Thursday, June 23, 2011

मोंटेक और मनमोहन के अमीर की मौत

नेशनल हाईवे 58 से गुजर रहा था। सड़क के किनारे यातायात रूका हुआ था और भीड़ थमीं हुईं थीं। सुबह के आठ बजे थे। कार से उतर कर देखा तो एक बुजुर्ग महिला बेसुधी के आलम में रो रही थी। बुजुर्ग औरत ने अपनी धोती के पल्ले से एक लाश का चेहरा ढ़का था। लाश का चेहरा नहीं दिख रहा था। बराबर में एक टुटही साईकिल पड़ी थी। बुजुर्ग महिला लाश को अपना बेटा लाल और जिगर का टुकड़ा कह कह कर बेहोश हुई जा रही थी। थोड़ी सी दूरी बनाकर कुछ सिपाही और एक सब इंस्पेक्टर हाथ में डायरी लेकर बस खड़े थे। कुछ देर बाद एक पुलिस वाले ने मजदूर की जेब में हाथ डालकर एक काली सी छोटी डायरी और उसमें कुछ हिसाब लिखे पन्ने निकाले। जेंब में चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं था। पूछने पर मालूम हुआ कि ये एक मजदूर था। जो यूपी के पूर्वी हिस्से से इधर गाजियाबाद मजदूरी करने आया था। उसको यदि काम मिलता था तो रोज 110 रूपया मिलता था। तब लगा कि अरे ये तो देश के एक गरीबी रेखा से उपर के आदमी की लाश है। एक ऐसे आदमी की लाश है जो मोंटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की गरीबी रेखा के फार्मूलें को पार कर चुका है। ये तो एक अमीर आदमी की लाश है। जिस पर रोने के लिए एक भूखी, बीमार और उम्रदराज महिला के अलावा कोई नहीं है। उसको घर तक ले जाने के लिए व्यवस्था नहीं थी। उस अमीर आदमी के हाथों में सड़क के किनारे अमीर बनाने वाले पत्थरों की बनी सस्ती अंगूठियां थी। हाथों में गंडें और ताबीज भी बंधें थे। और एक प्यार करने वाली मां की दुआएं भी उसके साथ थी। लेकिन इन सबके बावजूद मोंटेक सिंह अहलूवालिया या इस देश के वित्त नीति के नियामकों की लाईं गयी नीतियों को नहीं हरा पाया। वो मौत के जाल में फंस गया। भूख और कुपोषण के चलते अकाल मौत के रास्ते चला गया। ये एक नये भारत के सपने के अंदर की एक छोटी सी तस्वीर है। ये उस भारत की तस्वीर है जिसने हाल ही में अमेरिका को कई अरब डॉलर दिए है सिर्फ युद्ध में काम हाने वाले हवाईजहाज हरक्यूलीस के सौंदे के लिए। ये उसी भारत का मोंटेकसिह अहलुवालिया का अमीर था जिसने हजारों करोड़ के सौंदे अभी रक्षा के लिए किये है। ये उसी भारत की तस्वीर है जिसने अभी कॉमनवेल्थ करा कर पूरी दुनिया में अपना डंका बजाया है। कई बार लगता है कि पता नहीं ये मजदूर मरने से पहले ये भी जान पाया है कि नहीं कि देश चन्द्रमा पर अपना चन्द्रयान भेजने वाला है। लेकिन ये तो मर गया। एक दो दस नहीं हजारों लोग रोज मर रहे है बिना मनमोहन सिंह के सपनों के जाने बिना। क्या कोई रास्ता है इन लोगों को मरने से पहले ये बताने का कि पूरी दुनिया में उनकी ताकत, हिम्मत और तरक्की की मिसाल दी जा रही है। दुनिया में अब वो महाशक्ति है। अमेरिका का राष्ट्रपति भी रोज उनका नाम लेता है और हाथ जोड़ कर अमेरिकियों की नौकरी बचाने की गुजारिश करता है। लेकिन इसमें एक गड़बड़ जरूर है कि इस मर गएं मजदूर का नाम तो मोंटेक सिंह को भी नहीं मालूम और मुझे भी नहीं मालूम तो दुनिया इसे किस नाम से धन्यवाद दे रही है इसका लोहा मान रही है ...पता नहीं।
