Saturday, September 26, 2015

तू आम है, वे खास है। ....................................................

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तेरा मर गया तो तू रो ले
तेरे पास आज रोटी है, तू खुश हो ले
बच गई जिंदगी तो अगले वार का इंतजार कर
नहीं दिख रहे तो खैर मना
दिखे तो ख्वाब में भी डर
सड़क पर हो तो मर
घर में हो तो मर
हवा में हो तो मर
पटरी पर हो तो मर
तू आम आदमी है
बोझ सारा तेरे कंधे पर
तेरी हर सांस पर उनका पहरा है
उनका हर दिन सुनहरा है
वो तेरी लाश पर मुस्कुराते है
फायदा दिखे तो आंसू बहाते है
तेरी जिंदगी उनका उधार है
हर दांव उनका लॉटरी तेरा खाली वार है
बाढ़ आए तो तेरा घर गिरा
सूखा पड़े तो तेरा घर मिटा
दंगा हुआ तू पिटा
बीमारी की तेरे पर मारामार हैं
वो जिंदगी का हार है
वो वक्त कीम बहार है
तू जिंदगी भर का बीमार है
तेरे बच्चे नालियों में कूदते रोटियां झपटते सियार है
साहब बहादुर के शेर नजरे बहार है
गुजर गई तो जय कर
बच गई तो और डर
तू आम है
वो खास है..........

Wednesday, September 23, 2015

सारा सोशल मीडिया दोषी नहीं है रवीश जी

"आप मेरी नहीं अपनी चिंता करे क्योंकि अब बारी आपकी है। आप सरकारों का हिसाब कीजिए कि आपके राज में बोलने कि कितनी आजादी है और प्रेस भांड जैसा क्यों हो गया। यह मजाक का मसला नहीं है। मैं जानना चाहता हूं कि समाज का पक्ष क्या है, मैं आम लोगो से जानना चाह रहा हूं कि इसके पक्ष में बोलेंगे या नहीं, आप मीडिया के आजाद स्पेश के लिए बोलेंगे कि नहीं, आप किसी पत्रकार के लिए आगे आएंगे कि नहीं, अगर नहीं तो मैं युवा पत्रकारों से अपील करता हूं कि इस समाज के लिए आवाज उठाना बंद कर दे। यह समाज उस भीड़ में मिल गया है यह किसी भी दिन आपकी बदनामी से लेकर हत्या में शामिल हो सकता है, पत्रकारों ने हर कीमत पर समाज के लिए लड़ाई लडी है, बहुत कमियां रही है और बहुतों ने अपनी कीमत वसूली है, लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि समाज आगे आता है कि नहीं।"   रवीश कुमार
रवीश हिंदी टीवी पत्रकारिता के स्टार है। स्टारडम हासिल किया है। लंबी पत्रकारिता की जिंदगी। लाखों लोग उनके फैन है। इसका सबूत है कि बहुत से लोगो ने उनके खत को शेयर किया। उस पर लिखा। चिंता जताई। चिंता अपनी जगह है। और विचार अपनी जगह। सोशल मीडिया पर व्यक्तिगत गालियों से आहत रवीश कुमार ने सोशल मीडिया से पलायन कर लिया। लेकिन पत्रकारिता में आगमन के समय की खामोशी के साथ नहीं बाकायदा गा-बजाकर। रवीश कुमार अच्छे पत्रकार हो सकते है। लेकिन गुस्सा कुछ ज्यादा आ गया। आज पत्रकारिता की हालत क्या है उनके एक लैक्चर में सुन चुका हूं। लेकिन अपने खत में वो युवा पत्रकारों से समाज के की आवाज उठाना बंद करने की बात करते है। ये थोड़ा ज्यादती है। और अगली लाईन में वो समाज सुधारक और पत्रकार के बीच की विभाजक रेखा को बिलकुल मिटा गए। पत्रकार अपनी नौकरी करता है। इसके लिए वो बाकायदा तनख्वाह लेता है। कोई भी समाज पत्रकारों की कांत्रि पर निर्भर नहीं होता है। हजारों साल की सिविलाईजेशन में टीवी को आए हुए भी दो दशक भी नहीं हुए है। और अखबार को भी दो सौ ही साल हुए है उससे पहले समाज अपने से चलता रहा, रास्ता देखता रहा और मौजूदा समय तक यानि आपके समय तक आया है। और समाज को अपने संवाद की एक व्यवस्था करना आता है। पहले कवि और जब कवि भांड बन गए तब भाट और जब भाटों ने राजाओं को ही सर्वस्व बताना शुरू किया तो फिर लोकगीतों में जनता की आवाज मुखरित हुई। और फिर अखबार आया तो जनता के लिए ये भी एक संवाद की चीज थी। और बड़े अखबारो को चुनौती देते हुए कुछ एक पेजी अखबार भी निकले। नब्बे के दशक में बुद्दु बक्शा स्मार्ट हुआ और आप जैसे स्मार्ट लोग आम जनता के संवाद का जरिया बने। लेकिन जैसे ही संवाददाताओँ की आवाज से समाज गायब हुआ तो उन्होंने संवाद का नया रास्ता चुन लिया। क्या टीवी ही तय करेगा कि क्या सही है और क्या गलत है। क्या आप जैसे पढ़े-लिखे लोग सूरज को सूरज कहेंगे तभी लोगो को रोशनी दिखेंगी। आपने एनडीटीवी को न छोड़ना भी अपनी प्रतिबद्धता में गिनवाया है। लेकिन जिन लोगो ने एक टीवी चैनल छोड़कर दूसरा टीवी चैनल ज्वाईन किया क्या वो आपसे कम प्रतिबद्ध है। शायद कुछ ज्यादा बड़ा आरोप है। रही बात कि पत्रकार क्यों इंसुलेट रहे। सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बना है जिसपर देश ने एक्शन और रिएक्शन लेना शुरू किया है। लेकिन ये एक्शन और रिएक्शन लिखकर लिया जा रहा है। हो सकता है कि ये प्रोपेगंडा ज्यादा हो लेकिन देश में बहुत सारी चीजें इसी पर चल रही है। पत्रकारिता के नाम पर देश भर में चल रही धींगामस्ती की पोल खुलने के लिए भी यही सोशल मीडिया कारगर साबित हुआ।
किसी भी पत्रकार के पास ऐसी एक दो दस नहीं सैकड़ों कहानियां होगी जो उसने अपने पत्रकारिता में देखी होगी जो चुपचाप दफना दी गई। हाथ में कागज-पत्तर लेकर मीडिया के दरवाजे पर निराश खड़े लोगो को बहुत बार देखा है मैने रवीश जी। लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था लिहाजा वो गरीब अपने कागजों के साथ ही वक्त की रेत में दफन हो गए। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है मैं सिर्फ एक ही उदाहरण दे कर इस बात को साफ कर सकता हूं। निठारी कांड। दिनों, हफ्तों नहीं महीनों तक निठारी के गरीब आदमी अपने गायब बच्चों की फोटो कुछ अखबारों में छफी कतरनों के साथ हर मीडिया चैनल के दरवाजें गुहार लगाने गए। लेकिन किसी को उनमें खबर नजर नहीं आई। ये अलग बात है कि जैसे ही ये खबर निकली तो फिर हर कोई उनमें रब देखने लगा था। आपने भी एक आध आधा घंटा अपनी खूबसूरत चालाकी के साथ किया गरीब दर्द के साथ किया होगा। ऐसी सैकड़ों घटनाएँ आप आसानी से लिख सकते है।
आजादी के दशकों बाद देश ने संवाद करना शुरू किया। एक दूसरे से संवाद करता हुआ समाज आपको आसानी से दिख जाता है सोशल मीडिया पर। लेकिन सवा अरब की आबादी  के देश में एक छोटी सी धारा भी काफी बड़ी साबित होती है।  जैसे कि देश की आबादी का 90 फीसदी हिस्सा अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि उसकी शिक्षा और रहन-सहन का स्तर आपके स्तर का हो जाएं। इतिहास के साथ खिलवाड़ , नौकरशाही की बर्बर चालाकियां और कबीले के नेताओं का सत्ता में काबिज होना ये सब अलग-अलग हिस्सों में अलग तरह से मुखरित हुआ क्योंकि देश में एक दूसरे से संवाद करने का माध्यम मौजूद ही नहीं था। लिहाजा कई दिनों बाद एक छोटी सी खबर का इंतजार करते हुए लोग अपने सामने दिख रहे भदेश को जमीनी सच और आप जैसे पत्रकारों को एक मात्र सच मानकर स्वीकार कर रहे थे। क्या हम लोग इस बात से पल्ला झाड़ सकते है कि समाजवाद की आ़ड़ में हमने क्रिमिनल्स को नेताओं के रूप में स्वीकार किया। क्या बदलाव की राजनीति के नाम पर सामने आए लोगो के परिवारवाद या दूसरे आरोपो को मीडिया ने पूरा दिखाया।  क्या उन पत्रकारों को आप कुछ कह पाएं जो जेपी के चेलों को जातिवादी नेता नहीं बल्कि पिछड़ों की आवाज बताने में लगे रहे। परिवारवाद, जातिवाद, और लूट को कानून बना देने वाले इऩ लोगो के महिमामंडन करने वालों को आप कभी कठघरे में खड़ा कर पाएं। मेरा कोई उद्देश्य आपको कठघरे में खड़ा करना नहीं है लेकिन सोशल मीडिया को पूरे तौर पर एक पक्षीय घोषित करना शायद ठीक नहीं है। आपको इसी सोशल मीडिया ने इज्जत बख्शी है। आपकी कई स्टोरिज को मैने सैकड़ों के लाईक्स होते हुए देखा, शेयर होते हुए देखा लेकिन अगर आपको सोशल मीडिया पर एक खास ग्रुप ने निशाना बनाया है तो जनाब ये एक खास राजनीति है और आप पत्रकार होने के नाते इसको इग्नोर कर सकते है, जवाब दे सकते है और सबसे ऊपर अपनी लाईऩ पर डटे रह सकते है लेकिन संवाद के एक पूरे माध्यम को देश की नजर में जलील नहीं साबित कर सकते है। कोई पत्रकार या पत्रकारिता समाज से  बड़ी नहीं होती है रवीश जी।

बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में
है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे
हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में
छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में

Saturday, September 19, 2015

मैं चला जाऊंगा ...........................

