Saturday, February 28, 2015

लिखना हमेशा मुश्किल होता है

लिखना हमेशा मुश्किल होता है। एक ऐसी बात लिखना जिसको लोग पढ़ना चाहे किसी पहेली से कम नहीं होती। क्योंकि लेखन अपने विचारों को अभिव्यक्त करना भर नहीं है। लिखना दुनिया को समझने के बाद उसको कहने का तरीका भी है। लेखन व्यक्ति और सृष्टि के बीच का वो रिश्ता है जिसको व्यक्ति समाज के साथ साझा करता है। समाज के तौर पर उसके पाठक उसके साथ होते है। कई बार ये समाज बहुत बड़ा हो जाता है और आदमी एकांगी होकर अपनी रचनाओं के साथ ही गुम हो जाता है। लेखक के विचारों से दुनिया कई बार सहमति और बहुत बार असहमति व्यक्त करती है। कई बार लेखक चीजों को व्यक्त करने के लिए गैरपारंपरिक तरीकों का प्रयोग करता है और वही प्रयोग उसको समाज में आलोचना का पात्र बना देता है। कई बार चीजों को इस तरह से देखता है कि ज्यादातर लोग उसके करीब नहीं पहुंच पाते और तब भी लेखक अपनी रचनाओं में अकेला रह जाता है। सामाजिक मान्यताओं की पृष्टभूमि में झांकना अक्सर लेखकों का प्रिय शगल रहा है तो मान्यताओं पर चोट की आशंकाओं से घिरे पाठकों के लेखकों पर हमला करने की एक सुदीर्घ परंपरा मौजूद है। समाज के संचालन के लिए बनी सरकार या फिर व्यवस्था हमेशा से लेखन और लेखकों के प्रति शंकाग्रस्त होती है। समाज के हित के नाम पर लिए गए फैसलों के स्वहित को होने वाली संभावित हानि को रोकने के लिए सरकारें या व्यवस्था सामाजिक शांति के नाम पर लेखकों पर कमान कसें रखती हैं। सामाजिक स्वीकृतियों की प्रतिक्षा में किसी भी लेखक को शब्द नहीं मिलते। शब्दों से साक्षात्कार का तरीका हर लेखक के लिए अनूठा और अलग होता है। व्याकरण के नियमों की परिधि में रहे या फिर समझ और अहसास के सहारे अर्जित नए नवेले शब्दों को नई परिपाठी में प्रस्तुत करें इस तरह की सैकड़ों बाधाओं से लिखने से पहले लेखक को पार करना होता है। लेकिन लिखना तभी संभव हो पाता है जब लेखक को अपने अंदर घुमड़ रहे शब्दों को बाहर लाना अनिवार्य हो जाता है। शब्द उसके अंदर से बाहर आना चाहते है और लेखक को लगता है तमाम खतरों के बीच भी लिखना जरूरी है तभी लेखक की कलम चलती है। इसीलिए जब सालों पहले पढ़े हुए शब्द एकाएक दिमाग में कौंधतें है तो लगता है कि कितन लंबें अर्सें पहले महान लेखक ने ये अहसास किया था कि अभिव्यक्ति के खतरें उठानें होंगे। ऐसे वक्त में जब आपके लिखे गएं शब्दों को हजारों लोग कुछ ही पलों में देख सकते है, पलक झपकते ही उन पर प्रतिक्रिया कर सकते है तब लिखने में आपको बंधन का अहसास होता है।  संचार क्रांत्रि और साक्षरता ने समझ बढा़ईं है या नहीं लेकिन पहुंच बढ़ा दी है। सवाल कभी इस बात पर नहीं उठ रहे है कि देश के अतीत और भविष्य के बीच वर्तमान के पुल है। और पुल पार करने के लिए अतीत के उपलब्ध अनुभवों का सहारा लिया जाना चाहिए। बल्कि एक विशाल जनमानस इस बात के लिए व्यग्र है कि उसकी बात सुनी जाएं उस बात को कहने के लिए उसने न तैयारी की है न ही अध्ययन। इस पर भी किसी लेखक तो दुविधा हो सकती है। जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में ये बात सबसे अहम है कि बहुमत क्या चाहता है। और ऐसे देश में जहां लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और कुलीन कुतंत्रो के बीच एक अदृश्य लेकिन मजबूत गठजोड़ फल-फूल रहा हो वहां किसी भी बात को साफगोई से कहने में कई खतरें हमेशा मौजूद रहेंगे। सामाजिक चेतनाओं में विषमताओं को लेकर कोई लंबी बहस की  न परंपरा रही हो और न ही उस ओर कोई बढ़ता दिख रहा हो तब लेखन एक दुष्कर कार्य हो जाता है। संचार तकनीकों पर कब्ज़ा और भी खतरे का बायस हो जाता है। जनसंख्या शायद ही कभी इस बात का हिस्सा रही हो कि लेखन और जनसंख्या के बीच क्या रिश्ता हो सकता है। भाषा का चयन जरूर इस बात की ओर संकेत करता है कि लेखन अपनी बात को कितने लोगों तक पहुंचाना चाहता है और उसकी सोच के आईने में कौन सा अक्श साफ दिख रहा है। किन मान्यताओं के बारे में उसकी राय और समझ है किन मान्यताओं को सही सही से पहचानता है। लेकिन जनसंख्या पहली बार इतनी लेखन में इतनी महत्वपूर्ण हो गई है। आधुनिक अनुवाद की तकनीकों ने अब लेखन को लेखक की समझ से भी आगे पहुंचा दिया है। लेखन पहले भी अनुवाद के सहारे दूसरी भाषाओं के पाठकों तक पहुंचते रहे है लेकिन उसमें एक बाध्यता थी कि लेखक का अनुवाद करने के लिए एक अनुवादक को खोजना होता था या फिर दूसरी भाषा के पाठकों को अपने लिए अजनबी भाषा के लेखक के बारे में मालूम होता था या फिर लेखन की काफी चर्चा हो गई होती थी। लेकिन तकनीकि विकास के इस दौर में लेखक अपने लेख को पब्लिश  करता है उससे साथ ही इंटरनेट पर मौजूद सॉफ्यवेयर प्रोग्राम अनुवाद कर परोस देते है। और यदि दूसरी भाषा का  एक भी पाठक लेख के बारे में चर्चा सुनता है या फिर किसी तरह से पढ़ता है तो बिजली की गति से लेख का अनुवाद उस अजनबी भाषा में हो जाता है। ऐसे में अजनबी लोगों के बारे में भी सहिष्णुता और समझ के साथ साथ एक सामूहिक मानवीय चेतना का अभाव फिर से लेखक को खतरें में डालता है। इसीलिए एक ही हिस्सें में मौजूद अलग-अलग भाषा-भाषियों की जनसंख्या भी ळेखन पर प्रभाव डाल रही है। जनसंख्या का आधिक्य इस बात की पूरी संभावना रखता है कि एक छोटे से छोटा समूह भी लेखन की धज्जियां उखाड़ने और लेखक पर कड़ी निगाह गढ़ाएं बैठी व्यवस्था को उन्मूलक बनने का आसान सा अवसर दे देती है। लेकिन इतनी समस्याओं से घिरने के बावजूद अगर कोई लेखन करता है तो इस बात के लिए उसके साहस की प्रशंसा करनी चाहिए कि तमाम बातों को दिमाग में रखते हुए भी लेखन ऩे समाज और अपने बीच के रिश्तों को बेबाकी से समाज के सामने रखा है।   

