सवाल मेरी आंखों में छाई परछाईंयों का नहीं
है
सवाल उस क्रांत्रि का है जो परछाईंयों मे बदल
गई
हाथों में दिन भर ठेला ढोने के बाद ,
हाथों में दिन भर ठेला ढोने के बाद ,
पैरों को मलने के लिए भी ताकत नहीं रह जाती
है शेष
भोंपू से चींखती आवाजें कानों तक घुस जाती है
बिना किसी रोक-टोक के
चाहे दिमाग को उसकी जरूरत है या नहीं
रात कहां बीतेंगी
ठेले पर या फिर फुटपाथ पर
ये सवाल भी खो जाएंगा
धीरे धीरे अंधेंरे में
रोटी को तलाश करने की कवायद
दिन के पसीने से घुली हुई रोटी
धीरे धीरे पानी के साथ पेट तक उतर जाएंगी
कुछ सवालों के जवाब शरीर में रोटी के मिलते
ही
मिल जाते है
गाडियों का शोर कभी शोर नहीं रहता
दूर कही चमकती हुई सड़कों से परे
धूल भरी पगडंडियों पर किसी टूटहे घर में
रात बिता रहे परिवार की सोच
पुलिस के जूतों से टार्चों से ज्यादा भारी हो
जाती है
और अंधेरी रातों में नियान लाईंटों के नीचे
क्रांत्रि की परछाईँयों और इंसानी परछाईंयों
में फर्क भी बंद हो जाता है
वैसे भी आप कैसे अंतर करते हो अंधेंरे में
यूनियन जैक के लिए लाठी बजाते हुए वर्दी वालों
में
और दूर कही पार्क में लहराते हुए तिंरगें की
लहर के बीच
नशे
में धुत्त होकर लाठियां बजाते हुए वर्दीवालों में
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