चले फिर........। ड्राईवर ने दूसरी बार पूछा। दो जोड़ी
बूढ़ी आंखें डबडबाई। मुड़कर एक बार फिर बॉलकनी की ओर देखा। मैं सुबह से ही बार-बार
उस ओर देखने से बच रहा था। लेकिन उन आंखों को देखा जो आंसूओं को थामकर ऱखे हुए अब
वापस उस मकान में नहीं लौटनी थी। मेरे फ्लैट के बराबर में फर्स्ट फ्लोर में रहते
थे ये बुजुर्ग दंपत्ति अपने एक जवान बेटे के साथ। मेरी दूसरी मंजिल के फ्लैट से
उनकी बॉलकनी का बेहद छोटा सा हिस्सा दिखता था। मैं खुद भी कौन सा दिन के किसी
हिस्से को अपनी बॉलकनी से साझा कर पाता था। और रात में चांद देखना तो इस शहर ने छीन
ही लिया है। छीन लिया कहना गलत होगा मैंने रोटी के लिए गिरवी रख दिया ज्यादा सही
होगा। कभी-कभी नीचे झांकता था तो एक बेहद खूबसूरत बॉलकनी का हिस्सा जिसमें हरे-भरे
पेड़। कभी-कभी वो बुजुर्ग पानी देते हुए दिख जाते थे। लेकिन एक हफ्ते पहले ही जब
ऑफिस से लौटा था तो पत्नी ने बताया था कि बराबर में रहने वाले परिवाल के लड़के की
मौत हो गई। कोई रिश्ता नहीं, कोई पहचान नहीं, कोई बोल-चाल भी नहीं लेकिन झटका सा
लगा क्योंकि वो बिलकुल बगल में रहने वाले जीते-जागते इंसान की मौत की बात थी। पूछा
क्या हुआ था तो पता चला पांच दिन से बीमार था प्राईवेट नर्सिंग होम्स में ईलाज चल
रहा था और बाद मे डेंगू से मौत हो गई। 28 साल का जिंदगी से भरपूर नौजवान जो
मां-बाप के बुढ़ापे में खुशी का बायस होता है। वही इस तरह से असमय चला गया। छङ साल
से टैक्स देकर सरकारी अस्पताल में काम कर रहे डॉक्टरों के बच्चों के भविष्य को
सवांरता हुआ नौजवान अपने मा-बाप को बुढ़ापे का सबसे बड़ा दुख दे गया। और एक हफ्ते
बाद ही वो बुजुर्ग जा रहे थे। घर खाली करते हुए देखता रहा। मैं जाकर पूछ नहीं
पाया। मौत के एक दिन बाद का संवाद बस इतना ही था। और अब कुछ भी नहीं। न मेरे पास
भरोसा था उनके लिए और न ही किसी और के पास। वो बुजुर्ग इस मकान को छोड़कर कही ओर
चल दिए। जहां उनके बेटे की याद न आ सके। या फिर बेटे की मौत का गम भुला सके। ये एक
यकीन का खत्म होना था। लेकिन मैं दिल ही दिल पूछ रहा था कि आप जाओंगे कहां इस मकान
को छोड़ देने भर से आप लूट के इस तंत्र से पीछा छुड़ा सकोंगे। आप उस लुटेरे तंत्र
से पीछा छुड़ा सकोगे जिसकी अय्याशी के लिए टैक्स जुटाने में उनके बेटे ने जी-तोड़
मेहनत की। और हो सकता है कि पूरी नौकरी के दौरान उन्होने की हो। कॉलोनी के सामने
एक ओवर ब्रिज है। जिसका पानी कही और नहीं कॉलोनी के लिए काटा हुआ है। हर बार बारिश
के बाद पानी 15-15 दिन कॉलोनी में भर जाता है। कौन जाने किस मच्छर ने कहां काटा
होगा जो वो मौत के मुंह में चला गया। एक मौत का सर्टिफिकेट होगा मां-बाप के पास जो
कुछ बचत अगर होगी तो उसको वापस लेने के लिए जरूरी होगा। इससे ज्यादा कोई सरकार
नहीं है उनके लिए उनके पास। वो एक मकान छोडकर दूसरे में और दूसरे को छोड़कर तीसरे
में जा सकते है लेकिन देश में लूट के लिए जो एक मशीनी तंत्र इस वक्त विकसित हो गया
है वो कही भी उनका पीछा नहीं छोड़ेगा। मेरी आंखों में एक घटना और है जो मेरे ही घर
के सामने ही हुई। पिछले हफ्ते रात को एक छोटे से अखबार में छोटी सी नौकरी कर छोटी
सी पगार से अपने छोटे से परिवार की बड़ी जिम्मेदारी निबाह रहा एक नौजवान अपने
किराएं के घर में वापस लौट रहा था। रात थी, रोशनी की जरूरत इँसानो के लिए होती है
ये बात सरकारी अफसर जानते है और इसीलिए सड़क पर अंधेरा था। सड़क पर गड्ढों की लाईन