गोमकुड़ा से गौरी मैय्या का खर्क की वो यात्रा


 चार धाम यात्रा अपने चरम पर थी। हजारों की तादाद में यात्री बाबा केदार की घाटी में अपनी यात्रा पूरी कर रहे थे। बाबा के मंदिर में आरती हो चुकी थी। हजारों लोग केदारनाथ में विश्राम कर रहे थे। पिछले साल 14 जून से  घाटी में लगातार बारिश हो रही थी। लेकिन बाबा केदार के दीवानों को इसकी आवाज से किसी खतरे की आहट नहीं बस बाबा की भक्ति की गूंज सुन रही थी।
रात के साढ़े नौ बजे। केदार मंदिर के ठीक ऊपर बने चौराबारी सागर और गांधी सरोवर से गर्जना के साथ पानी का एक बड़ा रेला मंदिर की ओर आते दिखा। पानी से प्रलय भी हो सकती है  इस कहानी को सुन-सुन कर बड़े हुए लोगों ने पहली बार इसको प्रत्यक्ष देख लिया। क्षण भर को ठिठके लोग जब तक समझें तब तक सैलाब के साथ आ रहे पत्थर और मिट्टी ने पूरे इलाके को अपनी चपेट में ले लिया। और भोले बाबा के गुस्से के मिथ से रची बसी केदार घाटी जैसे मौत की घाटी बन गयी।इसके बाद की कहानी सिर्फ मौत और जिंदगी के जूझने की कहानी है। उत्तराखंड में गंगोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम के रास्तों से जहां भी पानी गुजर रहा था तबाही की कहानी लिखता हुआ  मैदानों में उतर रहा था। लोगों के पास बेबसी के अलावा कुछ नहीं था इस विनाश लीला के बारे में सुनाने के लिये।  पूरे देश ने मौत की वो सिहरन महसूस की।वक्त नहीं थमता। जिंदगी भी चलती रहती है। केदार घाटी में आई उस प्रलय को भी एक साल गुजर गया। और न्यूज नेशन एक साल बाद केदार के हालात की कवरेज करने फिर से जा पहुंचा केदारनाथ।
एक साल में काफी कुछ बदल गया। उत्तराखंड के लोगों कि जिंदगी और यात्रा के सरकारी इंतजाम भी। सरकार ने मोटर मार्ग को काफी हद तक दुरूस्त कर दिया। लेकिन सड़क के किनारे चलते-चलते आपको रास्ते भर जीवनदायिनी मंदाकिनी के उग्र रूप से तबाह हुए जनजीवन के दृश्य दिखते रहते है। सोनप्रयाग में एक बार फिर से  चैकिंग । इसके बाद आप गौरीकुंड की तलहटी में। यहां से शुरू होती है यात्रा। मीडिया का भारी जमावड़ा पूरे रास्ते भर या फिर पूरी केदार घाटी में। हर कोई अपने कैमरे में कैद करना चाहता है साल भर बाद की केदार घाटी को। इसी बीच कैमरों को देखकर सरगरोशियां भी तेज।
ऐसे ही एक खच्चर वाले से भेंट हुई न्यूजनेशन की। आवाज में दर्द के साथ संजू नाम का खच्चर वाला आपने एक करीबी रिश्तेदार को इस त्रासदी में खो चुका है। कैमरा देखा और कहा कि ऊपर पड़ी लाशों को दिखा सकते है क्या आप।
और न्यूज नेशन का कैमरा जा पहुंचा जंगल चट्टी के जंगलों में। कैमरों में शाट्स लिये जा सकते है।  और माईक से आवाजें। लेकिन कंकालों में बदल चुके लोगों के आखिरी वक्त के दर्द को सिर्फ उऩके अपने ही महसूस कर सकते है।  वो दर्द जो कंकालों को देख कर किसी अजनबी को सिहरा सकता है। दर्जनों लोगों के सामान के बीच दर्जन भर सड़ते हुए कुछ शव और कुछ पूरी तरह से सड़ चुके शव।
नौकरशाही को खबर को झुठलाने में सैंकेड़ भी नहीं लगा। रूद्रप्रयाग के डीएम राघव लंगर ने पलक झपकते ही इस बात का खंडन कर दिया कि न्यूजनेशन के कैमरे में बदनसीब तीर्थयात्रियों के सड़तें हुए शव और सवालों की तरह चुभते हुए कंकालों को शूट कर दिखाया है। उनके मुताबिक ये पुराना पड़े शवों के वीडियों है।
अगले दिन न्यूजनेशन को फोन किया पुलिस के अधिकारियों ने। और वो जानना चाहते थे कि शव कहां है।  न्यूजनेशन उत्तराखंड पुलिस के साथ घटनास्थल पर पहुंच गया। तो अधिकारियों के भी होश उड़ गये। पुलिस अधिकारियों ने कैमरे पर माना कि बारह कंकाल सामने है और आस-पास के इलाके में और भी शव हो सकते है। 
इसके बाद न्यूज नेशन पहुंचा। त्रिजुगीनारायण। भगवान शिव और पार्वती देवी के विवाह स्थल के नाम पर प्रसिंद इस गांव और पास के गांव तोशी के बीस लोगों ने इस त्रासदी में अपनी जान से हाथ धोया।  आप गांव के भीतर पहुंचें और मौत की कहानियों आप के आस-पास आकर लिपट जाती है।
इसी बीच यही से पता चला कि त्रिजुगीनारायण से ऊपर एक प्राचीन रास्ता है जो सीधा केदान नाथ धाम की ओर जाता है। तोशी गांव से आगे दो नदियां पार करने के बाद एक विशाल घास का मैदान और उसके ऊपर पहाड़ों की अनवरत श्रंखला पार करते हुए गोमकुड़ा और वहां से आगे केदार पर्वत का रास्ता। गांव वालों का दावा था कि वहां से हजारों लोग रास्ता पार कर त्रिजुगीनारायण गांव पहुंचे थे लेकिन सैकडों लोग रास्तों में अपनी जान से हाथ धो बैठे थे
गांव वालों की कहानी में यकीन करने का एक कारण और था और वो था कि गांव के दो लोग वनविभाग के अफसरों की एक टीम के साथ गोमकुड़ा तक गये थे। रास्ते के दोनों ओर लाशों और कंकालों के होने  का दावा भी किया था। टीम 7 मई 2014 को ही वापस लौटी थी। वनविभाग की टीम ने एक वैकल्पिक मार्ग की संभावना तलाश करने के लिये ये यात्रा की थी। और यात्रा की कहानी सच थी इस बात पर वन विभाग के बीटमैन पद्माकर पांडेय ने भी मोहर लगा थी।
यात्रा एक दम दुर्गम रास्तों से थी। कोईरास्ता नहीं था। लेकिन जंगलचट्टी में जिस तरह से लाशें मिली थी उससे इस बात पर यकीन किया जा सकता था। सूचना सामने थी लेकिन क्या वहां तक पहुंचा जा सकता है। क्या वहां जाना चाहिये। क्या न्यूज नेशन 11000 से लेकर 14000 फीट की ऊंचाईं तक खबर की सच्चाईं जानने के लिये पहुंच सकता है।एक रात लंबा सोच विचार। और आखिरकार गांव के लोगो  की एक टीम को साथ लेकर इस सफर की शुरूआत करने का फैसला। लेकिन इसी बीच डीआईजी जीएस मरतौलियां की टीम को खबर लगी तो उन्होंने प्रस्ताव किया कि वो अपने अनुभवी माऊंटैनियर्स के साथ इस खोज में शामिल हो सकते है।
सुबह छह बजे। फाटा हैलीपेड़ से अभियान की शुरूआत। न्यूज नेशन को लिनचौंली तक हेलीकॉप्टर से पहुंचना था। एक अनुभवी पायलट के साथ इलाके की जानकारी। अनुभवी पायलट लाल को इलाके की बेहद गहरी जानकारी थी और उन्होंने गोंकुरा की ऊंचाईं के बारे में बता दिया।  पहाड़ों से जुडते पहाड। एक दम शांत दिख रहे ये पहाड़ अपने में सैकड़ों चींखों को थामें बैठे थे। इन्हीं पहाड़ों के बीच में हजारों जिंदगियों ने अपनी सांसों से रिश्ता तोड़ दिया था। और अब उनकी लाशों को खोजने का काम न्यूज  नेशन की पहल पर शुरू हो चुका था। पायलट बता रहा है कि इलाके में कहां से ऑपरेशन होना है।)
लिनचौली हेलीपैड पर तैयार डीआईजी  मरतौलिया की अनुभवी टीम। और उनके साथ पहली बार इतनी ऊंचाई पर जाने की तैयारी में न्यूज नेशन। हवाई रैकी। और इसके बाद सामान के साथ पूरी टीम पहुंच गई गोंकुरा।
नेट( जहां से सब अपना सामान तैयार कर रहे है कंधों पर सामान उठा रहे है) उसी स्पॉट पर एक वॉकथ्रू है) 
11000 फीट से ऊपर ये एक चौरस जगह। काफी मुश्किल है यहां तक पहुंचना। लेकिन केदारनाथ धाम से आये यात्री किस तरह इस रास्ते पर पहुंचे होंगे ये सोचने भर से रूह कांप ऊंठती है।
