Monday, February 9, 2015

इतिहास से लड़ती परछाईंयों का देश।


पेशावर में आतंकियों का हमला पाकिस्तान के भविष्य पर हुआ। पेशावर के सबसे सुरक्षित इलाके में शहर से सबसे अच्छें स्कूलों में शुमार आर्मी पब्लिक स्कूल पर फिदाईन हमला। बच्चों की चींखों से पत्थर पिघल जाते है (ऐसा कई बार पढ़ा और सुना था) लेकिन उस दिन ऐसी किसी कहावत से निकल कर बच्चों की चीखों ने सात आतंकियों के दिल को नहीं चीरा। उंगिलियों की जुंबिश से बच्चों की चींखों का शोर कमजोर पड़ता चला गया । और जब शोर थमा तो 132 बच्चों की जिंदगी से सांसों का रिश्ता टूट चुका था । रोते-बिलखते हुए मां-बाप अपने कानों से अपने बच्चों की आखिरी आवाजों को भुलाना नहीं चाहते जो उन्होंने स्कूल के लिए विदा होते वक्त सुनी थी , गमजदा शहर और सहानुभूतियों से पटी जानी-पहचानी दुनिया पाकिस्तान में शोक और रोष की लहर फैल गई।  जनाजों की लाईन फौरी तौर पर पाकिस्तान की लाईन पर हावी हो गई। हमेशा की तरह से लाईनें तैयार कर ली गई होंगी कि इस घटना के पीछे विदेशी(भारत) का हाथ पाया गया। लेकिन कम्प्यूटर से निकलने से पहले ही तहरीक ए तालिबान के प्रवक्ता ने अपनी विचारधारा के हिसाब से घृणित काम को बदला करार दिया। वो पाकिस्तान फौज के सीनों में दर्द दर्ज कराना चाह रहे थे और इसीलिए फौंजी अफसरों के बच्चों के स्कूल को चुना। दुनिया में पाकिस्तान की पॉलिसी को लेकर सवाल उठने लगे। और उम्मीदें जाहिर की जाने लगी कि पाकिस्तान अब आतंकवाद को पालने की बजाय उसको नष्ट करने का काम करेंगा।  लेकिन इस में दो हिस्से है यहां तक तो ठीक है कि पाकिस्तान ने इस आतंक को खड़ा किया है लेकिन पाकिस्तान इस को नष्ट करेगा ये उम्मीद अभी झूठी है क्योंकि फौंजों के सहारे पाकिस्तान वजीरिस्तान, पख्तूनिस्तान या फिर देश के दूसरे हिस्सों में चल रहे आतंक के अड्ड़ों को तबाह कर सकता है लेकिन उस विचार से कैसे टकराएंगा जिसकी पैदावार ये तमाम आतंकी संगठन है। और अगर उनसे टकराने का हौंसला करना है तो पाकिस्तान को पहले अपने ही वजूद पर उठने वाले सवालों को शालीनता से लेकर आगे का रास्ता खोजना होगा।
पाकिस्तान का जन्म एक ऐसे देश के तौर पर हुआ जहां इस्लामी तौर-तरीकों से देश चलेगा। दुर्भाग्य से जो अल्पसंख्यक वहां रह गए उनको यकीन नहीं था कि धर्म के नाम पर स्थापित हुए इस देश में किस्मत उनको इस तरह दगा दे जाएंगी। बहस करने के लिए काफी लोग हिंदुस्तान में उसका भी कारण खोज लेंगे। लेकिन किसी हिंदुस्तानी जांच एजेंसी के आंकड़ों की जरूरत नहीं है उस पर पाकिस्तान अल्पसंख्यक कमीशन या फिर वहां के मीडिया की खबरों में ही दिख जाएंगा कि इस्लाम के नाम पर बने देश में किस तरह अल्पसंख्यकों से व्यवहार किया गया। रोटी –बेटी  कुछ भी सुरक्षित नहीं रही और दुनिया के दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ी लेकिन पाकिस्तान में वो खत्म होने के कगार पर पहुंच गई। नफरत के आधार पर तैयार नीतियों की कहानियां पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रमों में दिखाईं देती है। पेशावर में हमले से ठीक पहले पाकिस्तान की एक उच्च अदालत ने सरकार को आदेश दिया था कि पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रम से अल्पसंख्यकों के बारे में नफरत की कहानियां हटाईं जाएं और साथ ही इस्लाम के उदार  चेहरे को सामने रखा जाएं। (16 दिसबंर का इंडियन एक्सप्रेस)  दरअसल पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रमों को तैयार करते वक्त पूरी तरह से इतिहास को मिटा देने की कोशिश की गई। इस्लाम के भारत में प्रवेश या फिर अफगानिस्तान में फैलने से पहले के इतिहास को अपनी मर्जी से बदल दिया गया। इतिहास को बदल दिया गया ऐसे कि बच्चों को ये जानने में तकलीफ होने लगी कि पैगम्बर मोहम्मद साहब के पहले इन इलाकों में क्या था। मोहनजोदड़ों. मांटगुमरी या फिर  बहुत से ऐसे पुरानी सभ्यता के चिह्नों पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें भारत से अलग दिखाने की पुरजोर कोशिश कर दी गई। हर एक चीज को सीधा इस्लाम के साथ जोड़ने की इस कोशिश में बच्चों को इतिहास और मिथ का अंतर पता चलना बंद हो गया। हालात ये हो गए कि इतिहास के जिंदा गवाह माने गए पुराने स्मारकों को नष्ट करने की छूट दे गई।  अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में बुद्द प्रतिमाओं का विनाश इतिहास को मिटाने की एक ऐसी ही कोशिश थी। क्योंकि सैकड़ों साल पुरानी वो मूर्ति इतिहास के नए लेखन पर सवाल खड़ा करती होगी। बाप की उंगलियां पकड़ कर गुजरते बच्चों से लेकर स्कूलों से एक उलट इतिहास पढ़ कर निकले आलिम तक वो मूर्ति एक प्रश्नचिह्न के तौर दिखाई देती होगी। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हिंदुस्तान में इस्लाम के आऩे से पहले भी धर्म था इस जवाब के साथ खड़ी उन मूर्तियों को जब तबाह किया गया तो दुनिया से भले ही आवाजें उठी हो लेकिन पाकिस्तान के आला हुक्मरानों को राहत की सांस ही आई होगीं। यानि इतिहास को ऐसे रंग में रंग दिया गया जिसका हर पन्ना इस महाद्वीप में इस्लाम के उदय के साथ ही रौशन होता था। ऐसी सैकड़ों कहानियां आपको पाकिस्तान के सरकारी पाठ्यक्रमों में मिल जाएंगी जिसमें इस तरह से एक खास किस्म से इतिहास की प्लास्टिक सर्जरी कर दी गई। ऐसे में जब ये बच्चें बड़े होते है तो उनको दुनिया एक ऐसे दुश्मन के तौर पर दिखाई देती है जो उनके धर्म के खिलाफ खड़ी है और उनको तालिबान के उस पाठ पर यकीन होने लगता है जहां दुनिया इस्लाम के दुश्मनों से भरी पड़ी है।  यानि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बच्चों के जेहनों को ऐसे खेतों में तब्दील कर दिया जहां नफरत की फसल उगाईं जा रही है। अफगानिस्तान से रूस को बाहर निकालने के लिए अमेरिका का पिछलग्गू बनने के पीछे सामरिक समझ से ज्यादा बड़ा योगदान भारत के खिलाफ नफरत थी। पाकिस्तना ने इस बात को सोचने से भी परहेज किया कि हजारों मील दूर बैठा अमरिका को इस युद्द के दुष्परिणाम शायद ही भोगने पड़े लेकिन पाकिस्तान को पहला शिकार होगा। खैर सेना और सरकार में लूट में लगे लोगो को सवालों से बचने का सबसे बेहतर लगा कि ऐसे फिरके तैयार किए जाएं जो इस्लाम के प्रचार में गरीब बच्चों को मुजाहिदीन में तैयार करने लगे। आजादी के वक्त भारत के उस हिस्से मे जिसमें पाकिस्तान का निर्माण हुआ बेहद सामाजिक-आर्थिक असमानता थी। पाकिस्तान तो बन गया लेकिन उसको कम करने का प्रयास नहीं हुआ। अब गरीबों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल बनाने थे उनके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खडे करने थे इसके लिए काफी ईमानदार प्रयासों की जरूरत थी लेकिन हिंदुस्तान के खिलाफ घृणा में जुटे हुक्मरानों को इससे बचने का मौका मुहैया कराया अफगानिस्तान के हालातों ने। अमेरिकनों से नफरत करने वाले हुक्मरानों या जनता को उनके मदद लेने में कभी हिचक नहीं हुई ना किसी धार्मिक फतवे का पालन किया गया कि अमेरिका के साथ रिश्तें नहीं रहने चाहिए। क्योंकि अमेरिका से मिली मदद पाकिस्तान क सबसे बड़े दुश्मन हिंदुस्तान का नुक्सान किया जा सकता है। ( बात भले ही मजाक में हो लेकिन पाकिस्तान में शैतान से बड़ा हैवान शायह हिंदुस्तान होगा) और इससे दो निशाने सध गए। एक तो आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के बड़ी तादाद को आधुनिक शिक्षा( यहां आधुनिक शिक्षा वही है जिसमें बदलाव के लिए पाकिस्तानी कोर्ट को दखन देना पड़ा) से अलग एक किस्म की महजबी तालिम की तरह मोड़ दिया गया। और वहां से निकले लोगों के लिए रोजगार का भी कोई खास इंतजाम करने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हाथों में बंदूकें लिए धर्म के ये पवित्र योद्धा परचम लेकर निकल पड़े काफिरों को धूल में मिलाने। अफगानिस्तान से रूस को भगाने के बाद इनकी निगाहें गई  पाकिस्तान में रह रहे दूसरे लोगो पर। तभी इन योद्धाओं को दिखाईं दिये हिंदु, ईसाई और फिर अहमदिया, कादियानी और आखिर में इस्लाम की सर्ममान्य दूसरी शाखा शिया। मंदिर, चर्च जले तो पाकिस्तान में कोई आवाज नहीं उठी क्योंकि उसको जायज ठहराने के लिए मदरसों की एक पूरी फौंज खड़ी थी।  लेकिन जब अहमदियों, कादियानियों और आखिर में शियाओं की मस्जिदों पर भीहमले होने लगे तो कुछ लोगों को लगा कि कही गलत रास्तें पर तो नहीं निकल पडा इन तालिबानिया का कारवां। लेकिन इतिहास को बदलने की इस कार्रवाहियों पर लगाम लगाने की बात कभी चली।


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