 हवाओं में कुछ नहीं मिलेगा मेरा
रास्तों पर किसी निशान से पहचान नहीं पाओगे मुझे
कही कोई रास्ता गवाही नहीं देगा मेरे होने की
किसी फूल में खोज नहीं पाओंगे मेरी मुस्कान
उगते हुए चांद से नहीं आएंगी मेरी याद
न ही सूरज की तपिश से अहसास कर पाओगे मेरा ताप
मैं अभी हूं
अपना सा होने के लिए
मैं चला जाऊंगा
तो
कही नहीं पाओंगे मुझे
जीना है तो चले आओ
इस पल में ही जीने के लिए।

झूठ में जिंदा रहना हमेशा अच्छा लगता है।

हिंदी दिवस काफी शानदार रहा। बहुत सारे दोस्तों ने एसएमएस , व्हाटएप्प या फिर दूसरे सोशल मीडिया के साधनों से हिंदी दिवस की खुशियां शेयर की। बहुत सारी बहस-मुसाहिबें भी हुए। बहुत सारे विद्वान जनों के लेख भी दिखे। हर अखबार ( जाहिर बात है हिंदी के) में हिंदी दिवस पर गणमान्य लोगो के हिंदी की ताकत, उसकी खूबसूरती और व्याकरण की विविधता को लेकर गुनगाण गाते हुए। एक दो उत्तरआधुनिक सुधीश पचौरी जी जैसे तमाम संतों के भजन जिसमें सबसे बडी टेक रहती है बाजार मजबूर हो रहा है हिंदी की शरण में आने के लिए। सच भी एक दो लेख में दिख जाता है। ये झूठी और मक्कारियों की कहानियां थी जो सिर्फ पैसे के लिए लिखी गई थी। हिंदी अब अपनी जगह खो चुकी है। भविष्य में उसके लिए कोई रास्ता नहीं है। सिर्फ वो लोग जो ताकत में नहीं है या ताकत के कॉरिडोर में रास्ता बनाने में असफल रहे है उसकी कहानी सुनाएंगे। इतिहास गवाह है कि जिस भाषा का रोजगार से और ताकत से रिश्ता कट जाता है वो देवभाषा हो जाती है। हिंदी देवभाषा होने के कगार पर है। रही बात बोलने वालों की संख्या या फिर बाजार की तो अभी इस देश का मध्यमवर्ग जो अब अपने बच्चों को मर्जी के स्कूलों में पढ़ा रहा है ज्यादातर में इंग्लिश में बोलने को तरजीह दी जाती है। देश के सत्ता के गलियारों में अभी हिंदी की बात करने से आपको अछूत माना जा सकता है। हिंदुस्तान की सबसे बड़ी अदालत की सीढियां जिस दिन चढा़ उसी दिन देख लिया था वकील साहब के चैंबर में बैठे एक वादी को ये पूछते हुए कि साहब फैसला हमारे हक में है कि दूसरे के। हालांकि वो भी सुनवाई और फैसले के दौरान मौजूद था लेकिन वहां अंग्रेजी के अलावा कोई भाषा नहीं समझ पाते माईलार्ड बहस के दौरान। किसी भी प्राईवेट नौकरी में हिंदी में बायोडाटा भेजना और खुद को भरे चौराहे पर रूई में लपेट कर आत्मदाह करना दोनो बराबर है। हिंदी पर भाषण झाड़ने वाले तमाम लोगो के बच्चे सबसे बढियां इंग्लिश स्कूल में ही पढ़ते है। लेकिन इस देश को ये आदत है कि सच अगर चुभता है तो बोलना नहीं है। अरे भाई लोगों अगर हिंदी से सचमुच में प्यार है तो सीधे पूछों न कि लंबरदार एक बात बता कि मैं बच्चों को हिंदी क्यों पढ़ाऊँ।
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उस सरगर्मी की याद दिलाते
कई परचे कई इश्तहार आज भी
गलियों की दीवारों पर घाम-पानी सहते
चिपके है अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए
उन पर छपे लम्बे-चौड़े वायदों पर
परतें काई की जमीं जा रही है।
जिन्हें देखते-देखते
आँखें लाल हो जाती है।
तुम्हारे पास पुलिस है हथकड़ियाँ हैं
लोहे की सलाखें वाली चारदिवारी है
मुझे गिरफतार करके चढ़ा दो सूली
उसी माला को रस्सी बनाकर
जो कभी तुम्हें पहनाया था
क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर के विश्वास की
बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी है।
इस जुर्म की सज़ा मुझे दे दो।
मैं इन इश्तहारों को
अब सह नहीं पा रहा हूँ।

ऐ अफसरशाही तू जिंदाबाद, तू जिंदाबाद

कल एक खबर देखने के बाद जाने कैसा अहसास हुआ, खुशी तो नहीं थी लेकिन दर्द भी नहीं था हां आश्चर्य जरूर हुआ। दिल्ली के एक खुले गटर के ढक्कन में एक सीनियर अधिकारी गिर गया। वी सी पांडेय साहब सीनियर आईएएस है। दिल्ली के पॉश इलाके में यानि एलजीसाहब के घर के पास राजपुर रोड़ पर इवनिंग वॉक करते वक्त पांडेय साहब एक ऐसे मेनहॉल में एक पैर से अंदर चले गए जिसका ढक्कन गायब था। पैर फ्रैक्चर हो गया। गजब की खबर थी। पहली बार गटर का ढक्कन न होना किसी अधिकारी को महसूस हुआ। खबर पर बस आश्चर्य हुआ देश को ढक्कन में तब्दील कर चुके आईएएस अधिकारी भी गटर में गिर सकते है। ये तो आसमान के टूट पड़ने वाली बात है। खैर आज सुबह ही उसी अखबार में गटर पर ढक्कन लगा देखा तो सुकून आया कि देश की पहली गलती सुधार ली गई। इन्हीं गटर में इस देश की राजधानी में सफाई के दौरान पिछले सालों में मरने वालो की तादाद एक दो दस नहीं सैकड़ो में है। गटर में ढक्कन न होने की वजह से कई बच्चों के मरने की खबरें यदा-कदा सुर्खियां बनती रहती है। कई बार बच्चें की मौत पर कोई मंत्रीनुमा आदमी बयान देता है कि जांच होगी जिम्मेदारी तय होगी। कभी पता नहीं चला उस जांच का क्या हुआ। उस जिम्मेदारी के तय करने का क्या हुआ। एक और कहानी मीडिया के बौंनों की भी है हमने खबर को कवर किया मैंने फेसबुक पर उन्होंने समाचार पत्र और टीवी में और उनकी टेक थी कि दिल्ली के प़ॉश इलाके में आईएएस भी ढक्कन न होने से मेनहोल में गिर कर घायल हुए। यानि ये उनके लिए भी आश्चर्य था। इस देश में अफसरशाही हर किसी दुख और परेशानियों से मुक्त है। उस तक आम आदमी की समस्याएं छू नहीं सकती है। किसी भी अस्पताल में उसके रिश्तेदार खून के लिए इंतजार नहीं कर सकते है। उसके रिश्तेदारों को कोई वेटिंग नहीं होता है। अपने बच्चों के लिए बिलखते मां-बाप के चेहरों में उनका चेहरा शुमार नहीं होता। कभी-कभी लगता है कि देश के लिए शहीद होने वाले किसी सैनिक या फिर अफसर का रिश्ता इन अफसरों से भी होता तो कितना अच्छा होता। दिल्ली की सड़कों पर होने वाली वारदातों में, सड़कों के किनारे पर हुई लूट के शिकारों में या फिर ऐसी ही परेशानी में जिसमें आम आदमी रोज अपनी जिंदगी में खून के आंसू रोता है कभी इनके आंसू भी मिल जाते तो क्या ये तस्वीर बदल नहीं जाती। लेकििन इस देश ने अंग्रेजों के जाने के बाद जिन लोगो ने अंग्रेजों की हैसियत हासिल की थी वो यही अफसरशाही है जिसको हमने राजा बनाकर रखा। और राजाओं की हैसियत होती है राजाओं के अधिकार होते है और राजा किसी चीज के जिम्मेदार नहीं होते। इस देश में ऐसा ही चल रहा है। मन करता है सड़क पर जोर जोर से चिल्लाएं जय हो जनाब आपने इस देश में अवतार लिया।
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यहाँ दोपहर में रात हो गयी
गुलर का फुल खिलकर काफुर हो गया
गिद्ध के डैनों के नीचे
गोरैया की जिन्दगी कानून बन गयी
कैक्ट्स के दाँतों पर खून का दाग आ गया।
पंखुड़ी से फिसल कर
चांदनी अटक गयी है कांटों की नोक पर
ओस की लाल बूँदों पर
काली रात तैरती रह गयी।
उजाले के गल गये तन पर
काला कुत्ता जीभ लपलपाता रहा
गंधलाती रही सूरज की लाश
काली चादर के भीतर
अंधे दुल्हे ने काजल से
भर दी मांग दुल्हन की
यहाँ दोपहर में रात हो गयी
सुहाग-रात बन्द रह गयी
सिदरौटै के भीतर