 गरूड़ चट्टी का जहां से रास्ता एक दम खत्म हो गया है पुरानी सड़क का। शाट्स लिया हुआ है उसमें एक हेलीकाप्टर भी पड़ा है टूटा हूआ – पहाड़ों के बीच का इसके साथ ही केदारनाथ मंदिर के सामने से लिया हुआ है शाट्स है रास्तों का जिसके ऊपर पहाडों का सिलसिला शुरू होता है। ये अनुमान है कि ये यात्री वहीं से चढ़ते हुए और गरूड़ चट्टी से चढ़ते हुए गौंकुरा तक पहुंचे थे)गोंकुरा या गोमकुड़ा या फिर गौरी मां का खर्क। इन्हीं नामों से जाना जाता है इस पहाड़ को। केदार घाटी के ऊंचे पहाड़ों में शामिल इस पहाड़ तक की चढ़ाईं किसी माऊंटैनियर्स के कोर्स में शामिल नहीं है। लेकिन अपने बच्चों या फिर बूढ़ों के साथ बाबा केदार के दर्शनों को केदारघाटी आये हजारों लोग खौंफ के किस आलम में होंगे इस पहाड़ पर जाते ही आप समझ जायेंगे। इस पहाड़ से नीचे झांकने का मतलब है मौंत की आंखों में झांकना। मौत से बचते हुए तीर्थयात्री इस पहाड़ तक पहुंचे होंगे जहां हर कदम पर मौत झपट्टा मारने के लिये तैयार बैठी है। कदम फिसले नहीं कि आप हजारों फीट नीचे गहरी खाईंयों में कही भी गुम हो सकते है । औरन्यूज नेशन इसी गोंकुरा पहाड से अपनी तलाश शुरू कर रहा है।इस पहाड़ से त्रिजुगीनारायण पहुंचना है। तोशी के रास्ते। लेकिन 11000 फीट के इस पहाड से एक रास्ता गौरीकुंड उतरता है तो दूसरा रास्ता मुनिकुटिया भी पहुंचता है।  पूरी टीम में सिर्फ एक आदमी इस रास्तें को पहचानता है 
सुरेन्द्र की यारदाश्त, अपने फर्ज और डीआईजी मरतौलिया की टीम की समझ के सहारे हम चल पड़े त्रिजुगीनारायण के रास्ते।पहाड़ में चलने के लिये जिस तरह से साजो-सामान की जरूरत होती है वो न्यूजनेशन के पास नहीं थे। न्यूजनेशन को इस रास्तें पर जाना था क्योंकि लोगों के यकीन पर खरा उतरना था। जंगल चट्टी में मिले कंकालों के बाद लगातार लोग इस बात पर जोर दे रहे थे कि न्यूजनेशन को इस रास्तें पर जाना चाहिये क्योंकि यहां काफी संख्या में कंकाल पडे है।
पहला सबक। जंगल में किसी चीज पर यकीन नहीं। घास पकड़ कर उतरते समय आपका पैर फिसल सकता है। जिस पर पैर जमाया है वो पत्थर हिल सकता है । दूर तलक आप को सिर्फ पहाड़ और उनकी हजारों फीट गहरी खाईंयां ही दिख रही थी। धुंध से घिरते बादलों में डूबें पहाड आपको देखने में बेहद मासूम और खूबसूरत दिख रहे है लेकिन इन्हीं पहाडों में सैकड़ों लोगों की जिंदगी का सूरज डूब गया। इस रास्तें पर उतरते वक्त जरा सी चूक आखिरी चूक साबित हो सकती थी।
हर कदम सोच कर देख कर उठाना है। पहाड अब डरा रहा था। दिल उन मासूम लोगों की मजबूरी सोच कर दिल कांप रहा था कि कैसे वो लोग यहां तक जिंदगी की उम्मीद में चढ़ गये थे कि भगवान शायद यहां उनको बचा लेगा क्योंकि यहां सिर्फ भगवान ही किसी को बचा सकता है।
पहाड़ में कोई रास्ता नहीं। सुरेन्द्र आगे उतर कर देख कर बता रहा था कि कैसे उतरना है और बाकि टीम के लोगों ने हमको बताना शुरू किया कहां से उतरना है। 10 किलोमीटर का सफर जो लगातार नीचे ती तरफ जाना है दो नदियां और कई पहाड़ पार करने है और ये देखते हुए कि कही कोई बदनसीब का कंकाल तो टीम का इंतजार नहीं कर रहा है
रास्तें में जंगली फूलों के मैदान तो कभी काई से जड़ी हुई चट्टानें। पत्थरों पर चिपकी हुई काई कभी भी आपके पैरों के तले की जमीन खिसका सकती थी या फिर आपको हजारों फीट नीचे पहुंचा सकता है। इस तरह से टीम न्यूज नेशन लगातार एक घंटे तक चलती हुई पहुंची ऐसी जगह जहां अंतिम संस्कार करने के निशान मौजूद थे,जीएस मरतौलिया की टीम यहां से लेकर गौरीकुंड तक पहले भी कांबिग कर चुकी थी और उसको 185 कंकाल मिले थे। डीआईजी साहब ने बताया कि शवों के डीएनए सैंपल लेकर पूरे सम्मान के साथ संस्कार कर दिया था। लेकिन इससे आगे के रास्ते पर वो नहीं गये थे क्योंकि वो रास्ता और भी खतरनाक था और वहां किसी इंसान के जाने की संभावना न के बराबर थी।
लगातार झाडियों, बुरांश के अनछुयें हुए जंगल। खूबसूरत। लेकिन जिंदगी के लिये खतरनाक। दूर-दूर तक पानी के निशान नहीं। सामने ग्लेशियर जरूर दिख रहे है जिन पर बर्फ की परत दिख रही है। लेकिन पानी नहीं। साथ चल रही टीम के मुताबिक यदि यहां पानी नहीं है तो किसी भी स्थिति में इंसान प्यास से ही तड़प-तड़प कर जान दे देगा। शाम के उतरते ही तापमान माईनस में चला जाता है और बारिश से बचने के लिये यहां कोई जगह नहीं है। इसीलिये जैसे ही एक रात गुजरती है इंसान यहां हाईपोथर्मियां के चलते मौत के आगोश में समा जाता है। दूर तक फैली ये वादियां भटक कर आये किसी भी यात्री के लिये मौत की बाहों से ज्यादा कुछ भी नहीं।   माहौल सर्दी का था लेकिन पहाड़ उतरते उतरते पसीने के धारायें शरीर से बह निकली और  इतनी गर्मी भर आई की जैकेट कंधों पर चली आई। हर एक उतराईं पहले से खतरनाक। सफर शुरू हुआ था घास के विशाल मैदानों से और लगातार जगह सिमटती जा रही थी। रास्ते में उतरते वक्त जिस जगह से उतर रहे थे वो एक सूखा हुआ नाला था।। उस रात इस नाले में पानी पत्थरों के साथ बरस रहा था। अगर लोग जान बचा कर इस तरफ आये होंगे तो उन्होंने नाले के बीच से आने का रास्ता तो नहीं लिया होगा।
आस पास देखने का कोई रास्ता नहीं। सारे रास्तें पर घास उग आईं। फारेस्टर सुरेन्द्र को कुछ जगहों का मालूम था लेकिन घास के उगने से जगह का पता नहीं चल रहा था। कंकालों की तलाश अब सिमटती जा रही थी एक सुरक्षित रास्तें की तलाश में। पूरे रास्तें में फिसलन और काई के अलावा कुछ नहीं मिल रहा था। पत्तों पर फैर फिसल रहे थे। रास्ता खतरनाक हो रहा था। इस तरह से सात घंटों की तलाश के बाद हम लोग सोनगंगा के किनारे तक पहुंचे। इसके किनारे पहुंचने पर पता चला कि नदी पर पार जाने का पुल पहले ही बह चुका है ।  अब उस तरफ जाने के लिये फिर से एसडीआएफ और सिविल पुलिस की मदद ली गई।
पानी की धारा इतनी तेज थी कि किसी भी कच्चे पुल से इसको पार नहीं किया जा सकता था। चाय का इंतजाम किया गया। और रोप वे से उस पार जाने की तैयारी। इस रोप वे से नदी पार कर फिर से पहाड पार करने थे।  हम लोग पार पहुंचे लेकिन कैमरा तब तक मॉस्चर के चलते खराब हो चुका था। इसके बाद न्यूज नेशन की टीम ने तोशी गांव तक का सफर पूरा किया और उसके बाद चढ़ाई  चढते हुए त्रिजुगीनारायण का सफर। इस दौरान तमाम रास्तें में संभावनाये तो दिखी लेकिन कंकाल नहीं। क्योंकि घास के इतने बड़े ढेरों में कंकाल को तलाश करना आसान नहीं था।  न्यूज नेशन ने इस खतरनाक सफर को पूरा किया सिर्फ जनता के यकीन को पूरा करने के लिये और साथ इस बात के लिये कही रास्तें में बदनसीब कंकाल बन चुके लोग अपने अंतिम संस्कार का इतंजार न कर रहे हो।



