1.न्यूज नेशन की कई टीम उत्तराखंड की त्रासदी के एक साल पूरे होने की कवरेज पर थी।
वीडियो जर्नलिस्ट सत्या राऊत्रे के साथ मैं केदारनाथ
धाम में हुई जल प्रलय की तबाही की कवरेज पर था। यात्रा की शुरूआत ऋषिकेश से हुई। इस दौरान टीम को तबाही के एक साल होने के बाद भी
दिखाई दे रहे निशानों को कवर किया। और केदारनाथ धाम के लिये अपनी चढ़ाईं शुरू की।
2. गौरीकुंड से थोड़ी ऊपर मंदाकिनी के प्रवाह
को शूट करते देख कर एक स्थानीय युवक पास आया। उसने पूछा कि आप मीडिया वाले है। हमने
अपने चैनल का नाम बताया तो उसने कहा कि भाईसहाब कुछ और भी दिखा दो। पूछने पर उसने कहा
कि पहाड़ों में सैकड़ों लाशें सड़ रही है। कोई उनको देखने वाला नहीं है। ये बात लगातार
हम लोगों को सुनने को मिल रही थी। इससे पहले भी तमाम लोग इस तरह की बात कह चुके थे
कि सरकार ने यात्रा शुरू करने से पहले जंगलों में कांबिग नहीं की है। हमने युवक से
फौरन कहा कि क्या तुमने खुद वो लाशें देखी
है तो चलो हम अभी चलते है क्या साथ चलोगे।
लेकिन उसका जबान था आज नहीं कल क्योंकि मैं अभी केदारनाथ से वापस लौट रहा हूं और सुबह
गया था लिहाजा थक गया। मुझे उसकी बात सुनी-सुनाई लग रही थी लेकिन जाने क्या सोच कर
मैंने उसका नंबर मांग लिया। और हम अपने-अपने रास्तें बढ़ गये।
3. केदारनाथ धाम के रास्तों में रामबाडा से
आगे रास्तों की हालत ऐसी नहीं थी कि कहा जा सके कि इस यात्रा को इस साल शुरू करना चाहिये।
यात्रा सरकारी इंतजामों के हिसाब से नहीं भगवान के भरोसे थी। हल्की सी बारिश सरकारी
इंतजामों की बखिया उधेड़ सकती है। सड़क नाम भर को थी। केदारनाथ पहुंचे। मंदिर के ठीक
सामने एक लाश दबी थी। मजदूरों ने दिखाया। उसी वक्त राज्य के मुख्य सचिव सुभाष शर्मा
भी राज्यों के इंतजामों का दौरा करने हेलीकॉप्टर से पहुंचे थे। हमने सवाल किया कि लाशें
तो अभी भी सड़ रही है और आपके सामने उदाहरण है। सुभाष जी का जबाव था कि हमें यहां का मलबा साफ करने के
लिये एएसआई की अनुमति चाहिये हमने अपना काम खत्म किया लेकिन केदारनाथ धाम में फीड़ भेजने का कोई तरीका
नहीं है। वहां किसी का लाईव काम नहीं करता। नेटवर्क नहीं आता है लिहाजा सोनप्रयाग की
ओर चल दिये।
4. वापसी में हम लोग जब जंगल चट्टी के इलाके
से गुजर रहे थे तो कुछ लोग सादी वर्दी में वायरलैस सेट के साथ रोड़ पर खड़े हुए ऊपर
जंगलों की ओर देख रहे थे। हमने उस तरफ देखा तो आग और धुआं दिखाई दिया। लेकिन जंगलों
में काफी समय से आग लगी हुई थी और हम लोग रात में श्रीनगर के जंगलों की आग देख चुके
थे शायद ये पुलिस वाले उसी आग को बुझाने में लगे है। ये सोच कर हम आगे की ओर चल दिये।
आगे ठीक वही जगह आ चुकी थी जिस का जिक्र संजू ने हमसे पहले दिन किया था। सत्या ने कहा
कि धीरेन्द्र ये वही जगह है जहां का जिक्र कल हुआ था। हम दोनो थके हुए थे। लेकिन फिर
बात की जानकारी के लिये हमने भैरव मंदिर के पुजारी से पूछा कि क्या कोई शव है उस पर पुजारी ने साफ कहा कि नहीं उसे कोई जानकारी