Sunday, September 13, 2015

इस घऱ को छोडकर चले जाओंगे लेकिन लुटेरों से कहां तक बचोंगे।

चले फिर........। ड्राईवर ने दूसरी बार पूछा। दो जोड़ी बूढ़ी आंखें डबडबाई। मुड़कर एक बार फिर बॉलकनी की ओर देखा। मैं सुबह से ही बार-बार उस ओर देखने से बच रहा था। लेकिन उन आंखों को देखा जो आंसूओं को थामकर ऱखे हुए अब वापस उस मकान में नहीं लौटनी थी। मेरे फ्लैट के बराबर में फर्स्ट फ्लोर में रहते थे ये बुजुर्ग दंपत्ति अपने एक जवान बेटे के साथ। मेरी दूसरी मंजिल के फ्लैट से उनकी बॉलकनी का बेहद छोटा सा हिस्सा दिखता था। मैं खुद भी कौन सा दिन के किसी हिस्से को अपनी बॉलकनी से साझा कर पाता था। और रात में चांद देखना तो इस शहर ने छीन ही लिया है। छीन लिया कहना गलत होगा मैंने रोटी के लिए गिरवी रख दिया ज्यादा सही होगा। कभी-कभी नीचे झांकता था तो एक बेहद खूबसूरत बॉलकनी का हिस्सा जिसमें हरे-भरे पेड़। कभी-कभी वो बुजुर्ग पानी देते हुए दिख जाते थे। लेकिन एक हफ्ते पहले ही जब ऑफिस से लौटा था तो पत्नी ने बताया था कि बराबर में रहने वाले परिवाल के लड़के की मौत हो गई। कोई रिश्ता नहीं, कोई पहचान नहीं, कोई बोल-चाल भी नहीं लेकिन झटका सा लगा क्योंकि वो बिलकुल बगल में रहने वाले जीते-जागते इंसान की मौत की बात थी। पूछा क्या हुआ था तो पता चला पांच दिन से बीमार था प्राईवेट नर्सिंग होम्स में ईलाज चल रहा था और बाद मे डेंगू से मौत हो गई। 28 साल का जिंदगी से भरपूर नौजवान जो मां-बाप के बुढ़ापे में खुशी का बायस होता है। वही इस तरह से असमय चला गया। छङ साल से टैक्स देकर सरकारी अस्पताल में काम कर रहे डॉक्टरों के बच्चों के भविष्य को सवांरता हुआ नौजवान अपने मा-बाप को बुढ़ापे का सबसे बड़ा दुख दे गया। और एक हफ्ते बाद ही वो बुजुर्ग जा रहे थे। घर खाली करते हुए देखता रहा। मैं जाकर पूछ नहीं पाया। मौत के एक दिन बाद का संवाद बस इतना ही था। और अब कुछ भी नहीं। न मेरे पास भरोसा था उनके लिए और न ही किसी और के पास। वो बुजुर्ग इस मकान को छोड़कर कही ओर चल दिए। जहां उनके बेटे की याद न आ सके। या फिर बेटे की मौत का गम भुला सके। ये एक यकीन का खत्म होना था। लेकिन मैं दिल ही दिल पूछ रहा था कि आप जाओंगे कहां इस मकान को छोड़ देने भर से आप लूट के इस तंत्र से पीछा छुड़ा सकोंगे। आप उस लुटेरे तंत्र से पीछा छुड़ा सकोगे जिसकी अय्याशी के लिए टैक्स जुटाने में उनके बेटे ने जी-तोड़ मेहनत की। और हो सकता है कि पूरी नौकरी के दौरान उन्होने की हो। कॉलोनी के सामने एक ओवर ब्रिज है। जिसका पानी कही और नहीं कॉलोनी के लिए काटा हुआ है। हर बार बारिश के बाद पानी 15-15 दिन कॉलोनी में भर जाता है। कौन जाने किस मच्छर ने कहां काटा होगा जो वो मौत के मुंह में चला गया। एक मौत का सर्टिफिकेट होगा मां-बाप के पास जो कुछ बचत अगर होगी तो उसको वापस लेने के लिए जरूरी होगा। इससे ज्यादा कोई सरकार नहीं है उनके लिए उनके पास। वो एक मकान छोडकर दूसरे में और दूसरे को छोड़कर तीसरे में जा सकते है लेकिन देश में लूट के लिए जो एक मशीनी तंत्र इस वक्त विकसित हो गया है वो कही भी उनका पीछा नहीं छोड़ेगा। मेरी आंखों में एक घटना और है जो मेरे ही घर के सामने ही हुई। पिछले हफ्ते रात को एक छोटे से अखबार में छोटी सी नौकरी कर छोटी सी पगार से अपने छोटे से परिवार की बड़ी जिम्मेदारी निबाह रहा एक नौजवान अपने किराएं के घर में वापस लौट रहा था। रात थी, रोशनी की जरूरत इँसानो के लिए होती है ये बात सरकारी अफसर जानते है और इसीलिए सड़क पर अंधेरा था। सड़क पर गड्ढों की लाईन थी। और बारिश के महीने भर बाद भी सड़क से निकली बजरी ईधर-उधर फैली हुई थी। बाईक निकालते वक्त किसी एक गड्ढे में पहिया गया और बाईक फिसल गई। इससे पहले कि वो उठे रात को मौत के अवतार के तौर पर सड़क पर घूमते किसी ट्रक के टायर के नीचे उस नौजवान का सिर आ गया। और एक सिर पर भले ही उस पर कितनी ही बड़ी जिम्मेदारियां हो ट्रक का टायर हमेशा एक दर्दनाक मौत का बायस होता है। शक्ल और सूरत जिस पर मां-बाप कितनी बार न्यौछावर हुए होंगे एक खून की कीचड़ मे बदल चुका था। कितनी बार मां ने नजर न लगे इस लिए इसी चेहर पर काजल का टीका लगाया होगा। मौके पर काफी देर बाद पुलिस पहुंची होगी। (पुलिस किसलिए होती है ये बात अब लोग समझ चुके है) हालांकि यहां ये कहना कोई समझदारी की बात नहीं है कि यहां दमदार एसएसपी हैऔर वो अपने सिपाहियों को ये गर्व से भरा हुआ खत लिख चुके है कि गर्व से कहो ठुल्ला कहो। जेंब से निकले पहचानपत्र से उस बिना चेहरे की लाश को एक नाम मिल गया पहचान मिल गई और उसके मां-बाप को अपनी उम्मीदों के लाश होने का पता मिल गया। ( आजकल इस देश में पुलिस का यही काम है किसी गरीब इंसान के लिए और शायद इसके पैसे नहीं लिए होंगे) पता चला कि उसके बूढ़े मां-बाप है और एक छोटा भाई है जिसका खर्चा ये अपनी छोटी सी पत्रकारिता से चला रहा था। वो अब कैसे चलेगा इसका सिस्ट्म से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि शव की शिनाख्त हो गई लिहाजा पुलिस का गुड वर्क्स है। कुछ पत्रकारों ने सरकार नाम के सिस्ट्म की एक मशीन जो इस बात के लिए जिम्मेदार था कि सड़क पर ठीक करने वाले ठेकेदारों पर निगाह रखे और उन पर जुर्माना करे ( लेकिन उसकी नौकरी इन्हीं ठेकेदारों के जूतों को जीभ से साफ कर चल रही होगी इस वक्त तमाम ठेकेदार समाजवादी है) उन साहब का एक बयान छपा था। और बयान पढ़ने के बाद रीढ़ में सिहरन सी दौड़ गई क्योंकि ये एक नंगा सच था और जो यकीन नहीं करता उसको कर लेना चाहिए। सड़क पर गड्ढों होने का जवाब था अच्छा गड्ढा था लेकिन हमने तो अभी भरवाएं थे कोई बात नहीं फिर से भरवा देंगे । ये लूट के एक हिस्से का बयान था सरकार का नहीं। क्या किसी ऐसे सरकारी अधिकारी का कोई बेटा आपने इस तरह रात में रोटी की तलाश पूरा कर घर लौटते हुए मरते सुना है। क्या किसी का जवाब ऐसा हो सकता है। अगर उस इंसान को ये मालूम होता कि ट्रक के टायर के नीचे सर होने का क्या मतलब होता है तब भी उसका जवाब क्या ऐसे ही होता। लेकिन ऐसा कुछ होगा नहीं। खबर तो वहीं खत्म हो गई थी किसी खबर में उस नौजवान के बूढें मां-बाप की बाकि जिंदगी के लिए कोई खबर नहीं होगी और नौजवान के सामान के वापस गांव तक ले जाने के लिए ट्रक की भी जरूरत नहीं हुई होगी क्योंकि उसका कमरे में एक बिस्तर, गैस स्टोव और एक छोटे टीवी के अलावा कुछ फोटो भर थे जिसमें एक फोटो में फोटोग्राफर की कारीगरी से वो भगवान के दर पर हाथ जोड़े खड़ा था और भगवान उस पर अपना आशीर्वाद उडेल रहे थे।
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हत्याएं याद रह जाती है, लाशों के चेहरे याद नहीं रहते
उनकी जिंदा तस्वीरें कम छपी थीं
वही बार-बार दिख पड़ता है बार-बार रूपवान चेहरा जो
लाशों के पास अफसोस में खड़ा था
दिन ब दिन जानते जाते है हम वह हमारा चेहरा नहीं
आज यही कफ़न ढंके चेहरे है एक साथ रहने के
बचे-खुचे कुछ प्रमाण और इन्हें जो याद नहीं रख सकते है
वे ही समाज पर राज कर रहे है
चेहरे के बिना लोग