केदारनाथ की वो भयानक रात एक साल बाद भी तारी रही

1.न्यूज नेशन  की कई टीम उत्तराखंड की  त्रासदी के एक साल पूरे होने की कवरेज पर थी।  वीडियो जर्नलिस्ट सत्या राऊत्रे के साथ मैं केदारनाथ धाम में हुई जल प्रलय की तबाही की कवरेज पर था। यात्रा की शुरूआत ऋषिकेश से हुई।  इस दौरान टीम को तबाही के एक साल होने के बाद भी दिखाई दे रहे निशानों को कवर किया। और केदारनाथ धाम के लिये अपनी चढ़ाईं शुरू की।

2. गौरीकुंड से थोड़ी ऊपर मंदाकिनी के प्रवाह को शूट करते देख कर एक स्थानीय युवक पास आया। उसने पूछा कि आप मीडिया वाले है। हमने अपने चैनल का नाम बताया तो उसने कहा कि भाईसहाब कुछ और भी दिखा दो। पूछने पर उसने कहा कि पहाड़ों में सैकड़ों लाशें सड़ रही है। कोई उनको देखने वाला नहीं है। ये बात लगातार हम लोगों को सुनने को मिल रही थी। इससे पहले भी तमाम लोग इस तरह की बात कह चुके थे कि सरकार ने यात्रा शुरू करने से पहले जंगलों में कांबिग नहीं की है। हमने युवक से फौरन कहा कि  क्या तुमने खुद वो लाशें देखी है  तो चलो हम अभी चलते है क्या साथ चलोगे। लेकिन उसका जबान था आज नहीं कल क्योंकि मैं अभी केदारनाथ से वापस लौट रहा हूं और सुबह गया था लिहाजा थक गया। मुझे उसकी बात सुनी-सुनाई लग रही थी लेकिन जाने क्या सोच कर मैंने उसका नंबर मांग लिया। और हम अपने-अपने रास्तें बढ़ गये।
3. केदारनाथ धाम के रास्तों में रामबाडा से आगे रास्तों की हालत ऐसी नहीं थी कि कहा जा सके कि इस यात्रा को इस साल शुरू करना चाहिये। यात्रा सरकारी इंतजामों के हिसाब से नहीं भगवान के भरोसे थी। हल्की सी बारिश सरकारी इंतजामों की बखिया उधेड़ सकती है। सड़क नाम भर को थी। केदारनाथ पहुंचे। मंदिर के ठीक सामने एक लाश दबी थी। मजदूरों ने दिखाया। उसी वक्त राज्य के मुख्य सचिव सुभाष शर्मा भी राज्यों के इंतजामों का दौरा करने हेलीकॉप्टर से पहुंचे थे। हमने सवाल किया कि लाशें तो अभी भी सड़ रही है और आपके सामने उदाहरण है। सुभाष  जी का जबाव था कि हमें यहां का मलबा साफ करने के लिये एएसआई की अनुमति चाहिये हमने अपना काम खत्म किया  लेकिन केदारनाथ धाम में फीड़ भेजने का कोई तरीका नहीं है। वहां किसी का लाईव काम नहीं करता। नेटवर्क नहीं आता है लिहाजा सोनप्रयाग की ओर चल दिये।
4. वापसी में हम लोग जब जंगल चट्टी के इलाके से गुजर रहे थे तो कुछ लोग सादी वर्दी में वायरलैस सेट के साथ रोड़ पर खड़े हुए ऊपर जंगलों की ओर देख रहे थे। हमने उस तरफ देखा तो आग और धुआं दिखाई दिया। लेकिन जंगलों में काफी समय से आग लगी हुई थी और हम लोग रात में श्रीनगर के जंगलों की आग देख चुके थे शायद ये पुलिस वाले उसी आग को बुझाने में लगे है। ये सोच कर हम आगे की ओर चल दिये। आगे ठीक वही जगह आ चुकी थी जिस का जिक्र संजू ने हमसे पहले दिन किया था। सत्या ने कहा कि धीरेन्द्र ये वही जगह है जहां का जिक्र कल हुआ था। हम दोनो थके हुए थे। लेकिन फिर बात की जानकारी के लिये हमने भैरव मंदिर के पुजारी से पूछा कि क्या कोई शव है  उस पर पुजारी ने साफ कहा कि नहीं उसे कोई जानकारी नहीं है। धुवां क्या है इस पर पुजारी ने थोडा धीमे से कहा वही तो जला रहे है। लेकिन ऊपर कैसे जाया जाये ये हमारे लिये सवाल था। थकावट हम पर हावी थी लिहाजा हम लोग वापस लौट चले।
5 रात को गुप्त काशी के होटल में नींद नहीं आ रही थी। बार बार लग रहा कि हम लोग रिपोर्टिंग से मुंह चुराकर भाग रहे है। ये जरूरी नहीं कि वहां कुछ हो लेकिन ये भी कैसे कहूं अपने से कि वहां शर्तिया कुछ नहीं है। रात भर कशमकश में बीती। और सुबह जब सत्या ने कहा कि आगे चले तो  मेरे मुंह से निकला नहीं वापस उसी  के पास चलो।  हमने पहला फोन लगाया उसी युवक को। और ये किस्मत की बात है कि संजू का फोन काम कर रहा था आज खच्चरों की पर्ची उसकी थी लिहाजा वो केदारनाथ जा रहा था लेकिन उसने हमें एक नंबर दिया और कहा कि आप इस बात कर ले। मेरा भाई वहां ले जायेगा। हम वहां पहुंचे और हमने एक खच्चर वाले को देखा जो खच्चर की उम्मीद में हमारे साथ था। हमने पूछा कि क्या आप बता सकते है कि वहां लाशें है तो उसने कहा कि मैंने खुद देखी है आप चलिये लाशों की तादाद सैकड़ो  में है।
अविश्वास के साथ एक अनजाने पहाड़ पर चढ़ाई शुरू की। उस जंगल में की रास्ता नहीं था। गोविंद नाम का खच्चरवाला ऊपर चल कर कांटों के बीच से रास्ता बना रहा था सत्या और मैं उसके पीछे चल रहे थे। कुछ ऊंचाई पर चढ़ने के साथ ही पानी की बोतलें, औरतों के कपड़े और जिंस दिखने शुरू हो गये।  तब हमको यकीन होने लगा कि कुछ तो है जो इस रास्तें पर प्रशासन को नहीं दिखा। चढ़ाई सीधी होने लगी  एक जगह गोविंद ने डंडे से ईशारा किया तो मेरी निगाह पहली इंसानी स्कल पर पड़ी , बालों से भरी खोपडी ना मांस ना शरीर का बाकि हिस्सा। जैसे बिजली का झटका लगा हो। और इसके बाद दिखना शुरू हुआ इंसानी शवों का वहां पड़ा होना।
