दुनिया भर के बोझ को उठाने वाला कंधा बेटे की
लाश का बोझ नहीं सह पाता है। लेकिन लक्ष्मण ने बेटे को दफनाने के लिए गडढा खोदा।
बेटे को जमीन की गोद में रखते हुए बेटे की सीधे हाथ की ऊंगली को उसके होठो से छुआ
और कान में धीरे से कहा कि बेटा बिट्टू जल्दी आना मां इंतजार करेंगी। जिगर के
टुकड़े को दफनाते वक्त एक बाप के मुंह से निकलते ये शब्द और साथ खड़े लोगो की
सांसे गले से बाहर नहीं आ रही थी। निकल रहे थे तो बस आंसू। (रस्म कहती है कि असमय
मौत के मुंह में गया बच्चा फिर से मां के गर्भ से जन्म ले।) रस्म पूरी कर दी
लक्ष्मण ने और घर वापस आकर अपनी पत्नी को सांत्वना देने लगा। लेकिन एकलौते बेटे की
मौत शायद बबीता के बर्दाश्त से बाहर और पति के साथ छत से कूदकर आत्महत्या कर ली।
सात साल के अविनाश की मौत डेंगू से हुई और उसके माता-पिता ने उसके गम में छत से
कूदकर आत्महत्या कर ली। सरकारी फाईलों में ये लिखा जाएंगा। सरकारी फाईळें इस देश
में गुलामी को अविरल रखते हुए कागज। न कोई गुनाहगार न किसी को सजा। कहानी इतनी ही
रहती अगर इस देश के एक बौने से स्वास्थ्य मंत्री ने नाटक का अगला अध्याय न खोला
होता। जे पी नड्डा यही नाम है शायद अगर इसकी बजाय कोई और नाम होता तो भी कोई फर्क
नहीं पड़ता। कोई जेम्स इर्विन या फि नील या फिर कुछ भी। सत्तर साल के सफर में ये
अलहदगी और तेज हुई और तीखी हुई है। दूरी कम नहीं हुई। जे पी नड्डा ने नोटिस जारी
किया है और कहा है पूछा है कि बिट्टू को भर्ती क्यों नहीं किया गया। इस नाटक पर
कौन हंस सकता है जिसका सीना पत्थर हो चुका हो। क्योंकि जे पी नड्डा बेचारे की औकात
कितनी होगी। इस खेल में तो मोदी साहब से पूछना चाहिए की आपकी औकात कितनी है।( बहुत
से मोदी भक्त गाली देने लगेगे- हाथ जोड़ कर माफी दे दे और देश के बाकि तमाम
मुद्दों पर नोंच डालो विरोधियों को इस पर माफ कर दे) क्या किसी हॉस्पीटल का
लाईंसेंस रद्द कर सकते हो। ये सिर्फ मरे हुए बच्चें के बच्चे हुए रिश्तेदारों के
जख्मों पर नमक छिड़कना होगा। उस रात की कहानी बयान करने के लिए बिट्टू उसके पिता
और मां भले ही इस संसार में न हो लेकिन बिट्टू के नाना है जो उसको खिलाने के लिए
दिल्ली आये थे। एक एक हॉस्पीटल के बाहर दौड़ते हुए बिट्टू के बाप को हर हॉस्पीटल
अगले हॉस्पीटल की ओर भेज रहा था कि बड़े में जाईंये। और वो असहाय अपने बच्चे को
बचाने की उम्मीद में इधर से उधर तब तक भागता रहा जब तक बिट्टू की सांसों ने भागना
बंद नहीं कर दिया। ये देश की राजधानी है। यहां देश के दो सबसे ताकतवर और
क्रांत्रिकारी राज कर रहे है। देश की गद्दी पर 56 इंच के सीने वाले मोदी जी है तो दिल्ली
की गद्दी पर ईमानदारी के पैदा हुए अवतार अरविंद केजरीवाल साहब। अब इन लोगो का इस
मौत से क्या ताल्लुक है। तो जान लीजिए सीधा ताल्लुक है। इस दिल्ली में देश को
लूटने में लगे सबसे बड़े अस्पतालों को जमीन देने वाली सरकार का सीधा ताल्लुक है
अस्पतालों में चल रहे लूट के राज को रोकने में। हॉस्पीटल्स को जमीन दी गई सेवा के
लिए। आज देश का हर बड़ा उद्योगपति चाहता है उसका एक अस्पताल हो जिसमें फाईवस्टार
को मात देने वाली सुविधा हो। और देश के चुनिंदा ( लूट से हासिल अकूत दौलत उनके पास
हो) और ज्यादा से ज्यादा विदेशियों का उसमें ईलाज हो। दिल्ली में लगभग हर हॉस्पीटल
को ये जमीन दी गई थी कि अपने विजनेस के साथ साथ गरीब आदमी का ख्याल भी रखे लेकिन
जमीन हासिल होते ही उसका रंग गिरगिट की तरह हो गया। उसको गरीब आदमी तभी याद आता है
जब उसकी किड़नी छीननी हो या फिर उसका ब्लड़ किसी पैसे वाले के काम आ सकता हो। और
सरकार—(हां गरीब आदमी के लिए कानून बनाने वाली कोई चीज) रोज आपको मीडिया में
गिड़गिड़ाती, धमकी देती हुई या दूसरे तमाम नाटक करती हुई दिखाई देती है कि ये