कल किसी और बड़े देश के गुलाम हो जाएंगे।

अब बिट्टू आएंगा भी तो कहां मां। तुम तो अपनी कोख के साथ ही ऊपर चली गई।

दुनिया भर के बोझ को उठाने वाला कंधा बेटे की लाश का बोझ नहीं सह पाता है। लेकिन लक्ष्मण ने बेटे को दफनाने के लिए गडढा खोदा। बेटे को जमीन की गोद में रखते हुए बेटे की सीधे हाथ की ऊंगली को उसके होठो से छुआ और कान में धीरे से कहा कि बेटा बिट्टू जल्दी आना मां इंतजार करेंगी। जिगर के टुकड़े को दफनाते वक्त एक बाप के मुंह से निकलते ये शब्द और साथ खड़े लोगो की सांसे गले से बाहर नहीं आ रही थी। निकल रहे थे तो बस आंसू। (रस्म कहती है कि असमय मौत के मुंह में गया बच्चा फिर से मां के गर्भ से जन्म ले।) रस्म पूरी कर दी लक्ष्मण ने और घर वापस आकर अपनी पत्नी को सांत्वना देने लगा। लेकिन एकलौते बेटे की मौत शायद बबीता के बर्दाश्त से बाहर और पति के साथ छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। सात साल के अविनाश की मौत डेंगू से हुई और उसके माता-पिता ने उसके गम में छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। सरकारी फाईलों में ये लिखा जाएंगा। सरकारी फाईळें इस देश में गुलामी को अविरल रखते हुए कागज। न कोई गुनाहगार न किसी को सजा। कहानी इतनी ही रहती अगर इस देश के एक बौने से स्वास्थ्य मंत्री ने नाटक का अगला अध्याय न खोला होता। जे पी नड्डा यही नाम है शायद अगर इसकी बजाय कोई और नाम होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई जेम्स इर्विन या फि नील या फिर कुछ भी। सत्तर साल के सफर में ये अलहदगी और तेज हुई और तीखी हुई है। दूरी कम नहीं हुई। जे पी नड्डा ने नोटिस जारी किया है और कहा है पूछा है कि बिट्टू को भर्ती क्यों नहीं किया गया। इस नाटक पर कौन हंस सकता है जिसका सीना पत्थर हो चुका हो। क्योंकि जे पी नड्डा बेचारे की औकात कितनी होगी। इस खेल में तो मोदी साहब से पूछना चाहिए की आपकी औकात कितनी है।( बहुत से मोदी भक्त गाली देने लगेगे- हाथ जोड़ कर माफी दे दे और देश के बाकि तमाम मुद्दों पर नोंच डालो विरोधियों को इस पर माफ कर दे) क्या किसी हॉस्पीटल का लाईंसेंस रद्द कर सकते हो। ये सिर्फ मरे हुए बच्चें के बच्चे हुए रिश्तेदारों के जख्मों पर नमक छिड़कना होगा। उस रात की कहानी बयान करने के लिए बिट्टू उसके पिता और मां भले ही इस संसार में न हो लेकिन बिट्टू के नाना है जो उसको खिलाने के लिए दिल्ली आये थे। एक एक हॉस्पीटल के बाहर दौड़ते हुए बिट्टू के बाप को हर हॉस्पीटल अगले हॉस्पीटल की ओर भेज रहा था कि बड़े में जाईंये। और वो असहाय अपने बच्चे को बचाने की उम्मीद में इधर से उधर तब तक भागता रहा जब तक बिट्टू की सांसों ने भागना बंद नहीं कर दिया। ये देश की राजधानी है। यहां देश के दो सबसे ताकतवर और क्रांत्रिकारी राज कर रहे है। देश की गद्दी पर 56 इंच के सीने वाले मोदी जी है तो दिल्ली की गद्दी पर ईमानदारी के पैदा हुए अवतार अरविंद केजरीवाल साहब। अब इन लोगो का इस मौत से क्या ताल्लुक है। तो जान लीजिए सीधा ताल्लुक है। इस दिल्ली में देश को लूटने में लगे सबसे बड़े अस्पतालों को जमीन देने वाली सरकार का सीधा ताल्लुक है अस्पतालों में चल रहे लूट के राज को रोकने में। हॉस्पीटल्स को जमीन दी गई सेवा के लिए। आज देश का हर बड़ा उद्योगपति चाहता है उसका एक अस्पताल हो जिसमें फाईवस्टार को मात देने वाली सुविधा हो। और देश के चुनिंदा ( लूट से हासिल अकूत दौलत उनके पास हो) और ज्यादा से ज्यादा विदेशियों का उसमें ईलाज हो। दिल्ली में लगभग हर हॉस्पीटल को ये जमीन दी गई थी कि अपने विजनेस के साथ साथ गरीब आदमी का ख्याल भी रखे लेकिन जमीन हासिल होते ही उसका रंग गिरगिट की तरह हो गया। उसको गरीब आदमी तभी याद आता है जब उसकी किड़नी छीननी हो या फिर उसका ब्लड़ किसी पैसे वाले के काम आ सकता हो। और सरकार—(हां गरीब आदमी के लिए कानून बनाने वाली कोई चीज) रोज आपको मीडिया में गिड़गिड़ाती, धमकी देती हुई या दूसरे तमाम नाटक करती हुई दिखाई देती है कि ये अस्पताल अगर गरीबों का ईलाज नहीं करेंगे तो उनपर जुर्माना लगा देंगी। हॉस्पीटल्स में जाकर तो देखिये जनाब वहां कितने गरीब लोग लेटे हुए है। ब्यूरोंक्रेट्स के रिश्तेदार गरीबों को मिले बेड़्स पर तफरीह से ईलाज कराते मिल सकते है, कुछ नेताओं के रिश्तेदारों को भी गरीब करार दिया जा सकता है मीडिया में अपनी जुगतबंदी से जगह बनाने वाले कुछ कामयाब लोगो की सिफारिश भी काम कर सकती है। लेकिन गरीबों के 25 फीसदी बेड का वादा किताबों में ही रहा। लेकिन आजतक किसी सरकार ( अगर आजादी के बाद कोई सरकार रही हो तो) की हिम्मत नहीं हुई कि वो हॉस्पीटल्स से उसका लाईंसेस छीनकर उसका अधिग्रहण कर ले या फिर उसको वापस नीलाम कर दे। ऐसा हो भी नहीं सकता है इतनी ताकत किसी सरकार में हो ही नहीं सकती क्योंकि आप और हम जिसको सरकार समझते है वो सरकार है ही नहीं। हमारी वोटो से जीतकर आएँ हुए नेता इतने बौने होते है कि वो अपने सेक्रेट्री से आँखों में आँखें डालकर बात नहीं कर सकते है। क्योंकि वोटो से जीतकर आऩे वाले नेताओं में जातिवादी कबीले के नायक ज्यादा होते है। इनके भोंपूं पत्रकार पूरी उम्र कुछ टुकड़ों को हासिल करने के लिए इन्हें कभी समाजवादी, कभी लोहियावादी, कभी प्रगतिशील या फिर ऐसे ही जाने क्या क्या नाम से छापते रहे। लेकन परिवारवाद के अलावा इनके पास और कोई एंजेंडा नहीं होता। असली सरकार है पर्दे के पीछे। नौकरशाह। वहीं नौकरशाह जो इंग्लिश में बोल सकते है आपके साथ बात करते हुए दुनिया के ऐसे आंकडें पेश कर सकते है कि आपकी आंखें उस देश के विकास से खुली की खुली रह जाएं। वही नौकरशाह जो शाम होते ही किसी गोल्फक्लब  या फिर किसी और क्लब में आपको जाम छलकाते नजर आ जाएंगे। उनके बच्चें दुनिया के सबसे नामी स्कूलों में पढ़ते है या फिर किसी देश में बाप के लूटे गए पैसे को इनवेस्ट करते हुए पाए जाते है। देश के पास ऐसा कोई डाटा अभी नहीं जिसमें ये पता चले कि कितने ऑफिसर्स के बच्चे विदेश में पढ रहे है या फिर सैटल्ड हो चुके है। ये ही लोग सरकार है। ये ही लोग तय करते है कि किस हस्पताल को जमीन देने से कितने पैसे आएँगे। ये ही लोग तय करते है कि किस हाईवे के नेशनल होने से कितना पैसा उनके हत्थे चढ़ सकता है। और ये ही लोग है जो राजनेता को ये समझा देते है कि लाईसेंस कैंसिल करना कोई ईलाज नहीं क्योंकि डॉक्टर से ये ही बतिया कर सौदा कर सकते है।
इस देश में इस वक्त नौकरशाही का खुल्ला खेल पूरे जोर-शोर से जारी है। लूट का अभियान। जांच एजेसियों के हैड्स लूट में शामिल होते है। यूपीएसी के मेंबर बन जाते है। एक आईएएस दस साल पहले रिटायर हुआ लेकिन बोर्ड के अद्यक्ष होते है। कोई आईएएस सलाहाकार होता है। एक देश का होम सेक्रेट्री से घरेलू काम के चलते वीआरएस लेता है शाम को किसी बोर्ड का अध्यक्ष बन बैठता है। खुदा जाने ये नंगा खेल कब तक चलेगा। बात बिट्टू की है लेकिन बात दिल्ली के बड़े दफ्तर में बैठे नौकरशाहों की भी है। और जाने क्यों दिल यही कहता है कि आप इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाओँगे ये अपनी लूट मुक्म्मल होते ही देश के बाहर जाने का इंतजाम कर चुके होते है जहां इनके बेटे, पोते देश के गरीबों के खून को चूसकर इकट्ठा की गई दौलत से अपना एक मुकाम हासिल कर रहे होते है। अलविदा बिट्टू। बस तुम्हारे लिये दुख इतना है कि तुम वापस भी नहीं लौट पाओँगे लूट के इस खेल में लुटने के लिए क्योंकि मां ही चली गई है। लेकिन तुम जैसे हजारों बिट्टू रोज इस व्यवस्था के चलते मां की गोद को सूना कर जमीन की कोख हरी करते है और उनके मां-बाप उनके लौटने का अतंहीन इंतजार करते है।

 वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है 
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है 
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का 
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है 
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले 
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है 
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी 
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई 

Thursday, September 10, 2015

इरफान हबीब साहब आप भी जिंदाबाद है।

औरंगजेब को लेकर काफी लंबी बहस देखी। सोशल मीडिया से लेकर तमाम मीडिया पर। काफी लेख पढ़े। काफी रिपोर्ट देखी। हर रिपोर्ट में औरंगजेब को बेचारा, दयावान. कृपालु साबित करने की काफी मेहनत की गई। लेकिन आज इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख पढ़ा जिसमें इरफान हबीब साहब का जिक्र हुआ। मौजूदा समय के देश के सबसे बड़े इतिहासकार या कुछ ऐसे ही। अपना बहुत कुछ इतिहास में नहीं है। किसान खानदान से ताल्लुक रखते है। घर पर कोई ऐसा पुराना फोटो भी नहीं है जिसमें तलवार के साथ या फिर जवाहरात से सजे हुए या फिर बेहद रौबीले से चेहरे के साथ किसी पुरखे की फोटो हो। सदियों से किसानी-खेती करते हुए मिट्टी को मां मानते हुए साधारण से पूर्वजों का वशंज। इसीलिए किसी राज्य के छीनने का औरंगजेब पर कोई आरोप नहीं लगा सकते है। लेकिन आज इरफान हबीब साहब को पढ़ने के बाद लगा कि साहब इतिहास लिखते वक्त आंखों पर चमरौंधा जरूर लगा होगा धर्म का तो नहीं लेकिन वामपंथ का जरूर होगा। और उसका नतीजा है कि आज क्लबों, और किताबों के बाद वामपंथी अब गोल मार्किट के ऑफिस में नौकरी करते हुए पाएं जाते है। मैंने ये बात कई अपने दोस्तों से भी पढ़ी कि साहब अशोक ने भी अपने भाईयों की हत्या की थी जैसे औरंगजेब ने की थी। मन से वाह निकली। क्या बात कही है साहब। लगता है इतिहास का घोटा आपने ही संभाला हुआ है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था जब बहुत सारे लोगो ने औरंगजेब को महान बताने के लिए जजिया लगाने के लिए पॉलिटिक्ल कारण गिनवाये, बहुत ने मंदिर गिराने को भी बहुत से राजनीतिक कारण गिनवाएं कोई निराशा नहीं हुई। निराशा हुई आज का लेख पढ़ने के बाद जब इरफान हबीब को अशोक और औरंगजेब को एक करते हुए देखा।जनाब क्या कलिंग युद्द के बाद अशोक के किसी युद्द का जिक्र आता है। क्या सत्ता हासिल करने या सत्ता को बढा़ने के लिए फिर अशोक ने कोई तलवार उठाई। क्या अशोक ने बौद्ध धर्म धारण करने के बाद दूसरे धर्मों पर टैक्स लगा दिया। क्या अशोक ने दूसरे धर्मों के धर्म स्थान गिरा दिए। क्या किया था अशोक ने इरफान साहब मैं इतिहास से अनभिज्ञ थोड़ा सा जानना चाहता हूं। धर्म को लेकर इस देश में जो राजनीति चल रही है वो सिर्फ देश को खतरे के निशान की ओर ले जा रही है। और इसकी बड़ी जिम्मेदारी आप जैसे महान लोगो के ऊपर है जिन्होंने पूरे इतिहास में कॉस्मेटिक चैंज करके सोचा कि इतिहास में सब कुछ ठीक ठाक कर दिया गया। इतिहास को इस तरह से लिखने की कोशिश हुई कि वाचिक परंपरा या फिर लोक परंपरा से पूरी तरह से उलट हो गया ये इतिहास। इतिहास को वर्तमान बनाने की कोशिशें हमेशा खतरनाक होती है। और इतना ही खतरनाक है है इतिहास को इतिहास न रहने देना। गांव गांव में औरंगजेब की कहानियां है वाचिक परंपराओं में उसकी छवियां बनी हुई है उनको नाम मिटाने या नाम के बहाने उसको महान सम्राट बनाने की कोशिशे भी खतनराक है। और जो लोग इसके पीछे धर्म का आधार देख रहे है वो सब इतिहास के झूठे रूप को अपने ऊपर लादकर महान बनना चाहते है। ( इसको कोई व्यक्तिगत न ले। अपना मकसद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर फर्जी दुकान चलाने वालों से बात करना है)