और फिर जैसे शब्द गायब  हो गये। हमेशा दूसरों से पूछता रहा कि कैसा लग रहा है लेकिन आज खुद से नहीं बता पा रहा था कि कैसा लग रहा है। एक हाथ की हड्डियां में चूडियां जैसे सवाल सी चुभ रही थी। बिंदी और लिपिस्टिक और नेलपॉलिश ये बता रही थी जो मुझे लाश दिख रही है वो एक खूबसूरत सी जिंदगी थी जिसको प्यार करने वाले उसका इंतजार कर रहे थे।  और उसने जिंदगी की यत्रणाओं से गुजरते हुए मौत का सफर तय किया। कौन जानता था कि इस जिंदगी को कभी उसके माता-पिता ने तेज धूप भी न लगने दी हो जिसके जिस्म को इस सरकार की काहिली और बेशर्मी ने एक साल तक धूप में गलाकर कंकाल में बदल दिया। जाने किस के मां-बाप थे। कितने मासूम बच्चें अपने माता-पिता के साथ मनोकामना के लिये केदार बाबा की शरण में आये होंगे। इन पहाड़ों में भले ही उनकी चींखें गूंज कर हमेशा के लिये अनसुनी रह गई हो लेकिन घरों पर इंतजार कर रहे परिजनों के कानों में उनकी खिलखिलाहटें अभी गूंज रही होगी। और बदनसीबी का आलम देखिये कि कभी परिजनों के हाथों अतिंम संस्कार भी नसीब नहीं।
सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं और हर तरह से सुरक्षित नौकरशाहों को कितनी ताकत है इस सिस्ट्म में ये नंगे तौर पर सामने आया। हजारों लोगों की मौत के आंकडें के साथ खेल करने के बाद अब दिखा कि इंसानियत का सरकार से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं। किसी तरह से अंदर से शब्दों को जोड़-जोड़ कर बोल पा रहा था किसी तरह से उन लाशों के उनकी पहचानी जाने वाली चीजो को शूट किया और उतर आया पहाड से नीचे।
रास्ते में गौरीकुंड चौकी। आगे बढ़ गया था । लेकिन वापस लौटा उपर चढ़ा तो चौकी ईंचार्ज के सामने डीएनए सैंपल के कुछ डिब्बियां। मैंने अपना परिचय देने के बाद सीधा सवाल किया कि कल शाम आप क्या जला रहे थे। हिचकिचाहट के साथ जवाब आया पांच बॉडिज थी जो किसी आदमी कि सूचना पर मिली थी और सघन कॉबिंग से मिली थी। और मुझे लगा कि अगर वापस नहीं लौटता और इस खबर का पता चलता तो अपने को हमेशा कचोटता।
लेकिन फिर फीड़ भेजने की समस्या। गुप्तकाशी के बाजार में कुछ नेटवर्क लेकिन इतना नहीं कि एक फ्रेम भी भेजा जा सके। ऑफिस में खबर बता चुका था लिहाजा खबर चलनी थी। अब वहां से निकला और पहुंचा रूद्रप्रयाग। लेकिन जिस जगह भी नेटवर्क बताया सत्या लाईव सोर्स को लेकर इधर से उधर दौड़ता रहा लेकिन नेटवर्क तो सर्दी का सूरज हो गया था जैसे निकल ही नहीं रहा हो। ऑफिस से कहा गया कि आगे  बढ़ो और श्रीनगर पहुंचे। लेकिन नेटवर्क वहां भी नहीं पहुंचा। ऑफिस की झुंझलाहट और मेरी हताशा दोनो बढ़ती जा रही थी। आखिर इस खबर को कैसे दिखाया जाये। प्रोग्राम का टाईम हो चुका था और  फीड़ पहुंच नहीं रही थी। आखिर में अनिमेश ने कहा कि क्या आप किसी साईबर कैफे पर जा सकते है। हम लोगो ने कैफे खोजा। बाजार में एक कैफे और वहा से फीड जानी शुरू हुई तो सांस में सांस आयी।
खबर एअर हुई तो सरकार से खंडन की बयार आ गई। डीएम को ये फूटेज पुराना लगा तो सत्ता की मौज में तैर रहे राजनेताओं को बेहद मामली बात। लेकिन जैसे जैसे ये तय हुआ कि खबर नहीं अधिकारियों की आदत पुरानी और लाशें भी एक साल से इंतजार में तो हड़कंप और फिर एक टीम हमारे साथ वापस उसी पहाड़ी पर।

आखिर में सरकार ने एक टास्क फोर्स गठित कर दी। अधिकारियों के नेतृत्व में पचास लोग बीस दिन तक पच्चीस किलोमीटर का जंगल छानेगे। लेकिन सरकान ने न किसी की जवाब देही तय करने कीबात की  न ही ये बताया कि क्या कोई आयोग ये जांच करेंगा कि 14 जून 2013 के मौसम विभाग के अलर्ट से लेकर 12 जून 2014 के बीच में हजारों करोड़ रूपये की तनख्वाह भत्ते और ऐओ आराम लूटने वाले अफसरो और नौकरशाहों के गठजोड़ ने क्या किया। कैसे अब इन लाशों से ये तय होगा कि मौत का कारण क्या था। भूख,सर्दी, डर या फिर कुछ और। कौन बतायेंगा ये बात कि हफ्तों तक भूख से बिलखते इन बदनसीबों तक क्यों राहत नहीं पहुंची । और अब जो कपड़ें जूते चप्पल या दूसरी चीजों की जानकारी कैसे गुमशुदा लोगों के परिजनों तक पहुंचायेगी बेरहम सरकार

Wednesday, February 25, 2015

पिता सही थे


मां चाहती थी
बेटा शहर जा कर कुछ लिख पढ़ ले
और खामोश पिता जानते थे
बेटा ही आखिरी चीज है
देने के लिए शहर को
शहर पहले ही ले चुका है
जल, जंगल, जमीन और फसल
अपने हिस्से में।