थी। और बारिश के महीने भर बाद भी सड़क से निकली बजरी ईधर-उधर फैली हुई थी। बाईक
निकालते वक्त किसी एक गड्ढे में पहिया गया और बाईक फिसल गई। इससे पहले कि वो उठे
रात को मौत के अवतार के तौर पर सड़क पर घूमते किसी ट्रक के टायर के नीचे उस नौजवान
का सिर आ गया। और एक सिर पर भले ही उस पर कितनी ही बड़ी जिम्मेदारियां हो ट्रक का
टायर हमेशा एक दर्दनाक मौत का बायस होता है। शक्ल और सूरत जिस पर मां-बाप कितनी
बार न्यौछावर हुए होंगे एक खून की कीचड़ मे बदल चुका था। कितनी बार मां ने नजर न
लगे इस लिए इसी चेहर पर काजल का टीका लगाया होगा। मौके पर काफी देर बाद पुलिस
पहुंची होगी। (पुलिस किसलिए होती है ये बात अब लोग समझ चुके
है) हालांकि यहां ये कहना कोई समझदारी की बात नहीं है कि यहां दमदार एसएसपी हैऔर
वो अपने सिपाहियों को ये गर्व से भरा हुआ खत लिख चुके है कि गर्व से कहो ठुल्ला
कहो। जेंब से निकले पहचानपत्र से उस बिना चेहरे की लाश को एक नाम मिल गया पहचान
मिल गई और उसके मां-बाप को अपनी उम्मीदों के लाश होने का पता मिल गया। ( आजकल इस
देश में पुलिस का यही काम है किसी गरीब इंसान के लिए और शायद इसके पैसे नहीं लिए
होंगे) पता चला कि उसके बूढ़े मां-बाप है और एक छोटा भाई है जिसका खर्चा ये अपनी
छोटी सी पत्रकारिता से चला रहा था। वो अब कैसे चलेगा इसका सिस्ट्म से कोई
लेना-देना नहीं है। क्योंकि शव की शिनाख्त हो गई लिहाजा पुलिस का गुड वर्क्स है।
कुछ पत्रकारों ने सरकार नाम के सिस्ट्म की एक मशीन जो इस बात के लिए जिम्मेदार था
कि सड़क पर ठीक करने वाले ठेकेदारों पर निगाह रखे और उन पर जुर्माना करे ( लेकिन
उसकी नौकरी इन्हीं ठेकेदारों के जूतों को जीभ से साफ कर चल रही होगी इस वक्त तमाम
ठेकेदार समाजवादी है) उन साहब का एक बयान छपा था। और बयान पढ़ने के बाद रीढ़ में
सिहरन सी दौड़ गई क्योंकि ये एक नंगा सच था और जो यकीन नहीं करता उसको कर लेना
चाहिए। सड़क पर गड्ढों होने का जवाब था “ अच्छा गड्ढा था लेकिन हमने तो अभी
भरवाएं थे कोई बात नहीं फिर से भरवा देंगे “। ये लूट के एक
हिस्से का बयान था सरकार का नहीं। क्या किसी ऐसे सरकारी अधिकारी का कोई बेटा आपने
इस तरह रात में रोटी की तलाश पूरा कर घर लौटते हुए मरते सुना है। क्या किसी का
जवाब ऐसा हो सकता है। अगर उस इंसान को ये मालूम होता कि ट्रक के टायर के नीचे सर
होने का क्या मतलब होता है तब भी उसका जवाब क्या ऐसे ही होता। लेकिन ऐसा कुछ होगा
नहीं। खबर तो वहीं खत्म हो गई थी किसी खबर में उस नौजवान के बूढें मां-बाप की बाकि
जिंदगी के लिए कोई खबर नहीं होगी और नौजवान के सामान के वापस गांव तक ले जाने के
लिए ट्रक की भी जरूरत नहीं हुई होगी क्योंकि उसका कमरे में एक बिस्तर, गैस स्टोव
और एक छोटे टीवी के अलावा कुछ फोटो भर थे जिसमें एक फोटो में फोटोग्राफर की कारीगरी
से वो भगवान के दर पर हाथ जोड़े खड़ा था और भगवान उस पर अपना आशीर्वाद उडेल रहे थे।
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हत्याएं याद रह जाती है, लाशों के चेहरे याद
नहीं रहते
उनकी जिंदा तस्वीरें कम छपी थीं
वही बार-बार दिख पड़ता है बार-बार रूपवान चेहरा
जो
लाशों के पास अफसोस में खड़ा था
दिन ब दिन जानते जाते है हम वह हमारा चेहरा
नहीं
आज यही कफ़न ढंके चेहरे है एक साथ रहने के
बचे-खुचे कुछ प्रमाण और इन्हें जो याद नहीं रख
सकते है
वे ही समाज पर राज कर रहे है
चेहरे के बिना लोग
कल किसी और बड़े देश के गुलाम हो जाएंगे।
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