Saturday, September 5, 2015

बहोत आरजू थी गलीकी तेरी सो या से लहूं में नहा कर चले।


 बचपन में गांव में कभी कभी तांगे में बैठकर जाते वक्त बेहद सजे-धजे कुछ लोग मिलते थे। आंखों में काजल, बालों में तेल और करीने से की गई कंघी। सफेद कुर्ता-पाजामा या फिर सफेद कमीज और सफेद पैंट के साथ सफेद जूते। बहुत तेज इत्र या फिर सेंट पर्फ्यूम लगाएं हुए लोग पूरा तांगा बुक करते थे। हाथों में दो तीन काफी बड़े ब्रीफकेस जो आमतौर पर काफी चमकीले और देश में मिलने वाले ब्रीफकेस से अलग दिखते थे। बचपन जिज्ञासाओं से भरा होता। अपने साथ वाले से पूछता था कि ये कौन है तो पता चलता है कि ये सऊदी से काम कर के छुट्टियों में लौटे है। गांव भर तक उनकी ही बातें। जैसा कि अमूमन हर गांव में पाया जाता है कि मुस्लिम और हिंदुओं के घर अलग-अलग मोहल्ले  होते है। तो गांव में स्टैंड से तांगा अलग गली चला जाता था। रास्ते भर अरब के उस देश की सृमद्दि की कहानियां से सपने ही सपने आंखों में जगते जाते थे जिस देश से वो यात्री लौटा होता था। सोने के नल है, पेट्रोल या डीजल किसी के पैसे नहीं देने पड़ते। कानून का राज है। कोई चोरी नहीं है। हर तरफ ऐशो-आराम ही ऐशो आराम है। लगता था कि जन्नत से सीधे चला आ रहा है मेरे गांव का फ्लाने का लौंडा। फिर स्कूल की किताबों से अलग हट कर कुछ पत्रिकाएं भी पढने के लिए मिलने लगी। ऐसी कहानियों की भरमार वाली जहां अरब देशों के शेखों की कहानियां ऐसे आती थी जैसे कुबेर उनके यहां गुलाम की हैसियत से रहता हो। ब्रूनेई के सुल्तान का सोने का महल। हजारों एकड़ के महल में सोने की टकियां सोने के पाईप्स , एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मोटरसाईकिलों का इस्तेमाल। ऐसी कहानियों ने मुझे काफी आकर्षित किया। फिर शेखों की हैदराबाद में अमीना के साथ मुत्ताह जैसी प्रथाओं ने भ्रम तोड़ने शुरू किये। इस तरह की खबर अचानक जमीन पर आ गिरने वाली खबर थी। ऐओ आराम की दुनिया में रहने वाले लोगो का एक और चेहरा सामने आने लगा। फिर धीरे धीरे जानकारियां भी हासिल होने लगी कि हिंदुस्तानी वहां जाकर किस पोजिशन पर काम करते है। लेकिन फिर भी हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था में इन मजदूरों का योगदान और घर के लिए कमा कर लाने की हकीकत भी सामने रही। लेकिन धीरे-धीरे गांव से वहां जाने वालो की संख्या कम दिखने लगी। शहर में भी सरवट से लेकर बागोवाली तक जाने वाले रिक्शाओं में वो बड़े बडे़ ब्रीफकेस दिखने बंद हो गए। और धीरे-धीरे फ्लाने के लड़के के सऊदी जाकर पैसा कमा कर लाने की कहानियां से चौंकना बंद हो गया। और धीरे धीरे उन कहानियों में खून, खुरेंजी, और ऐय्याशियों की कहानियां आनी शुरू हो गई। अरब देशों की कहानियों से अभिभूत लोगो की बातों में वो एक ऐसी जन्नत है जहां हिंदुस्तानियों को रोटी मिलती है, इस्लाम का परचम फैलाया जाता है। अरब के दो ही चेहरे दुनिया के नक्शें पर मिलते है एक तो हिंदुस्तान के गांव और शहरों में  फैला हुआ है जिसमें हिंदुस्तान जैसे दुनिया के अलग देशों के लोगों के रोटी की तलाश में  वहां जाने  की कहानी के साथ एक गर्व होता है। मैं ऐसे कई लोगो से मिला था जो पहले तो इस्लाम के नाम पर उस धरती ऊंचाईयों की कहानी गर्व से सुनाते है और फिर अपने साथ होने वाले व्यवहार की बात बड़ी दबी जुबां से बताते  है। लेकिन इस बीच अरब से निकले आतंकवादियों की कहानियों ने दुनिया के पन्नों पर अपनी कहानी लिखनी शुरू कर दी। और जेहाद के नाम पर रूस से लड़ने की कहानी शुरू हुई। रूस के खिलाफ इस जेहाद में शैतान यानि अमेरिका से मदद लेने में कोई गुरेज नहीं हुआ इन धार्मिक योद्दाओं को। अरब से तोहफे में मिले बिन लादेन ने इस जेहाद में बड़ी भूमिका निबाही। उस वक्त के मीडिया में या फिर आम आदमी की चर्चाओं में बिन लादेन एक ऐसा अरबपति था जो उम्मा के लिए दुनिया के ऐशो-आराम को लात मारकर धर्म के लिए लड़ने पहुंचा। रूस अफगानिस्तान से निकल गया तो इस जीत को जेहाद की जीत माना गया। और बदले में अफगानिस्तान को मिला एक ऐसा देश जो शरिया के आधार पर चलता है। और तालिबान एक ऐसी जन्नत उतार कर लाए जिसमे रहने वाले लोगों ने मौत से पनाह मांगना शुरू कर दिया। ( वो लोग जो तालिबान के शरिया को समझ नहीं पा रहे थे और ये एक बड़ा वर्ग था)तालिबान या मुजाहिदीन  को अरब से मदद मिली।  लेकिन अफगानिस्तान से शरणार्थियों की एक ऐसी फौज निकली जिसने किसी भी पड़ोसी देश में पनाह लेनी शुरू की किसी भी हालत में।  खैर वहां क्या हालात है सबको मालूम है। इसके बाद वापस चलते है अरब की दुनिया में। ईराक, लीबिया, ट्यूनिशिया,  और आखिर में सीरिया। इन सब देशों में धर्म के नाम पर ऐसी तबाही मची हुई है कि ये दिखना बंद हो गया कि कहां  इंसानियत बची हुई है। और इन तमाम देशों से ही इंसानी पलायन इतिहास के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दे।  जन्नत और हूरों की तलाश में लगे हुए लड़ाके इस वक्त देश में अपने से अलग खड़े हुए लोगो को जो जुल्मों-सितम कर रहे है उसकी मिसाल तो इतिहास में भी मिलना मुश्किल हो जाएंगा। सबसे बड़ी त्रासदी है कि वो लोग इतिहास को मिटा देना चाहते है। वो इतिहास जो 570 ईस्वी से पहले का हो। ऐसी  हर चीज को वो लोग मिटा देना चाहते है जिससे उनको इतिहास की बू आती हो। और इसी विनाश का शिकार हो रहे है वहां रहने वाले मासूम और बेगुनाह लोग।  और जो भी इसके विरोध में है या विरोध में होने का शक है उसको इस वक्त मध्ययुगीन तरीकों से दर्दनाक मौत के घाट उतारा जा रहा है। नफरत का ऐसा जलजला शायद ही सभ्य दुनिया में देखा  गया हो। नाजियों के अत्याचारों को पीछे छोड़ रहा है अरब का ये संकट। लेकिन अपनी कहानी फिर वही कि वो अरब कहां है जहां के अरबपतियों के जेट अमेरिका के हवाई अड्डो पर खड़े रहते है कि शेख साहब जाने कब घूमने के लिए चल दे। वो अरब कहां जहां सोने और चांदी के नल है। वो अरब कहां है जहां दुनिया के लोगो को रोजगार दिया जाता है।  बात किसी एक धर्म की नहीं हो सकती है लेकिन इस वक्त अरब मे जो संकट दिख रहा है उसमें किसी दूसरे धर्म का कोई स्टेक नहीं है। वहां सिर्फ इस्लाम के अऩुयायी है। और उन्हीं अनुयायियों में  से कुछ को उनके विश्वास के आधार पर दूसरे अनुयायी मौत के घाट उतार रहे है। सेक्स के लिए गुलाम बनाई जा रही है औरते , मासूमों को आग पर भूना जा रहा है, सैकड़ों लोगो के सर कलम कर उसके वीडियो बनाए जा रहे है। लेकिन इसमें कही अरब नहीं दिख रहा है। अरबों रूपए से दुनिया भर में इंसानी इमदाद चलाने वाले अरब कहां है जो इस वक्त अपनी ही धरती पर इस विनाशलीला को देख कर कोई हरकत नहीं कर रहे  है। हर बात पर अमेरिका को शैतान बताने वाले लोगो ये बता दो कि अयलान के मां-बाप को क्यों भागना पडा वो भी एक इस्लामी देश से पाप की खान पश्चिम देशों की ओर। पूरा अरब भाग कर यूरोप या फिर अमेरिका क्यों जाना चाहता है। और हैरानी और परेशानी दोनो ये है कि अरब में तबाही मचा रही विचारधारा से भले ही वहां लोग जान बचा कर किसी भी कीमत पर भाग रहे हो उस विचार धारा को दूर दराज के देशों में बहुत समर्थक मिल रहे है। इसीलिए ये मान लेना कि अयलान की मौत की तस्वीर इंसानियत की मौत की आखिरी तस्वीर है पूरी तरह गलत होगा।  हम लोगो को अयलान जैसे बेगुनाहों की मौत की और तस्वीरें मिलती रहेगी और वो अरब जो हिंदुस्तान जैसे देशों के लोगो को रोजगार और गर्व देता है एक मृगतृष्णा ही बना रहेगा।  और यहां से अयलान जैसे मासूमों की मौत की कहानियां मीडिया की सुर्खियां बनी रहेगी।

Friday, September 4, 2015

अयलान का यूं जाना
एक तस्वीर अगर कयामत को बता सकती है तो फिर ये वही तस्वीर है। आप की आंखों के सामने एक तीन साल का बच्चा बेहद खूबसूरती से संवारें हुए बाल, मां के प्यार से पहनाएं हुए कपड़ों और लंबे सफर के लिए पहनाएं गए जूतों के साथ समुद्र के पास सो रहा है। दिखने में लगता है कि शरारत से समुद्र के किनारे लेटा हुआ बच्चा इंतजार कर रहा है कि कब मां अपनी गोद में ले ले। लेकिन ये नींद अब कभी नहीं खुलेगी।  ये वो आखिरी नींद है जो अयलान को सौ साल बाद आनी थी। एक बेहद मासूम बच्चे की लाश  का वजन समुद्र को भी बेहद भारी लगा। बेहद शाईस्तगी के साथ समुद्र की लहरे भी अयलान को जिंदा तो नहीं लेकिन मुर्दा हालत में उसी किनारे के पास छोड गई जहां इंसानों पर अयलान को जिंदा रखने की जिम्मेदारी थी।  अयलान की मां और बड़े भाई को समुद्र ने अपनी लहरों में कही छिपा लिया लेकिन अयलान की मासूमियत से पिघली लहरों ने अयलान को शायद बचाने की आखिरी कोशिश की होगी। क्योंकि पहली कोशिशें तो बाप- मां एक युद्द से तबाह जमीन से दूसरे देश में पनाह लेने की थी। अयलान महज तीन साल का था। इन तीन सालों में खींची गई उसकी तस्वीरों ने मां-बाप के सीने में प्यार की लहरे पैदा की थी। तो अयलान की ये आखिरी तस्वीर पूरी दुनिया के दिलों में एक खौफ पैदा कर रही है। शांत लेटे अयलान की चीख सारी दुनिया के कानों के पर्दों को चीर रही है। एक प्यार में लिपटा हुआ दर्द। दुनिया के इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब किसी एक तस्वीर ने इंसान के शैतानी चेहरे को दुनिया के सामने नुमाया किया। लेकिन आतंकवाद और आपसी युद्दों में उलझी दुनिया के चेहरे पर ये तस्वीर उसकी नंगई का अब तक का सबसे बड़ा सबूत है।

