Saturday, May 16, 2015

पुलिस का जाना पहचाना चेहरा यही है। लेकिन ये बर्खास्त नहीं होगा भले ही कह दे। 42 सेल्सटैक्सकर्मियों को इसी तरह बर्खास्त किया था सरकार ने और वो सब वापस आ गए। ...............

दिल्ली पुलिस के पत्थर मारते हुए ट्रैफिक सिपाही को देखकर बहुत से लोगो को आश्चर्य हो रहा है। टीवी चैनल्स ऐसे बिहैव कर रहे है कि जैसे ये अचानक हो गया। पत्थर मारते हुए देखना जरूर पहली बार होगा। लेकिन आदमियों को मारते हुए कितने वीडियो दिख जाते है। थाने के बाहर कितने लोग पिटते है। कितने लोग थप्पड़ खाते है दिखता नहीं। कितनी बार कॉमन आदमियों को सरे राह पीटती है पुलिस नहीं दिखता। अभी हाल ही में बाहरी दिल्ली के एक थाने में किस तरह से दो बहनो को जानवरों की तरह पीटा गया था वो आंखों से दूर हुआ तो दि्माग से भी निकल गया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे प़ड़े होंगे। लेकिन इस वीडियों के आने के बाद सब सुकरात बन रहे है। दिल्ली पुलिस ने ऐसे बर्खास्त कर दिया जैसे कि वो वापस नहीं आएगा। ये सरकारी मामला है। पुलिस अधिकारियों को क्या कुछ किया जा सकता है। क्या किसी अधिकारी की गलती निकल सकती है। क्योंकि आपको शायद याद नहींं होगा बहुत से लोगो को पता भी नहीं होगा कि सैकड़ों (जीं हां मैं सैकड़ों ही कह रहा हूं ) ट्रैफिक पुलिस वालों को पैसा लेते हुए शूट करने के बावजूद अभी तक कुछ नहीं हुआ। अगर इतनी तादाद में पुलिस वाले पैसा ले रहे थे तो अधिकारी क्या कर रहे थे। बातचीत मे किसी से पूछ लीजिए वो साफ कर देगा कि पैसा उपर तक जाता है। फिर ये ऊपर क्या है दोस्तो। जिसाक आदि और अंत नहीं दिखता है। सब कुछ आदमी के सामने है। दरअसल मैं आजतक भी ये समझ नहीं पाया कि पुलिस अधिकारियों का काम क्या है। कोई गलती होती है तो सिपाही, दरोगा या फिर एसएचओ संस्पैंड हो जाता है( सस्पैंशन कोई सजा नहीं है। बरी होने के साथ ही सारी तनख्वाह मिल जाती है) लेकिन कभी ये सवाल खड़ा नही होता कि भाई ऑफिसर्स का सस्पैंशन कभी होगा. वो किसा बात की तनख्वाह लेते है । कोई नहीं जानता। जानं भी नहीं सकता। मैं ऐसे सैकड़ों लोगो को जानताे हूं जो किसी अफसर से मिलने के बाद बाहर आकर कहते है बड़ा ही भला आदमी है। कितनी आसानी से कह दिया । मैं सिर्फ उनको देखता रहता हूं कि ये सिर्फ उससे मिल कर ही खुश है अगर लूट में हिस्सा और मिल जाएं तो सीधा उसे हरिश्चन्द्र के खानदान से साबित कर देंगे कोई ये नहीं देखता कि कितने आदमी अधिकारी तक पहुंच पाते है। कितने अधिकारी जांच करते है। कितने अधिकारी पब्लिक के आदमियों से मिलते है। एसी कमरों की ठंड़क से कितने घंटें दूर रहते है। एसी गाडियों के बिना कितने मीटर चलते है। कैसे फोन इस्तेमाल करते है। बच्चें कौन से स्कूल में पढ़ते है, बच्चें कौन सी गाड़ी इस्तेेमाल करते है। ये ही देख लो भाई बाकि संपत्ति तो तुम क्या देखोंगे। ये तो आंख से दिख जाता है बुिना किसी बुद्दि का इस्तेमाल किए हुए। दरअसल किसी भी समस्या की जड़ मे जाकर ही उसका हल हो सकता है। पुलिस व्यवस्था की इस अव्यवस्था की ज़ड़ में पुलिस अफसरशाही को बिना किसी जवाबदेही के मिली बेहिसाब ताकत है। लेकिन अफसोस आप उस का कुछ नहीं कर सकते है। और कोढ़ में खाज़ की बात ये है कि अफसर आसानी से पब्लिक के दिमाग में नेताओं के मत्थे सारा अपराध मढ़ देते है। ये कोई नहीं सोचता कि नेता कितने आदमियों की सिफारिश करता हूोगा। 100 मामलों में से 2 मामलों मे किसी ऐसे नेता की सिफारिश पहुंचती होंगी जो एसएचओ से ऊपर का मामला डील करता हो। खैर किसी के एक्सपीरियंस इससे बेहतर हो सकते है लेकिन मैंने 16 साल की रिपोर्टिंग में ऐसा ही देखा है। मैं इसमें फर्जी एनकाऊंटर के मामले पर चर्चा नहीं कर रहा हूं सिर्फ हत्या और हत्या है और वर्दी के दम पर हत्यारे मजे में समाज को नर्क में तब्दील करते हुए घूमते है।
फ्योदर त्यूत्चेव की कुछ पंक्तियां ---
तुम्हारी आँखों में कोई सम्वेदनाएँ नहीं
न सत्य तुम्हारी बातों में
न ही आत्मा तुम्हारे भीतर
मज़बूत हो जा, ओ हृदय, पूरी तरह
सृष्टि में कोई सृष्टा नहीं,
न ही प्रार्थनाओं में कोई अर्थवत्ता !

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