अस्पताल अगर गरीबों का ईलाज नहीं करेंगे तो उनपर जुर्माना लगा देंगी। हॉस्पीटल्स
में जाकर तो देखिये जनाब वहां कितने गरीब लोग लेटे हुए है। ब्यूरोंक्रेट्स के
रिश्तेदार गरीबों को मिले बेड़्स पर तफरीह से ईलाज कराते मिल सकते है, कुछ नेताओं
के रिश्तेदारों को भी गरीब करार दिया जा सकता है मीडिया में अपनी जुगतबंदी से जगह
बनाने वाले कुछ कामयाब लोगो की सिफारिश भी काम कर सकती है। लेकिन गरीबों के 25
फीसदी बेड का वादा किताबों में ही रहा। लेकिन आजतक किसी सरकार ( अगर आजादी के बाद
कोई सरकार रही हो तो) की हिम्मत नहीं हुई कि वो हॉस्पीटल्स से उसका लाईंसेस छीनकर
उसका अधिग्रहण कर ले या फिर उसको वापस नीलाम कर दे। ऐसा हो भी नहीं सकता है इतनी
ताकत किसी सरकार में हो ही नहीं सकती क्योंकि आप और हम जिसको सरकार समझते है वो
सरकार है ही नहीं। हमारी वोटो से जीतकर आएँ हुए नेता इतने बौने होते है कि वो अपने
सेक्रेट्री से आँखों में आँखें डालकर बात नहीं कर सकते है। क्योंकि वोटो से जीतकर
आऩे वाले नेताओं में जातिवादी कबीले के नायक ज्यादा होते है। इनके भोंपूं पत्रकार
पूरी उम्र कुछ टुकड़ों को हासिल करने के लिए इन्हें कभी समाजवादी, कभी लोहियावादी,
कभी प्रगतिशील या फिर ऐसे ही जाने क्या क्या नाम से छापते रहे। लेकन परिवारवाद के
अलावा इनके पास और कोई एंजेंडा नहीं होता। असली सरकार है पर्दे के पीछे। नौकरशाह।
वहीं नौकरशाह जो इंग्लिश में बोल सकते है आपके साथ बात करते हुए दुनिया के ऐसे
आंकडें पेश कर सकते है कि आपकी आंखें उस देश के विकास से खुली की खुली रह जाएं।
वही नौकरशाह जो शाम होते ही किसी गोल्फक्लब
या फिर किसी और क्लब में आपको जाम छलकाते नजर आ जाएंगे। उनके बच्चें दुनिया
के सबसे नामी स्कूलों में पढ़ते है या फिर किसी देश में बाप के लूटे गए पैसे को
इनवेस्ट करते हुए पाए जाते है। देश के पास ऐसा कोई डाटा अभी नहीं जिसमें ये पता
चले कि कितने ऑफिसर्स के बच्चे विदेश में पढ रहे है या फिर सैटल्ड हो चुके है। ये
ही लोग सरकार है। ये ही लोग तय करते है कि किस हस्पताल को जमीन देने से कितने पैसे
आएँगे। ये ही लोग तय करते है कि किस हाईवे के नेशनल होने से कितना पैसा उनके हत्थे
चढ़ सकता है। और ये ही लोग है जो राजनेता को ये समझा देते है कि लाईसेंस कैंसिल
करना कोई ईलाज नहीं क्योंकि डॉक्टर से ये ही बतिया कर सौदा कर सकते है।
इस देश में इस वक्त नौकरशाही का खुल्ला खेल
पूरे जोर-शोर से जारी है। लूट का अभियान। जांच एजेसियों के हैड्स लूट में शामिल
होते है। यूपीएसी के मेंबर बन जाते है। एक आईएएस दस साल पहले रिटायर हुआ लेकिन
बोर्ड के अद्यक्ष होते है। कोई आईएएस सलाहाकार होता है। एक देश का होम सेक्रेट्री
से घरेलू काम के चलते वीआरएस लेता है शाम को किसी बोर्ड का अध्यक्ष बन बैठता है।
खुदा जाने ये नंगा खेल कब तक चलेगा। बात बिट्टू की है लेकिन बात दिल्ली के बड़े
दफ्तर में बैठे नौकरशाहों की भी है। और जाने क्यों दिल यही कहता है कि आप इनका कुछ
बिगाड़ नहीं पाओँगे ये अपनी लूट मुक्म्मल होते ही देश के बाहर जाने का इंतजाम कर
चुके होते है जहां इनके बेटे, पोते देश के गरीबों के खून को चूसकर इकट्ठा की गई
दौलत से अपना एक मुकाम हासिल कर रहे होते है। अलविदा बिट्टू। बस तुम्हारे लिये दुख
इतना है कि तुम वापस भी नहीं लौट पाओँगे लूट के इस खेल में लुटने के लिए क्योंकि
मां ही चली गई है। लेकिन तुम जैसे हजारों बिट्टू रोज इस व्यवस्था के चलते मां की
गोद को सूना कर जमीन की कोख हरी करते है और उनके मां-बाप उनके लौटने का अतंहीन
इंतजार करते है।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई
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