Thursday, September 3, 2015

गंदगी में लहालोट बाडा और बाड़े के मालिक नौकरशाह--



बचपन में गांव में गर्मियों की छुट्टियां बीतती थी। रात में सोते वक्त अक्सर गांव के दूसरे सिरे पर बजते ढोल से नींद खुल जाती थी। दिन भर गांव में बसने वाले बच्चों से सुनी डायन, सिरकटे भूत और जिन्नातों की कहानियों से रात में बिस्तर में सहमे पड़े हुए ये ढोल और भी रहस्यमय और डरावने सुनाई देते थे। एक रात डर से कांप रहा था तो ताऊ से पूछ लिया कि ये आवाज किसकी है। क्योंकि मेरा एक दोस्त पहली रात बता चुका था कि डायनों ने किसी जिंदा बच्चें को पकड़ लिया और उसका खून पीने से पहले के महोत्सव का ढोल बज रहा है, मैं उसकी बात तो ताऊ जी से पक्की कराना चाहता था। ताऊ जी जवाब दिया कि किसी दलित की सुअरी ने बच्चे दिए होगे, मेरा डर फौरन काफूर हो गया और डर की जगह अचरज भर गया। मैंने लड़का होने पर थालियां बजाने की बाते तो पढ़ी और सुुनी थी लेकिन सुअरी के बच्चे होने पर ढोल बजाने की बात मेरे लिए नई थी। मैंने फिर पूछा कि सुअरी के बच्चे होने से ढोल बजाने का क्या रिश्ता तो उन्होंने कहा कि ज्यादा बच्चे दिए होगे। अगला सवाल था कि ज्यादा बच्चे तो भी ढोल क्यों तो ताऊ जी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा कि जितने बच्चे बढ़ेगे उतने बिकेगे, कटेंगे और मालिक को फायदा होगा। सालों बाद ये बात जिंदगी की लाखों ऐसी बातों के साथ यादों के गर्त में चली गई जिनके संदर्भ की कभी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन पत्रकारिता के दौरान जगह जगह देश के हालात देखने के बाद एक दिन अचानक ये बात याद आई। देश की आबादी पर किसी को बात करने जरूरत नहीं। कभी किसी धर्म के नाम पर तो कभी उस धर्म के विरोध के नाम पर सवालों के जवाबों से बचा जाता रहा। लेकिन अपनी ही गदंगी में लहालोट ये देश एक बाड़े में तब्दील होता गया। लेकिन इस बाड़े का मालिक कौन है। पहली नजर में किसी भी हिंदुस्तानी से देश की इस हालत का जिम्मेदार पूछोंगे तो वो एक क्षण में जवाब देगा कि राजनेता। ये बेहद सरलीकृत जवाब है और इस जवाब से किसी के चेहरे पर छाई मुस्कान अगर गाढ़ी होती है तो वो है नौकरशाह। देश में नौकरशाहों को नेताओं को गाली देता हुआ मीडिया और हालात के लिए भ्रष्ट्र और नाकारा राजनेताओं को कोसती आम जनता बेहद रास आती है। लेकिन अगर कोई जरा सी भी गहराई में जाने की कोशिश करता है तो वो समझ जाएंगा कि बाड़े के मालिक राजनेता नहीं बल्कि बेहद देशभक्त और निरीहता का चोला ओढ़े नौकरशाहों का जमघट है। पांच साल बाद राजनेता जनता के गुस्से का शिकार होकर धूल चाटता दिखाई देता है। लेकिन नौकरशाह हमेशा पदोन्नति लेता हुआ, जनता के पैसो पर ऐश करता हूआ और इसके बाद लूट में मिली( अपना निशाना नौकरशाहों में उन पर जो अपनी करतूतों से देश की जनता के सामने नुमााय हुए है) अपनी संपत्ति को विदेशों में सेट करता हूुआ अपने बच्चों के साथ मस्ती में देश सुधार के कार्यक्रम बताता रहता है। पिछले कुछ समय से एक के बाद एक लूट की कहानी देखताा हूं एक के बाद एक नेता को जनता की नजरों में हीरो से जीरो बनता देखता हूं और फिर वोट के मैदान पर अपनी मौत मरते हुए भी। लेकिन इस लूट की पूरी स्क्रिप्ट लिखने वाले नौकरशाह मजे से अपनी नौकरी करते रहते है। इस वक्त पूरे देश में लूट की छूट चल रही है। नौकरशाह रिटायर नहीं हो रहे है। एक कैबिनेट सेक्र्ट्री रहने के बाद किसी बोर्ड का अध्यक्ष बनता है तो कोी रिटायर होकर आयोग का मेंबर। एक के बाद एक कंपनियों को देश की जनता का खून बेचकर हासिल की गई संपत्तियों से अपने बच्चों को विदेशों में सैटल कर इस देश को उपनिविश की तरह इस्तेमाल कर रहे ये नौकरशाह बड़ी आसानी से बौने से कबीलाईं नेताओं को ये यकीन दिला देते है कि पैसा कमाने से ब़़ड़ी देश सेवा कुछ नहीं है लिमिटेड टाईम है लूट सको उतना लूटो पैसा ठिकाने लगवा देंगे। मैं आजतक नहीं समझ पाया कि महज कुछ करोड़ रूपए का रिटर्न फाईल करने वाले मर्सिडीज बेंज में कैसे घूमते है। समाजवादी चिंतक और राष्ट्र के महान नेता ( चमचो की भीड़ नहीं चमचों में तब्दील मीडिया ने ऐसा ही कहा है) मुलायम सिंह यादव जिस गाड़ी से चलते है उसकी कीमत कितनी है ये 10 साल का वो बच्चा बता देंगा जो किसी पब्लिक स्कूल में पढ रहा है। लेकिन ये एक नाम भर है। लूट का ऐसा तंत्र किसी और ने नहीं बल्कि नौकरशाहों ने खड़ा किया है। जो भी पत्रकार सरकार कवर किया है वो जानता है कि दफ्तर में नौकरशाहों के सामने रखी फाईल का पन्ना पलटने के लिए भी एक सहायक खड़ा होता है। जो किसी पेज पर साईन करने के बाद फिर से अगला पेज पलटता है। पानी एक घंटी पर हाजिर, चाय एक घंटी पर हाजिर। बच्चों के लिए कुत्तों की तरह से दौडते नौकर। गजब का लोकतंत्र पसरा हुआ है देश में। अभी हाल में एक और हैरानी हुई। एक नौकरशाह से बात कर रह थे। देश के बिना ताज के बादशाह की भांति अपने कमरे में बेहतरनी सोफों और एसी से घिरा वो नौकरशाह देश प्रगति की मिसाल गिना रहा था कि इसी बीच बाहर बैठने वाला चपरासी आया और साहब के बैग से एक पैकेट निकाला दवाई निकाली और पानी के साथ साहब को दे दी। साहब ने दवाई ली और अपना भाषण दोबारा से शुरू कर दिया। इस सीन को देखते ही बचपन में सुनी वो बात याद आ गई कि जितने बढ़ेगे उतने कटेंगे और मालिक को फायदा देगे। ये सेक्रेट्री, ये नौकरशाह क्या देश का भला करेंगे जो अपनी दवा के लिए नौकर रखे हुए है। अब सवाल ये ही है कि क्या बाड़े में गंदगी मे डूबे हम लोग कभी खड़े हो पाएंगे। और इन बिना ताजों तख्त के देश पर राज कर रहे नौकरशाहों से कोई सवाल पूछ पाएंगे।
तुम्हारी आँखों में कोई सम्वेदनाएँ नहीं
न सत्य तुम्हारी बातों में
न ही आत्मा तुम्हारे भीतर
मज़बूत हो जा, ओ हृदय, पूरी तरह
सृष्टि में कोई सृष्टा नहीं,
न ही प्रार्थनाओं में कोई अर्थवत्ता !
फ्योदर त्यूत्चेव

