है और आप पत्रकार होने के नाते इसको इग्नोर कर सकते है, जवाब दे सकते है और सबसे ऊपर अपनी लाईऩ पर डटे रह सकते है लेकिन संवाद के एक पूरे माध्यम को देश की नजर में जलील नहीं साबित कर सकते है। कोई पत्रकार या पत्रकारिता समाज से बड़ी नहीं होती है रवीश जी।
बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे
हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में
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