कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Wednesday, February 25, 2015
पिता सही थे
मां चाहती थी
बेटा शहर जा कर कुछ लिख पढ़ ले
और खामोश पिता जानते थे
बेटा ही आखिरी चीज है
देने के लिए शहर को
शहर पहले ही ले चुका है
जल, जंगल, जमीन और फसल
अपने हिस्से में।
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