मुंबई मेरी जान

मुंबई मेरी जान।
वो रोशनी की मीनार है। उसकी रोशनी की चकाचौंध में खो कर हजारों वहां पहुंचते है लेकिन जो भी लोग उस मीनार को छूते है वही अंधेंरों में गुम हो जाते है। बात इंसानियत की करना तो दूर की बात है इंसानी रिश्तों को जैसे जहरबाद हो जाता है। एक और नई कहानी। एक और नया अपराध। एक और पतन की मिसाल। शीना बोरा की कहानी क्या कहती है। पहली बात जो उससे निकलती है वो है कि इंसानी रिश्तों को लेकर लिखी गई कोई भी स्क्रिप्ट आखिरी नहीं होती है । इंसानी दिमाग में कई परतें होती है और किसी भी पर्त में अंधेरे कितने होते है आप बता नहीं सकते है। शीना बोरा बहन थी, बेटी थी, या जाने कुछ और थी। ये कहानियां आप को मीडिया बता देगा। मीडिया हवा में सूंघ कर वो तमाम रास्तें आपतक पहुंचा देगा जिन से कभी शीना बोरा या फिर इंद्राणी बोरा या फिर परी बोरा या फिर चमचमाती नियान लाईटों में खोयी हुुई महत्वाकांक्षाओं की एक निर्मम तस्वीर जो चलती फिरती थी। मुंबई में कई स्क्रिप्ट राईटर अब पुलिसवालों के इर्द-गिर्द मंडराने लगेगे क्योंकि इस कहानी में कई मोड है, भावनाओं है, सेक्स है, और रिश्तों में सेक्स है अंधी वासना है, और निर्वसन कल्पनाओं के साथ एक मीडिया है। जिसके महारथियों को संजय दृष्टि मिल गई होगी जो शीना और राहुल की कहानियां देख और सुन पा रहे होंगे। शीना का कोई रिश्ता कही और भी जोड़ने की कोशिश हो रही होगी। लेकिन अपनी नजर में सिर्फ लाईमलाईटों में जड़ गए अंधेरों की कहानी का एक और पन्ना है। वहीं लाईंटे जो आपकी आंखों को चौंधियां देती है और रोशनी के होते हुए भी आप अंधें होते है।
खुदा जाने ये दुनिया जल्वा- गाह ए नाज़ किसकी
हजा़रों उठ गए लेकिन वही रौनक़ है मज्लिस की।
मुंबई मेरी जान -2
शहर अपनी ज़मीन अपनी सड़कों के पत्थरों तक बेवफाई में डूबा हुआ है। यह चोर गडढों का शहर है। यहां रास्ता भटक जाना , खो जाना सबसे आसान काम है। यह गुमशुदा और मुर्दों का शहर है, ेक हैरतअंगे़ज तौर पर उदास शोकगीत। समय और अपने स्थान की ओर वापस जाने के दौरान रूक-रूककर खून बहाती एक याद। हमारे देखते देखते विनाश गहराता जाता है और शहर क्रुद्ध होकर खु़द को इतिहास के रूबरू ला खड़ा करता है और खु़द को मेले में बदल लेता है। (इंची अराल) एक तुर्की उपन्यास में इंची अराल ने शहर का जिक्र कुछ यूं किया था। इस वक्त मीडिया में इंद्राणी है, वही इंद्राणी जिसके लिए इतनी कहानियां मीडिया कह रहा है। अपनी हर तरीके की कुत्सित कल्पनाएं इंद्राणी की दुनिया के आस-पास बुन देगी मीडिया। लेकिन इस सबके बीच एक शहर की अनदेखी दुनिया खुलती चली जाती है। देखी हुई दुनिया इस लिए नहीं क्योंकि आम आदमी के सुख-दुख लगभग हर शहर में एक जैसे हो जाते है। मुंबई को देश में सपनों का शहर कहा जाता है। 70 एमएम का पर्दा जैसे पूरी आबादी के जेहन पर छा गया। हर हालत में सफलता और सफलता इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। इतनी बार मुंबई की सड़कों पर घूमा हर बार एक जैसी कहानी। सपनो में खोए लोग। सपनों में गुम और तन्हा लोग। सपने और तन्हाई में जूझने के बाद जो भी सामने आता है उसका इस्तेमाल करना एक फितरत में बदल जाता है।
मीडिया और मुंबई मेरी जान--3
"नैतिकता कैसी ? हम जैसे लोगो का काम दुस्साहसों दुर्लभ चीज़ों और मस्ती के बग़ैर नहीं चल सकता है। मैं,तुम, तुम्हारे रिश्तेदार, हम सब लुटेरे है , हरामजादों का गुट है।""जो चाहिए उसे पकड़ लो, उसे बिखेरो, उसे उछालो,उसे फेंकों, अपनी ज़िंदगी जियो, उसने सोचा क्योंकि जहा भी कोई मायने ढूंढने की उम्मीद करो, वहां मायने मिलते नहीं है। जब आपको लगता भी हो कि मायने है, तो वे आपके लिए सही नहीं होगे या जल्दी ही गायब हो जाएंगे। भविष्य के बारे में मत सोचो क्योंकि इस दुनिया का तल नर्क है, स्याही की तरह काली रात।"
"अब मुझे भविष्य की कोई चिंता नहीं है। यह अपने मायने खो चुका है, या शायद जिस भविष्य की मुझे इच्चा है अब उसका कोई वजूद ही नहीं है।" इंची अराल
कहानियां तब तक चलती है जब तक सुनने वालों की दिलचस्पी उनमें बनी रहती है। जैसे जैसे कहानियां संदर्भ खोने लगती है उनकी लय खोती है वो गुम हो जाती है। आज कहानी शीना बोरा है। आज कहानी है इंद्राणी है। आज कहानी है उनके आसपास गूंज रही है। जो भी उनसे मिला था मीडिया उसके चरित्र की चिंदी-चिंदी करके हवा में उछाल देगा। मीडिया बड़ी ब्रेकिंग देंगा- सैंडविच खाया इंद्राणी ने। इस खबर के खुलासे के कई रहस्यों पर से पर्दा उठ गया। चैनल चूक गया नहीं तो सैंडविच के शैफ से ये इंटरव्यू नहीं दिखाया कि भाई आपने जो सैंडविच बनाया और जो सिर्फ हमारे चैनल ने ही इंद्राणी को खिलाया उसमें सच बोलने वाले मसाले भी डाले है। और रिपोर्टर ने सैंडविच को बनाने की पूरी विधि टीवी पर नहीं दिखाई। सच की तलाश तेजी से होनी चाहिए। जी हां इसी तरह से देश की आबादी का रैफरेंस काम कर रहा है। देश के बाकि स्तंभ अपनी जड़ों को खो चुके है और इस रहा तो बहुत तेजी से पूरा किया है इस तथाकथित स्तंभ ने। खैर कहानी मुंबई की। कहानी में खूबसूरत लड़की है। कहानियों में कुत्सित कल्पनाएं है जो मन में जीता हूआ एक समाज जुबान पर नैतिकता की कहानियां लिए घूमता रहता है। एक के बाद एक रिश्तों की कहानियां खुल रही है।किसी टीवी चैनल पर अब तक नहीं मिला उस अधिकारी पुलिस कर्मचारी या किसी और संबंधित सरकारी कमर्चारी का बयान जिसने 2012 में एफआईआऱ नहीं लिखी। जिसने लाश मिली तो तलाश की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि उसमें सेक्स नहीं, वासना नहीं , और ऱिश्तों को कलंकित करती हुई कहानियां नहीं है। टीवी दर्शक देखे ना देखे ऑफिस में बैठे लोगो को ये भाती है। क्योंकि आस-पास की दुनिया में उनको इसकी झलक मिलती है वो या तो इनमें खोना चाहते है या फिर हिस्सा न मिल पाने की वजह से दुख और हताशा में गालियां देते है

औरंगजेब के समर्थन की आवाज और सेक्यूलर होने की होड़।



इतिहास किसी भी कौम, इंसान, या जमीन इन सबके लिए सबसे अहम चीज होता है जो इस दुनिया में अतीत से वर्तमान का रिश्ता जोड़े रखता है और भविष्य का रास्ते का पता दिखाता है इस तरीके से कि कौम, देश या जमीन किस तरह से इतिहास को स्वीकार कर रही है। अभी कुछ दिन पहले एक सड़क का नाम बदला गया। नाम था औंरगजेब। तब से मैंने देखा कि कुछ लोगो को अचानक इतिहास और किंवदंतियों की याद आने लगी। मैंने कुछ पोस्ट पर चलती हुई एक इतनी मासूम बहस देखी कि मन किया खुशी से रो दूं कितने सेक्युलर और इतिहास प्रेमी दोस्त है। लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं इतिहास की किताब का छोटा सा वर्णन लिख दूं और उन सेक्यूलर के नाम पर एक खास किस्म की घृणा में योगदान देने वाले दोस्तों के जानकारी के लिए ये भी बता दूं कि ये वही किताब है जिसमें आक्रमणकारियों को काफी सेक्यूलर बताया गया है यानि अपने सम्माननीय इतिहातकार वी डी महाजन की चाहे तो बाजार से खरीद कर पढ सकते है।
"औरंगजेब की धार्मिक संकीर्णता ही असफलता का सबसे बड़ा कारण थी। उसे सुन्नी इस्लाम में आस्था थी और इसके नियमों का कठोरता से पालन करता था। इतना ही नहीं, वह सुन्नि इस्लाम का प्रचार करना अपनी समस्त प्रजा के लिए लाभदायक समझता था। उसने हिंदुओं, सिक्खों को ही नहीं, शियाओं का भी उत्पीड़न किया। इस धार्मिक संकीर्णता के कारण ही साम्राज्य की एकता नष्ठ हो गई। उसने अपनी प्रजा को विभाजित कर दिया जिससे विद्रोह होने लगे और जिससे अंतत साम्राज्य नष्ठ हो गया। उसकी राजपूत नीति भी विफल हो गई। अपनी धार्मिक नीति के क्रियान्वयन में वह राजपूतों को बाधा मानता था।"
- उसने कुटिलता को अपनी राजनीति माना। प्रशासक के रूप में वह स्वयं को सुन्नी मुसलमानों का शासक मानता था। गैर मुसलनानों से घृणा करता था। अत: उसके प्रशासन का आधार ही घृणा और विद्वैष था। उसने पूरी शक्ति दक्षिण को जीतने में लगा दी लेकिन वह दक्षिण को जीत नहीं पाया।
विंसेंट स्मिथ- जब शासक के रूप में उसका परीक्षण किया जाएगा तो असफल ही घोषित करना पडेगा।
प्रो- जदुनाथ सरकार- इस प्रकार का शासक राजनीतिज्ञ नहीं कहा जा सकता। राजा की हैसियत से वो नितांत असफल था। उसमें कोई ऐसा गुण नहीं है जिससे भावी संतान उसकी गणना महान सम्राटों में कर सके। उसके संपूर्ण शासनकाल का परिणाम पूर्ण सत्यानाश और आपदा थी।
औरंगजेब की शसननीति-
औरंगजेब ने कुछ समय बाद शासन की विस्तृत नीति घोषित की। पूर्व मे उसने दारा के विधर्मी कृत्यों की आलोचना की थी और इस्लाम की रक्षा का नारा दिया था। अत इस दिशा में कुछ कार्य करना भी आवश्यक था। इस दिशा में उसने कुछ फरमान जारी किये थे। उसमें से कुछ नीचे है।
1.सिक्कों पर "कलमा" अंकित करने की प्रथा बंद कीजिससे काफिरों के हाथों में जाने से यह अपवित्र न हो सके।
2.नौरोज का उत्सव मनाना बंद कर दिया गया क्योंकि ये गैरइस्लामिक प्रथा थी।
3. मुसलमान कुरान के मुताबिक आचरण करे और धर्म विरोधी आचरण न करे इसके लिए निरीक्षक की नियुक्ति की गई।
4. मस्जिदों. खानकाहों की मरम्मत कराई गई और राजकीय वेतन पर इमाम, मुअज्जिम, खतीब नियुक्त किए गए।
5.शाही दरबार में संगीतज्ञ ऱखने की प्रथा बंद कर दी।
6. तुलादान की प्रथा बंद कर दी क्योकि ये हिंदु प्रथा थी।
7. दरबारियों के प्रणाम करने की हिंदु प्रथा बंद की और आदेश दिया कि सभी दरबारी सलाम- अलै- कुम का प्रयोग करेंगे।
8. हिंदु राजाओं के तिलक करने की प्रथा बंद कर दी। अकबर ने यह प्रथा शुरू की थी। इसी वर्ष जजिया फिर से लगा दिया गया।
9. झरोखा प्रदर्शन की प्रथा बंद कर दी क्योंकि ये हिंदु प्रथा थी।
10. दरबार में हिंदु उत्सवों का मनाना बंद कर दिया।
उुसके शासन का आधार कुरान था।उसे विश्वास था कि उसका पवित्र कर्तव्य शरियत का राज्य स्थापित करना और इस्लाम की सेवा करना है। उसका कहना है एक आस्थावान मुस्लिन के लिए ईश्वरीय मार्ग में जेहाद ही सर्वोत्कृत्ट कर्त्वय है। कुफ्र को समाप्त करना तथा दार-उल-हर्ब को दारू-उल-इस्लाम बनाना इस्लामी राज्य का आदर्श था। गैर- मुस्लिम को कुछ शर्तों पर ही जिम्मी की स्थिति प्राप्त हो सके।
ये इतनी बड़ी कहानी है पूरे तौर पर मंदिरों को तोडने की नीति लागू की गई। और जिस बनारस के मंदिर की कहानी ये झूठे और मक्कार सेक्युरिज्म के नाम पर सुना रहे है उसकी हकीकत भी इतिहास की किताबो में है।
1659 में बनारस के पुजारी को बताया था कि उसका धर्म नए मंदिर बनाने इजाजत नहीं देता है और साथ ही पुराने मंदिर तोड़ने की आज्ञा भी नहीं देता। लेकिन उसने इस सिद्धांत का पालन नहीं किया और कुछ ही वर्षो में उसकी असहिष्णुता पूरे तौर पर प्रकट होने लगी।
1644 में उसने गुजरात का चिंतामणि मंदिर के साथ ही दूसरे मंदिरों को तुडवा दिया।
दक्षिण में उसने खांडेराव का मंदिर तुड़वा दिया था।
1669 में एक आदेश दिया कि काफिरों के सब मंदिर और शिक्षालयों को गिरा दिया जाए।और उनकी धार्मिक प्रथाओं को दबाया जाए। इसको क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक परगने में विशेष अधिकारी भेजे गए और सूबेदारों को कहा गया कि इसके क्रियान्वयन की रिपोर्ट भेजे। इस कार्य के निरीक्षण के लिए एक दरोगा नियुक्त किया गया।इस आदेश के अंतर्गत प्रसिद्ध मंदिरों जैसे सोमनाथा का दूसरा मंदिर, बनारस का विश्वनाथ मंदिर.मथुरा का शवराय मंदिर नष्ट कर दिये गए। मुगलो के मित्र जयपुर आदि राज्यों को भी नहीं छोड़ा गया वहां भी मंदिर तोड़ दिये गए।
ये सिर्फ कुछ इतिहासकार है जो इस शख्स की धार्मिक कट्टरता को इशारे से बता रहे है। जनश्रुतियो में जाने की जरूरत नहीं है। इसकी कहानियां गांव-गांव में बिखरी हुई है। लेकिन कुछ सेक्युलर दोस्त जिनका इतिहास से रिश्ता घृणा का है। जिनको अपने होने में शर्म होती है और अतीत को काटकर वर्तमान की कहानी सिर्फ दिखती है वो किंवदंतियों को अपनी पोस्ट पर लिख रहे है। हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि हमने एक ऐसे देश के तौर पर अपनी पहचान बनाएं रखी जहां कट्टरता ने बहुसंख्यकों के दिल में घर नहीं की लेकिन अगर कट्टरता कही से दिख रही है उसके जिम्मेदार ये महान सेक्यूलर दोस्त है जो औरंगजेब का नाम बदलने से अपनी चूलें हिलना मान रहे है। मेरी समझ से सेक्यूलर होना इतिहासद्रोही होना नहीं होता है। इतिहास को बदलना बड़ा मुश्किल है मेरे दोस्तों इतिहास से सबक सीखना सीखों।
सेक्यूलर का मतलब है रेशनल होना नाकि किसी भी गलत बात के समर्थन में खड़े होकर नारे लगाना।
( इन तथाकथित सेक्यूलर दोस्तों से हाथ जोड़कर माफी मांग रहा है और बता रहा हूं कि मेरा इस रोड़ का नाम बदलने की किसी योजना में कोई हिस्सा नहीं था। और मैं भक्तगणों में शामिल नहीं हूं इसीलिए सर्टिफिकेट देने की कोशिश न करे)