Tuesday, February 17, 2015

हत्यारा कौन : मां


दिन में कई बार लरजा होगा दिल
कई बार कांप गए होंगे हाथ
कई बार नहीं निकली होगी आवाज
रूधें हुए गले से
कई बार गले से लगाया होगा
कई बार दुलारा होगा
कई बार हाथों को घुमाती रही होगी गर्दन पर
कई बार घर में लटकी उस तस्वीर को देखा होगा
कई बार हाथ जोड़ने को उठे होंगे
कई बार पूछा होगा
कई बार दिल पत्थर किया होगा
कई बार निगाह गई होगी दरवाजों पर
कई बार दरवाजों को निहारा होगा
कई बार बर्तनों को झाड़ा होगा
कई बार प्यार किया होगा
कई बार फिर से गले लगाया होगा
कई बार आंखों में देखा होगा
कई बार अपना ही मुंह दबाया होगा
कई बार कानों को बंद किया होगा
कई बार दरवाजों तक उठे कदमों को लौटाया होगा
लेकिन एक बार
बस एक बार
भूखे बच्चों के गले में मां ने फांसी का फंदा लगाया होगा
एक बार सिर्फ एक बार
उनको फंदें पर झुलाया होगा
एक बार
सिर्फ एक बार
अपने गले में कसा होगा फंदा
मौत से पहले अपनी
सिर्फ एक बार
ईश्वर को गरियाया होगा
और एक बार भी नहीं
एक बार भी नहीं
उसके दिल में
किसी झूठी सरकार का ख्याल आया होगा

Monday, February 16, 2015

मेरे पिता-

तुमको बताना चाहिए था
लाल रंग सिर्फ खून का ही नहीं होता
क्रांत्रि का भी होता है
और रूकने का रंग भी लाल होता है
लाल रंग में भी महीन अंतर  है
तुमको बताना था उस आवाज का अंतर
जो अंतस में उतरकर मजबूर कर देती है
नारा लगाने के लिए
और उस आवाज में भी
जो भीड़ को जंगलियों में तब्दील कर देती है
उन बाजीगरों के बारे में भी बताना था
जो उठे, निकले भूख की गलियों से
और फिर सफेद झूठ के सहारे
खींच ले गए पूरी कौम को
रोशनी के नाम पर अंधी सुरंग में
सुरंग जहां से बाहर निकलने पर पत्थर लगा कर
बैठे सौदा करते रहे सिरों की संख्या की बिना पर
बता देना था कि मुस्कुराहटों में अतंर होता है
कई तरह से मुस्कुरा सकती है एक ही तस्वीर
बिना इनके जाने मैं घुस आया
जिंदगी की इस सुंरग में
नारों के बीच मैं समझ नहीं पाया
किसका चाकू मेरी कमर में घुपा है
बताना था तुमको
भीड़ में सिर्फ इंसान ही नहीं होते
और एक से नारे लगाते लोग एक से नही हो जाते
और मेरे पिता
काश तुम मुझे बता पाते
पेड़ों के रंग बदलने
और गिरगिटों के रंग बदलने का
अंतर
लेकिन मेरी जिंदगी के लिए
तुम इकट्ठा करते रहे
रोटी और दुआ आखिर तक

Saturday, February 14, 2015

''क्यों"

मां ने कहा
मैंने सर झुका दिया
पिता ने कहा
ये हमारी कुल परंपरा है,
ये हमारे समाज की मान्यता है
और इनके अलावा पिता के नाते
तुम्हारे लिए ये सब मुझे सही लगता है
तो मैंने मान लिया
स्कूल में टीचर ने कहा
माना कि ये एन है
ये कोषथीटा है
ये पाई है
मैंने रट ली गणित की वो पोथी भी
उन्ही के बताएं फार्मूलों पर
दोस्तों ने कहा
ये ऐसा है
वो वैसा है
मैंने भी बोल दिया उनके इशारों पर
और चुप्पी साध ली सब के साथ
और अब
भूख सामने से आती है
अन्याय आंखों से गुजरता है
रोज मरती है
आत्मा
सरे राह
कोई रास्ता नहीं देता किसी को
और अब
मौत ने खोज लिया मेरा घर
छोड़कर हजारों कद्रदानों के घर
तो पहली बार लगता है
"क्यों"
ये शब्द
बहुत पहले बोलना था
ठीक मौत के सामने नहीं।

Thursday, February 12, 2015

इतिहास देखता है मिटना-मिटाना ..................................


इतिहास की किताबों को पढ़ते वक्त
कई बार कुछ पन्नों पर रूक गया
लगा कि क्या पन्ना फाड़ सकता हूं
क्या पन्ना फाड़ने से मिट जाएगा
कोई काला अध्याय
लेकिन ये तो सिर्फ एक किताब है
मैं फाड़ सकता हूं सैकड़ों किताबें के पन्नें
या फिर वो  सारी किताबें जिनमें लिखा हो ये पन्ना
लेकिन किताबों से निकला तो फिर ये रह जाएंगा
इमारतों की शक्ल में, पुराने गीतों में
या फिर ऐसे ही किसी सफ़ें में जहां मेरी नज़र नहीं जा सकती हो
कितनी इमारतों को मुझे बिम्मार करना होगा मुझे
नायको और खलनायकों के बीच कागजों में लिपटा है इतिहास
उलझा रहता हूं कई बार देर तलक
कलंक के पन्नों से इतिहास को मुक्त कराने के तरीके
फिर सोचता हूं इतिहास में नायक थे
खलनायक थे, विदूषक थे
मंत्री थे, सेनापति थे,
बिना नाम के हजारों लाखों सिपाहियों की कहानियां थी
लेकिन इसमें मेरे पुरखें कभी नजर नहीं आएं
वो लिपटे रहे  खेतों की डोलों में
कमर पर हाथ रखे , आसमान की ओर ताकते हुए
कुछ बूंदों से जिंदगी के दुश्वार होने और आसान होने की कहानियों को
कही जगह नहीं मिली होंगी सिवाए खेत गांव और खानदानों के बीच की फुसफुसाहटों के
मिटा देने भर से कुछ लाईंनें या फिर बदल देने भर से
बदल सकती है नायकों की कहानियां
त्रासदियों को बदल सकते है त्यौंहारों में
खलनायकों के सर पर रख सकते है
मर्यादाओं का मुकुट
लेकिन खेत में मिट्टी हुए
सैंकड़ों पुरखों को मिटाने
या फिर सामने लाने की जुगत
खोजना आसान नहीं है
क्योंकि उनको इतिहास के इस पन्ने में
पीडाओं के अलावा कुछ नहीं कहना है
खुशियों को उन्होंने जिया है अपने से
शिकायतों की फुर्सत ही नहीं मिली
बेहतर समय था ताक लिया आसमान को रात में और दिन में भी
उधर इतिहास अपने में एक और दिक्तत समेंटे हुए है
लिखता है उनके नाम जो इतिहास बनाते है
और
दर्ज वो भी होते है जो इतिहास मिटाने में जुटे रहते है।

Monday, February 9, 2015

रोशनी में रोशनी की तलाश


लंबें अंधेरों में डूबे हुए तलाश कितनी मुश्किल थी
अंधेरों में दीवारें टटोलते हुए , अबूझ रास्तें
भूख से लिथड़े- सब कुछ मुश्किल था उन अंधेरों से बाहर आना
फिर रोशनी शब्द मिला
कुछ ने दिए जलाएं, कुछ ने मशाल बनाई
इस सब के बीच मशालों में जरूरत पड़ी
तो मुर्दा जिस्मों ने निबाहा लकड़ियों का दायित्व
मोमबत्तियों के सहारे चलते हुए निकले सुरंग से बाहर
लाठी के पीछे पीछे
दिन के उजाले में पूरी हुई तलाश सूरज की
जाने कितनी आंखें बंद हो गई वक्त की उन अंधीं सुरंगों में
लेकिन रोशनी में भी चौंधिया गईं आंखें
कुछ जोड़ी आंखों को छोड़कर
बाकि के लिए मुश्किल था इस रोशनी और आंखों के बीच रिश्ता
अब आंखों में रोशनी थी लेकिन रोशनी जिंदगी से कही दूर थी
रोटियों के बीच भूखें आदमी,  अपार्टमेंट के किनारे बहते नालों के पास रेंगते हुए
घर की तलाश और रोशनी में रोशनी की तलाश हमेशा मुश्किल होती है।
कई बार ये कहना मुझे रोशनी चाहिएं आपको पहुंचा सकता है एलईडी बल्ब बेचने वालों के पास
कई बार भेज सकता है दवाई देने वालों के पास
क्योंकि अंधेंरों में रोशनी तलाशना जैसे आसान काम था