नहीं है। धुवां क्या है इस पर पुजारी ने थोडा धीमे से कहा वही तो जला रहे है। लेकिन
ऊपर कैसे जाया जाये ये हमारे लिये सवाल था। थकावट हम पर हावी थी लिहाजा हम लोग वापस
लौट चले।
5 रात को गुप्त काशी के होटल में नींद नहीं
आ रही थी। बार बार लग रहा कि हम लोग रिपोर्टिंग से मुंह चुराकर भाग रहे है। ये जरूरी
नहीं कि वहां कुछ हो लेकिन ये भी कैसे कहूं अपने से कि वहां शर्तिया कुछ नहीं है। रात
भर कशमकश में बीती। और सुबह जब सत्या ने कहा कि आगे चले तो मेरे मुंह से निकला नहीं वापस उसी के पास चलो। हमने पहला फोन लगाया उसी युवक को। और ये किस्मत की
बात है कि संजू का फोन काम कर रहा था आज खच्चरों की पर्ची उसकी थी लिहाजा वो केदारनाथ
जा रहा था लेकिन उसने हमें एक नंबर दिया और कहा कि आप इस बात कर ले। मेरा भाई वहां
ले जायेगा। हम वहां पहुंचे और हमने एक खच्चर वाले को देखा जो खच्चर की उम्मीद में हमारे
साथ था। हमने पूछा कि क्या आप बता सकते है कि वहां लाशें है तो उसने कहा कि मैंने खुद
देखी है आप चलिये लाशों की तादाद सैकड़ो में
है।
अविश्वास के साथ एक अनजाने पहाड़ पर चढ़ाई शुरू
की। उस जंगल में की रास्ता नहीं था। गोविंद नाम का खच्चरवाला ऊपर चल कर कांटों के बीच
से रास्ता बना रहा था सत्या और मैं उसके पीछे चल रहे थे। कुछ ऊंचाई पर चढ़ने के साथ
ही पानी की बोतलें, औरतों के कपड़े और जिंस दिखने शुरू हो गये। तब हमको यकीन होने लगा कि कुछ तो है जो इस रास्तें
पर प्रशासन को नहीं दिखा। चढ़ाई सीधी होने लगी
एक जगह गोविंद ने डंडे से ईशारा किया तो मेरी निगाह पहली इंसानी स्कल पर पड़ी
, बालों से भरी खोपडी ना मांस ना शरीर का बाकि हिस्सा। जैसे बिजली का झटका लगा हो।
और इसके बाद दिखना शुरू हुआ इंसानी शवों का वहां पड़ा होना।
और फिर जैसे शब्द गायब हो गये। हमेशा दूसरों से पूछता रहा कि कैसा लग रहा
है लेकिन आज खुद से नहीं बता पा रहा था कि कैसा लग रहा है। एक हाथ की हड्डियां में
चूडियां जैसे सवाल सी चुभ रही थी। बिंदी और लिपिस्टिक और नेलपॉलिश ये बता रही थी जो
मुझे लाश दिख रही है वो एक खूबसूरत सी जिंदगी थी जिसको प्यार करने वाले उसका इंतजार
कर रहे थे। और उसने जिंदगी की यत्रणाओं से
गुजरते हुए मौत का सफर तय किया। कौन जानता था कि इस जिंदगी को कभी उसके माता-पिता ने
तेज धूप भी न लगने दी हो जिसके जिस्म को इस सरकार की काहिली और बेशर्मी ने एक साल तक
धूप में गलाकर कंकाल में बदल दिया। जाने किस के मां-बाप थे। कितने मासूम बच्चें अपने
माता-पिता के साथ मनोकामना के लिये केदार बाबा की शरण में आये होंगे। इन पहाड़ों में
भले ही उनकी चींखें गूंज कर हमेशा के लिये अनसुनी रह गई हो लेकिन घरों पर इंतजार कर
रहे परिजनों के कानों में उनकी खिलखिलाहटें अभी गूंज रही होगी। और बदनसीबी का आलम देखिये
कि कभी परिजनों के हाथों अतिंम संस्कार भी नसीब नहीं।
सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं और हर तरह से
