वो मेरे सामने बैठे हुए रो रहे थे। और मैं अपने आंसूओं को सिर्फ थामने की सफल कोशिश में लगा हुआ था। मेरी बीबी सोफे से उठ कर किचन में पानी लाने के बहाने चली गई थी कही रोते हुए पति-पत्नी के सामने हम लोग भी कमजोर न बन जाएं। वो एक बेटी के मां-बाप थे जो अपनी बेटी को ससुराल में मार दिए जाने से बस कुछ कदम पहले ही बचा कर लौटे थे। लेकिन उनका दर्द ये नहीं था कि दहेज के भूखे ससुराल वालों ने एक मां-बाप की फूल सी बच्ची को मार मार कर उसके शरीर और उससे भी ज्यादा उसकी आत्मा पर ऐसी खरोंचें डाल दी थी जिनको जाने में जाने कितना समय लगेगा। लेकिन उनका शिकवा था इस देश में संविधान की ताकत से लैस पुलिस वालों पर। वो पुलिस वाले जिनके दम पर अदालते फैसला सुनाती है , वो पुलिस वाले जिनके दम पर इस देश में कानून व्यवस्था का टिका होना माना जाता है। उसी पुलिस वालों ने इनको इस दर से उस दर तक दौड़ा दिया था। मैं हैरान नहीं था क्योंकि वर्दी की हकीकत हर पल दिख जाती है सड़क से लेकर चमचमाते कमिश्नर ऑफिस या फिर डीजीपी के रौब-दाब वाले ऑफिसों में। खैर बात इनकी मुख्तरसर में इतनी है कि महिला पुलिस थाने ने इस घटना के जून 2014 से शुरू हुए घटनाक्रम में दोनो को बुलाया कांउसलिंग के नाम पर। थाने में ही ससुराल वाले धमकाते रहे पैसे का रौब-दाब दिखाते रहे लेकिन पुलिस वालों के कान पर जूं और आंखों में बाल नहीं आता था। खैर दो तीन तारीखों पर लड़के वाले गए और फिर उन्होंने जाना बंद कर दिया। लड़की के मां-बाप जाते रहे शायद कही कोई उम्मीद मिल जाएं लेकिन नवंबर में पुलिस ने कह दिया कि वो सहयोग नहीं कर रहे है लिहाजा उनके खिलाफ एफआईआर कर दी जाएंगी और आपको पता चल जाएँगा। तब से बो मां-बाप पता होने का इंतजार कर रहे थे। कभी महिला थाने और फिर वहां से हलके के थाने में रोज आना -जाना। दीवाली पर थाने में सफाई हो रही थी तो दरोगा जी ने कहा कि फैले हुए सामान में कैसे बताएं फिर कहा कि चार्जशीट फाईल हो गई आप कोर्ट में जाएं वो भाई कोर्ट में धक्के खाते घूमते रहे कि नाम से कोर्ट में कोई चार्जशीट दाखिल हुई है खैर तीन दिन पहले वकील से पता चला कि एफआईआर नवंबर में हुई थी धाराएं क्या लगाई है रिपोर्ट मिलने पर पता चलेगा और चार्जशीट अभी आई नहीं है। वो मां-बाप जिनकी बेटी उनके घर है वो हादसे के बाद बोल भी नहीं पा रही है महज 45 दिन की शादी में बीस तीस लाख का खर्चा और अब घर में बैठी जाने अपने आप को ही कोस रही होती होगी। मां-बाप किसी मदद की उम्मीद में एक पत्रकार के घऱ चले आएं जो क्या कर सकता है न उन्हें पता है और न ही सन्न बैठे हुए पत्रकार को। लेकिन पुलिस इस देश में किस तरह कोढ़ बनती जा रही है उसका एक और मुजाहिरा है। रोज अखबार खोलते ही देखता हूं तो एक से बढकर एक दाग दिखते है। कभी अपराधियों के साथ मिलीभगत तो कभी रेप जैसे मामलों में शामिल और लाठियां बरसाते हुए तो आप रात दिन देख सकते हो। ये तो जाने कब से इस देश ने नियति मान ली है कि पुलिस वाला है तो लाठी तो मारेगा ही उसको हक है। और गुंडों को मात देने वाली तेजी से लाठियां बरसाते बरसाते कब वर्दी से गुनाह बरसने लगे किसी को पता नहीं। मैं इस लिए भी सन्न था कि घंटी बजने पर जिस लेख को मैंने अधूरा छोड़ कर उठा था वो एक फर्जी एनकाऊंटर की रिपोर्ट पढ़ने के बाद ही लिख रहा था। आपसे साझा कर रहा हूं वो लेख भी जो उस वक्त लिख रहा था जिस वक्त ये पुलिस की दरिंदगी की एक मिसाल खुद ब खुद चल कर सामने आ गई। मेरे पास दिलासा देने के लिए सिर्फ ये था कि मैं अपने रिपोर्टर से कहूंगा कि वो उस पुलिस वाले से कुछ दरियाफ्त करे। क्योंकि आंख से अंधा भी देख सकता है और कान से बहरा भी सुन सकता है कि पुलिस वालों ने दबा कर पैसे खाएं होंगे नहीं तो पीडित को बिना बताएं एफआईआर लिख दी धाराएँ कौन सी लगाई पता नहीं तहकीकात कैसे की पता नहीं और ल़ड़के के परिवार से भी पूछताछ की पता नहीं।
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