हम कमाएं और आप लाशों पर मौज करो सरकार।


शुक्रवार की सुबह थी।  बच्चों को स्कूल जाना था। मुझे ऑफिस। तैयारी चल रही थी। कुछ दबे-ढंके स्वरों में रोने की आवाज आ रही थी। इधर-उधर देखा। कुछ दिखा नहीं। ऑफिस चला गया। देश दुनिया के बारे में खबरों पर चर्चा की और सुनी। सरकार में शामिल बौने नेताओं के दफ्तरों के चक्कर काटे, और असली सरकार देश के नौकरशाहों के कमरों के बाहर हाजिरी दी। खबरनवीसी अब यही है। दिन पूरा हुआ लौट आया। घऱ में कपड़े उतारने के साथ ही बॉलकनी में गया। तब लगा कुछ असामान्य सा है।  रात में घर लौटना होता है लिहाजा शाम से वास्ता नहीं रहता। तो शाम कॉलोनी में कैसे होती है मालूम नहीं है हमसे हमनवा नहीं है। तभी पत्नी आई और बताया कि बराबर के फ्लैट में एक जवान मौत हो गई।  एक अट्ठाईस साल का युवा अब नहीं  रहा सिर्फ तस्वीरों और अपने घरवालों की यादों के अलावा। हैरानी से फौरन गया और पता किया तो मालूम हुआ कि पांच दिन से यशोदा नाम के प्राईवेट हॉस्पिटल में पांच दिन तक जिंदगी और मौत से लड़ता रहा। डेंगी मच्छर ने काटा था। और डेंगू लाईलाज की तरह अपने साथ लेकर चला गया। ये एकदम आंख के सामने डेंगू से हुई एक और मौत थी। और जब एक मां अपने जवान बेटे की लाश पर आंसू बहा रही होंगी इस पूरी चेन से जुड़ा नौकरशाह अपने बेटे के लिए दुनिया के सबसे शानदार और मंहगें स्कूल भेजने की तैयारी कर रहा होगा। ठीक समय पर डिनर, ठीक समय पर सोना, ठीक से एसी, ठीक से बिस्तर और ठीक से आराम इस पर होगा उसका ध्यान। इतनी अय्याशी का पैसा कहा से आता है। इन नौकरशाहों को मिलने वाली अय्याशी की इस छूट की कहानी कौन लिखता है ये एक बडी़ आसान सी चीज है लेकिन एक तिलिस्म की तरह है जैसे तिलिस्म दिखता तो बहुत ही उलझा हुआ, अनसुलझी पहेली लेकिन एक चाबी मिलती है और आप को वो तिलिस्म माचिस की तिलियों की तरह ढहता हुआ दिखता है। हिंदुस्तान में नौकरशाही एक तिलिस्म है और उसकी चाबी नौकरशाहों ने कभी बनाई ही नहीं। एक बेरोक-टोक अय्याशी का खुले आम मुजाहिरा। दुनिया के तख्तें पर लूट की वैधानिक छूट। खैर मैं इस सारी चीजों को फिर से वही ले जाना चाहूंगा जहां से शुरू हुई डेंगू से एक जवान की मौत। अस्पतालों में मरते हुए लोगो की संख्या सिर्फ अखबारों में छपी हुई संख्या में तब्दील हो चुकी है। लेकिन ऐसे ही मैने पूछा कि क्या किसी सरकारी हॉस्पीटल में दिखाया था तो बताया भाईसाहब सरकारी में अब कौन डॉक्टर मिलता है मौत से पहले। बात एकदम सही दिखती है। बात एक दम अकाट्य थी। इसी बीच बात आई कि डेथ सर्टिफिकेट की। ये सर्टिफिकेट सरकार को देना है। हो सकता है इसके लिए भी चक्कर लगाने हो उस नौजवान के भाई को, पिता को या फिर किसी रिश्तेदार को। आखिर सरकार को कभी बताना पडेगा नहीं तो सरकार दंड देंगी। मैने ऐसे ही पूछा कि क्या कोई सरकारी अमले का आदमी इस मौत की दरियाफ्त करने आया। ये दीवार पर फेंकी गई आवाज थी जिसने लौटकर मुझे ही खामोश कर दिया। अरे साहब सरकार को क्या लेना-देना है। और बात एक दम से गूंज गई दिमाग में। ये नौजवान 22 साल की उम्र से काम कर रहा था। छह साल तक अपनी कमाई पर इंकम टेक्स, वैट टेक्स और भी जितने दबे-छिपे टैक्स थे सब को नियमित पर अदा कर रहा होगा। इन छह सालों में एक देश जिसमें उसका जन्म एक संयोग हो सकता है क्योंकि माता-पिता हिंदुस्तानी थे उसने लाखो रूपए दिये। कई बार तिरंगे की शान में कशीदें पढ़ते हुए लोगो को देखा होगा जो किसी न किसी सरकार नाम के तंत्र के हिस्सा होंगे। लेकिन उसको सरकार से क्या मिला। क्या उसकी मौत का सरकार से कोई रिश्ता है। क्या उसकी मौत से सरकार नाम की एक बेजान चीज पर कोई असर हुआ है। क्या सरकार को पता चला होगा कि फला-फलां नाम का नौजवान अब नहीं रहा।  जनता की सरकार को पता चला कि जनता में से एक और कम हो गया। किस वजह से मौत हुई इसका कोई अंदाजा लगा होगा या फिर इसकी दरियाफ्त की क्या सरकार ने। नहीं जनाब सरकार नाम के सिस्ट्म का आम आदमी से सिर्फ इतना रिश्ता है कि वो अपना लहू बेंचे, मजदूरी करे या कुछ भी करे लेकिन उसको टैक्स अदा करे। उस टैक्स के पैसे से अय्याशी करे, दफ्तरों में लूट का दस्तूर बनाएं एक सुरक्षा कवच में बैठे नौकरशाह,। इस नौजवान ने प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाई की क्योंकि सरकारी स्कूलों को तबाह कर दिया और करोड़ो कीड़ों की माफिक रहने वाले हिंदुस्तानियों के लिए बना दिया नौकरशाहों ने कुछ शिक्षा माफियाओं के साथ मिलकर। एक के बाद एक स्कूलों को खत्म करते हुए लूट को शिक्षा का सबसे बड़ा नियम बनाते हुए आज चारो ओर आपको सिर्फ प्राईवेट शिक्षण संस्थानों के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता। क्योंकि ये सब महान नौकरशाहों के फाईलों पर लिखी गई नोटिंग का कमाल है। बहुत बेजान से दिखते हुए नौकरशाह अपना कमीशन लेकर अपने बच्चों को देश के सबसे बड़े शानदार संस्थानों में दाखिला दिलाते रहे। खैर बात बहकने की। क्योंकि उस घर से आ रही रोने की आवाजे आपके कानों में तो जाती नहीं है ना साहब। जब भी वो नौजवान बीमार पडा होगा तो प्राईवेट हॉस्पीटल में दिखाया गया। आने जाने के लिए प्राईवेट साधनों का इस्तेमाल। गजब का मायाजाल। और कमाते ही टके के नेताओं और बेहद शातिर नौकरशाहों की अय्याशियों का जाल। गजब है। किसी की मौत का कोई मतलब नहीं। क्योंकि नौकरशाहों को मालूम है इस देश में आलू और आदमी दोनो की कीमत में  आदमी की कीमत बेहद कम है भले  ही वो आलू की तरह ही पैदा होते हो।  और अगर आपने एक एक्जाम निकाल कर नौकरशाहों की इस दुनिया में अपनी जगह नहीं बनाई तो फिर आपके लिए बाबा नागार्जुन की ये कविता शायद कुछ कह सके।
रहा उनके बीच मैं
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रहा उनके बीच मैं
था पतित मैं, नीच मैं
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में
धंस गया आकंठ कीचड़ में
सड़ी लाशें मिली
उनके मध्य लेटा रहा आंखें मींच, मैं
उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच, मैं
रहा उनके बीच मैं
था पति मैं, नीच मैं।