सुरक्षित नौकरशाहों को कितनी ताकत है इस सिस्ट्म में ये नंगे तौर पर सामने आया। हजारों
लोगों की मौत के आंकडें के साथ खेल करने के बाद अब दिखा कि इंसानियत का सरकार से दूर
दूर तक का कोई रिश्ता नहीं। किसी तरह से अंदर से शब्दों को जोड़-जोड़ कर बोल पा रहा
था किसी तरह से उन लाशों के उनकी पहचानी जाने वाली चीजो को शूट किया और उतर आया पहाड
से नीचे।
रास्ते में गौरीकुंड चौकी। आगे बढ़ गया था ।
लेकिन वापस लौटा उपर चढ़ा तो चौकी ईंचार्ज के सामने डीएनए सैंपल के कुछ डिब्बियां।
मैंने अपना परिचय देने के बाद सीधा सवाल किया कि कल शाम आप क्या जला रहे थे। हिचकिचाहट
के साथ जवाब आया पांच बॉडिज थी जो किसी आदमी कि सूचना पर मिली थी और सघन कॉबिंग से
मिली थी। और मुझे लगा कि अगर वापस नहीं लौटता और इस खबर का पता चलता तो अपने को हमेशा
कचोटता।
लेकिन फिर फीड़ भेजने की समस्या। गुप्तकाशी
के बाजार में कुछ नेटवर्क लेकिन इतना नहीं कि एक फ्रेम भी भेजा जा सके। ऑफिस में खबर
बता चुका था लिहाजा खबर चलनी थी। अब वहां से निकला और पहुंचा रूद्रप्रयाग। लेकिन जिस
जगह भी नेटवर्क बताया सत्या लाईव सोर्स को लेकर इधर से उधर दौड़ता रहा लेकिन नेटवर्क
तो सर्दी का सूरज हो गया था जैसे निकल ही नहीं रहा हो। ऑफिस से कहा गया कि आगे बढ़ो और श्रीनगर पहुंचे। लेकिन नेटवर्क वहां भी
नहीं पहुंचा। ऑफिस की झुंझलाहट और मेरी हताशा दोनो बढ़ती जा रही थी। आखिर इस खबर को
कैसे दिखाया जाये। प्रोग्राम का टाईम हो चुका था और फीड़ पहुंच नहीं रही थी। आखिर में अनिमेश ने कहा
कि क्या आप किसी साईबर कैफे पर जा सकते है। हम लोगो ने कैफे खोजा। बाजार में एक कैफे
और वहा से फीड जानी शुरू हुई तो सांस में सांस आयी।
खबर एअर हुई तो सरकार से खंडन की बयार आ गई।
डीएम को ये फूटेज पुराना लगा तो सत्ता की मौज में तैर रहे राजनेताओं को बेहद मामली
बात। लेकिन जैसे जैसे ये तय हुआ कि खबर नहीं अधिकारियों की आदत पुरानी और लाशें भी
एक साल से इंतजार में तो हड़कंप और फिर एक टीम हमारे साथ वापस उसी पहाड़ी पर।
आखिर में सरकार ने एक टास्क फोर्स गठित कर दी।
अधिकारियों के नेतृत्व में पचास लोग बीस दिन तक पच्चीस किलोमीटर का जंगल छानेगे। लेकिन
सरकान ने न किसी की जवाब देही तय करने कीबात की
न ही ये बताया कि क्या कोई आयोग ये जांच करेंगा कि 14 जून 2013 के मौसम विभाग
के अलर्ट से लेकर 12 जून 2014 के बीच में हजारों करोड़ रूपये की तनख्वाह भत्ते और ऐओ
आराम लूटने वाले अफसरो और नौकरशाहों के गठजोड़ ने क्या किया। कैसे अब इन लाशों से ये
तय होगा कि मौत का कारण क्या था। भूख,सर्दी, डर या फिर कुछ और। कौन बतायेंगा ये बात
कि हफ्तों तक भूख से बिलखते इन बदनसीबों तक क्यों राहत नहीं पहुंची । और अब जो कपड़ें
जूते चप्पल या दूसरी चीजों की जानकारी कैसे गुमशुदा लोगों के परिजनों तक पहुंचायेगी
बेरहम सरकार
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