रोशनी में रोशनी की तलाश करना के मुकाबले  में

इतिहास से लड़ती परछाईंयों का देश।


पेशावर में आतंकियों का हमला पाकिस्तान के भविष्य पर हुआ। पेशावर के सबसे सुरक्षित इलाके में शहर से सबसे अच्छें स्कूलों में शुमार आर्मी पब्लिक स्कूल पर फिदाईन हमला। बच्चों की चींखों से पत्थर पिघल जाते है (ऐसा कई बार पढ़ा और सुना था) लेकिन उस दिन ऐसी किसी कहावत से निकल कर बच्चों की चीखों ने सात आतंकियों के दिल को नहीं चीरा। उंगिलियों की जुंबिश से बच्चों की चींखों का शोर कमजोर पड़ता चला गया । और जब शोर थमा तो 132 बच्चों की जिंदगी से सांसों का रिश्ता टूट चुका था । रोते-बिलखते हुए मां-बाप अपने कानों से अपने बच्चों की आखिरी आवाजों को भुलाना नहीं चाहते जो उन्होंने स्कूल के लिए विदा होते वक्त सुनी थी , गमजदा शहर और सहानुभूतियों से पटी जानी-पहचानी दुनिया पाकिस्तान में शोक और रोष की लहर फैल गई।  जनाजों की लाईन फौरी तौर पर पाकिस्तान की लाईन पर हावी हो गई। हमेशा की तरह से लाईनें तैयार कर ली गई होंगी कि इस घटना के पीछे विदेशी(भारत) का हाथ पाया गया। लेकिन कम्प्यूटर से निकलने से पहले ही तहरीक ए तालिबान के प्रवक्ता ने अपनी विचारधारा के हिसाब से घृणित काम को बदला करार दिया। वो पाकिस्तान फौज के सीनों में दर्द दर्ज कराना चाह रहे थे और इसीलिए फौंजी अफसरों के बच्चों के स्कूल को चुना। दुनिया में पाकिस्तान की पॉलिसी को लेकर सवाल उठने लगे। और उम्मीदें जाहिर की जाने लगी कि पाकिस्तान अब आतंकवाद को पालने की बजाय उसको नष्ट करने का काम करेंगा।  लेकिन इस में दो हिस्से है यहां तक तो ठीक है कि पाकिस्तान ने इस आतंक को खड़ा किया है लेकिन पाकिस्तान इस को नष्ट करेगा ये उम्मीद अभी झूठी है क्योंकि फौंजों के सहारे पाकिस्तान वजीरिस्तान, पख्तूनिस्तान या फिर देश के दूसरे हिस्सों में चल रहे आतंक के अड्ड़ों को तबाह कर सकता है लेकिन उस विचार से कैसे टकराएंगा जिसकी पैदावार ये तमाम आतंकी संगठन है। और अगर उनसे टकराने का हौंसला करना है तो पाकिस्तान को पहले अपने ही वजूद पर उठने वाले सवालों को शालीनता से लेकर आगे का रास्ता खोजना होगा।
पाकिस्तान का जन्म एक ऐसे देश के तौर पर हुआ जहां इस्लामी तौर-तरीकों से देश चलेगा। दुर्भाग्य से जो अल्पसंख्यक वहां रह गए उनको यकीन नहीं था कि धर्म के नाम पर स्थापित हुए इस देश में किस्मत उनको इस तरह दगा दे जाएंगी। बहस करने के लिए काफी लोग हिंदुस्तान में उसका भी कारण खोज लेंगे। लेकिन किसी हिंदुस्तानी जांच एजेंसी के आंकड़ों की जरूरत नहीं है उस पर पाकिस्तान अल्पसंख्यक कमीशन या फिर वहां के मीडिया की खबरों में ही दिख जाएंगा कि इस्लाम के नाम पर बने देश में किस तरह अल्पसंख्यकों से व्यवहार किया गया। रोटी –बेटी  कुछ भी सुरक्षित नहीं रही और दुनिया के दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ी लेकिन पाकिस्तान में वो खत्म होने के कगार पर पहुंच गई। नफरत के आधार पर तैयार नीतियों की कहानियां पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रमों में दिखाईं देती है। पेशावर में हमले से ठीक पहले पाकिस्तान की एक उच्च अदालत ने सरकार को आदेश दिया था कि पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रम से अल्पसंख्यकों के बारे में नफरत की कहानियां हटाईं जाएं और साथ ही इस्लाम के उदार  चेहरे को सामने रखा जाएं। (16 दिसबंर का इंडियन एक्सप्रेस)  दरअसल पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रमों को तैयार करते वक्त पूरी तरह से इतिहास को मिटा देने की कोशिश की गई। इस्लाम के भारत में प्रवेश या फिर अफगानिस्तान में फैलने से पहले के इतिहास को अपनी मर्जी से बदल दिया गया। इतिहास को बदल दिया गया ऐसे कि बच्चों को ये जानने में तकलीफ होने लगी कि पैगम्बर मोहम्मद साहब के पहले इन इलाकों में क्या था। मोहनजोदड़ों. मांटगुमरी या फिर  बहुत से ऐसे पुरानी सभ्यता के चिह्नों पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें भारत से अलग दिखाने की पुरजोर कोशिश कर दी गई। हर एक चीज को सीधा इस्लाम के साथ जोड़ने की इस कोशिश में बच्चों को इतिहास और मिथ का अंतर पता चलना बंद हो गया। हालात ये हो गए कि इतिहास के जिंदा गवाह माने गए पुराने स्मारकों को नष्ट करने की छूट दे गई।  अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में बुद्द प्रतिमाओं का विनाश इतिहास को मिटाने की एक ऐसी ही कोशिश थी। क्योंकि सैकड़ों साल पुरानी वो मूर्ति इतिहास के नए लेखन पर सवाल खड़ा करती होगी। बाप की उंगलियां पकड़ कर गुजरते बच्चों से लेकर स्कूलों से एक उलट इतिहास पढ़ कर निकले आलिम तक वो मूर्ति एक प्रश्नचिह्न के तौर दिखाई देती होगी। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हिंदुस्तान में इस्लाम के आऩे से पहले भी धर्म था इस जवाब के साथ खड़ी उन मूर्तियों को जब तबाह किया गया तो दुनिया से भले ही आवाजें उठी हो लेकिन पाकिस्तान के आला हुक्मरानों को राहत की सांस ही आई होगीं। यानि इतिहास को ऐसे रंग में रंग दिया गया जिसका हर पन्ना इस महाद्वीप में इस्लाम के उदय के साथ ही रौशन होता था। ऐसी सैकड़ों कहानियां आपको पाकिस्तान के सरकारी पाठ्यक्रमों में मिल जाएंगी जिसमें इस तरह से एक खास किस्म से इतिहास की प्लास्टिक सर्जरी कर दी गई। ऐसे में जब ये बच्चें बड़े होते है तो उनको दुनिया एक ऐसे दुश्मन के तौर पर दिखाई देती है जो उनके धर्म के खिलाफ खड़ी है और उनको तालिबान के उस पाठ पर यकीन होने लगता है जहां दुनिया इस्लाम के दुश्मनों से भरी पड़ी है।  यानि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बच्चों के जेहनों को ऐसे खेतों में तब्दील कर दिया जहां नफरत की फसल उगाईं जा रही है। अफगानिस्तान से रूस को बाहर निकालने के लिए अमेरिका का पिछलग्गू बनने के पीछे सामरिक समझ से ज्यादा बड़ा योगदान भारत के खिलाफ नफरत थी। पाकिस्तना ने इस बात को सोचने से भी परहेज किया कि हजारों मील दूर बैठा अमरिका को इस युद्द के दुष्परिणाम शायद ही भोगने पड़े लेकिन पाकिस्तान को पहला शिकार होगा। खैर सेना और सरकार में लूट में लगे लोगो को सवालों से बचने का सबसे बेहतर लगा कि ऐसे फिरके तैयार किए जाएं जो इस्लाम के प्रचार में गरीब बच्चों को मुजाहिदीन में तैयार करने लगे। आजादी के वक्त भारत के उस हिस्से मे जिसमें पाकिस्तान का निर्माण हुआ बेहद सामाजिक-आर्थिक असमानता थी। पाकिस्तान तो बन गया लेकिन उसको कम करने का प्रयास नहीं हुआ। अब गरीबों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल बनाने थे उनके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खडे करने थे इसके लिए काफी ईमानदार प्रयासों की जरूरत थी लेकिन हिंदुस्तान के खिलाफ घृणा में जुटे हुक्मरानों को इससे बचने का मौका मुहैया कराया अफगानिस्तान के हालातों ने। अमेरिकनों से नफरत करने वाले हुक्मरानों या जनता को उनके मदद लेने में कभी हिचक नहीं हुई ना किसी धार्मिक फतवे का पालन किया गया कि अमेरिका के साथ रिश्तें नहीं रहने चाहिए। क्योंकि अमेरिका से मिली मदद पाकिस्तान क सबसे बड़े दुश्मन हिंदुस्तान का नुक्सान किया जा सकता है। ( बात भले ही मजाक में हो लेकिन पाकिस्तान में शैतान से बड़ा हैवान शायह हिंदुस्तान होगा) और इससे दो निशाने सध गए। एक तो आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के बड़ी तादाद को आधुनिक शिक्षा( यहां आधुनिक शिक्षा वही है जिसमें बदलाव के लिए पाकिस्तानी कोर्ट को दखन देना पड़ा) से अलग एक किस्म की महजबी तालिम की तरह मोड़ दिया गया। और वहां से निकले लोगों के लिए रोजगार का भी कोई खास इंतजाम करने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हाथों में बंदूकें लिए धर्म के ये पवित्र योद्धा परचम लेकर निकल पड़े काफिरों को धूल में मिलाने। अफगानिस्तान से रूस को भगाने के बाद इनकी निगाहें गई  पाकिस्तान में रह रहे दूसरे लोगो पर। तभी इन योद्धाओं को दिखाईं दिये हिंदु, ईसाई और फिर अहमदिया, कादियानी और आखिर में इस्लाम की सर्ममान्य दूसरी शाखा शिया। मंदिर, चर्च जले तो पाकिस्तान में कोई आवाज नहीं उठी क्योंकि उसको जायज ठहराने के लिए मदरसों की एक पूरी फौंज खड़ी थी।  लेकिन जब अहमदियों, कादियानियों और आखिर में शियाओं की मस्जिदों पर भीहमले होने लगे तो कुछ लोगों को लगा कि कही गलत रास्तें पर तो नहीं निकल पडा इन तालिबानिया का कारवां। लेकिन इतिहास को बदलने की इस कार्रवाहियों पर लगाम लगाने की बात कभी चली।


रेड़लाईट का बच्चा-


जब वो ऊं करता है
तो मुंह में नहीं जाता मां का दूध
या दूध की बोतल
सर के नीचे हाथ लगा कर मां  नहीं पूंछती की
डर गए हो क्या सपने में
उसके फेफ़ड़ो में घुसता है
छलनी करता हुआ
किसी तेज रफ्तार चमकदार
गाड़ी का धुँआ, जिसके विज्ञापन में चमकती है खूबसूरत लड़की
जो अभी उसकी निगाह में नहीं होंगी
वो नीद में करवट लेता है
लेकिन इतने संधें संतुलन के साथ
सड़क के डिवाईडर की दहलीज को पार नहीं करता उसका बदन
क्योंकि दुनिया में बिना देखे ही वो समझ गया है
संतुलन के मायने
किसी प्रतिस्पर्धा से मैडल खिसकना नहीं हौता है
 उसके संतुलन का खोना
बल्कि उसके मायने है
चलने से पहले ही दुनिया से निकल लेना
किसी कार के खूबसूरत से टायर के नीचे
गुब्बारें की आवाज से भी कम आवाज होती है
उस आवाजसे जो टायर के नीचे सर के फटने से निकलती है
उस गुब्बारे की आवाज से भी कम जो उसकी मां
बेच रही है करोड़ों की गाडियों के बीच से गुजरते हुए
लेकिन ये धुंआ और मौत का खौफ बस नींद में है
अभी नींद से जागते ही
वो सरकार के सुनहरी घेरे में होगा
सरकार ने उसको मुहैय्या कराया है
शिक्षा का अधिकार
जीने का अधिकार
खाने का अधिकार
इतनी सुनहरी रेखाओं में और भी उसके अधिकार है
18  साल से पहले  फिल्मी पर्दे से बहक कर
यदि वो झपट पड़ा किसी पर तो
बाल संरक्षण अधिनियम का भी उसको अधिकार है
ऐसे अधिकारों को देने के बाद से
आराम से है सरकार
आराम से ये बच्चा
चौराहें पर गुब्बारे बेचती मां का बच्चा
जो बिना किसी के बताएं ही ये जानता है
सर के फटने और गुब्बारे के फटने का क्या अंतर होता है
जो ये जानता है नींद में संतुलन खोने का क्या मतलब होता है
जो ये जानता है नींद में ऊं करने का क्या मतलब होता है
सो जा मेरे बच्चें सूरज के चढ़ने तक                       

क्योंकि फिर से सरकार का सुनहरी घेरा तेरे ऊपर है 

सवाल कौन सा है


सवाल मेरी आंखों में छाई परछाईंयों का नहीं है
सवाल उस क्रांत्रि का है जो परछाईंयों मे बदल गई
हाथों में दिन भर ठेला ढोने के बाद ,
पैरों को मलने के लिए भी ताकत नहीं रह जाती है शेष
भोंपू से चींखती आवाजें कानों तक घुस जाती है बिना किसी रोक-टोक के
चाहे दिमाग को उसकी जरूरत है या नहीं
रात कहां बीतेंगी
ठेले पर या फिर फुटपाथ पर
ये सवाल भी खो जाएंगा
धीरे धीरे अंधेंरे में
रोटी को तलाश करने की कवायद
दिन के पसीने से घुली हुई रोटी
धीरे धीरे पानी के साथ पेट तक उतर जाएंगी
कुछ सवालों के जवाब शरीर में रोटी के मिलते ही
मिल जाते है
गाडियों का शोर कभी शोर नहीं रहता
दूर कही चमकती हुई सड़कों से परे
धूल भरी पगडंडियों पर किसी टूटहे घर में
रात बिता रहे परिवार की सोच
पुलिस के जूतों से टार्चों से ज्यादा भारी हो जाती है
और अंधेरी रातों में नियान लाईंटों के नीचे
क्रांत्रि की परछाईँयों और इंसानी परछाईंयों में फर्क भी बंद हो जाता है
वैसे भी आप कैसे अंतर करते हो अंधेंरे में
यूनियन जैक के लिए लाठी बजाते हुए वर्दी वालों में
और दूर कही पार्क में लहराते हुए तिंरगें की लहर के बीच
 नशे में धुत्त होकर लाठियां बजाते हुए वर्दीवालों में
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