देश का वित्त मंत्री का ऑफिस बग्ड हो रहा है। पहले ऐसी खबर आती है। फिर पता चलता है कि दस महीने पहले की घटना है। फिर नया खुलासा होता है आईबी से पहले किसी निजि जासूसी एजेंसी को बुलाकर दिखा दिया गया। फिर तार जुड़ते है और मुड़ जाते है गृहमंत्रालय की ओर। यानि देश के एक मंत्री की जासूसी दूसरा मंत्रालय कर रहा है। बात खुलती है या खोल जाती है मालूम नहीं। हल्ला हो जाता है। तब वित्त मंत्री ऐलान करते है नहीं जासूसी नहीं च्यूंईंगम चिपगाई गयी थीं। और आईबी ने कहा था कि कुछ गंभीर नहीं है। आईबी गृहमंत्रालय के अंडर आती है।
एक नया चिट्ठी आती है सीएजी से। देश के पेट्रोलियम मंत्रालय ने मुकेश अंबानी को दिए गएं के जी बेसिन के ब्लॉक नंबर 6 में हजारों करोड़ की रकम फालतू लगाकर खोज की और कुएं मुकेश को हैंडओवर कर दिए। ये रकम हजारों में करोड़ है। कभी जनमोर्चे के ईमानदार रहे बेचारे जयपाल रेड्डी का कहना है ये तो सीएजी का पहला ड्राफ्ट है अभी जल्दी न करें। हां जयपाल रेड़्डी जी को मालूम है उनके पहले मंत्रालय की निगरानी में हजारों करोड़ रूपये के कॉमनवेल्थ में कैसे बाद के ड्राफ्ट तैयार हुए है। इसका भी हो जाएंगा।
फिर एक खबर आती है कि देश के निजि हो या सरकारी सभी बैंकों ने अपनी तय लिमिट से आगे जा कर मुकेश अंबानी और उनके भाई अनिल अंबानी को हजारों करो़ड़ में कर्ज दे दिए। खबर बस यही तक आती है आरटीआई के हवाले से। इसके बाद खबर कही नहीं है। अरबों रूपये दे दिये गए इन दोनों भाईयों की कंपनियों को। ऐसा क्या है इनमें जो उस रोज के 110 रूपये कमाने वाले अमीर आदमी में नहीं था जो सड़क पर मर गया। मुकेश और अनिल अंबानी और कोई नहीं बल्कि देश के वित्त चाणक्य मोंटेक सिंह अहलूवालिया और अपनी ईमानदारी का परचम ओढ़े घूमने वाले मनमोहन सिंह के गरीब आदमी है। इन लोगों के कल्याण के लिए सरकार रात-दिन अपने को हलकान किये हुए है। अरबों रूपये के घोटाले, लोन और काली कमाई से भी इनका पेट नहीं भर रहा है। सरकार पूरी तरह से हैरान है हालांकि साउथ ब्लॉक और नार्थ ब्लॉक के गलियारों में घूमने वाले दलाल और पत्रकार आपको आसानी से गिनवा देंगे कि मौजूदा वित्तमंत्री किस भाई से डिक्टेशन लेता है और पुराना वित्तमंत्री किस भाई से डिक्टेशन लेता था।
भूख से थके बड़े भाई मुकेश ने तो सात हजार करो़ड़ रूपये का घर बनवा लिया है।ताकि भूख से निजात मिले। इसके लिए वक्फ की जमीन में घपला करने के आरोप लोग उन पर लगाने लगे। अंबानी मायने क्या है भाई ये तो लोग भूल ही जाते है।
एक सरकार है जिसके मंत्री इस वक्त लोकपाल के मुद्दे पर लगे हुए हैं। कोई कहता है कि प्रधानमंत्री इसके अंदर आएंगे ही नहीं कभी कोई कहता है कि आम जनता तानाशाही कर रही है। दोनों ही समूह लोकपाल बनाने की नूराकुश्ती में लगे है लखनऊ के बांकों की तरह। दोनों ही समूहों में कोई भी ऐसा नहीं है जो उस नेशनल 58 पर गुमनाम की तरह मर गएं मजदूर की तरह अमीर हो। ये तमाम लोग खाएं-पिएं और अघाएं हुए लोग है। खेल चल रहा है सरकार खेल रही है। पर्दे पर दिख रहे बौंनों और जादूगरों के पीछे हंस रहे है सरकार के गरीब और सड़क पर आवारा कुत्तें से बदतर मौंत के शिकार हो रहे है मोंटेक और मनमोहन सिंह के नायाब फार्मूले से बिना कुछ भी कमाएं भूक्खड़ों से निकल कर नएं बने अमीर।
हां एक बात और पुलिस उस मजदूर की लाश को घर भेजने के लिए न कोई गाड़ी मंगा रही थी न किसी कफन का इंतजाम कर रही थी। एक ऐसे इंसान के लिए कुछ करना पुलिस की भी बेईज्जती होती जिसकी जेंब से उसे कुछ भी नहीं मिला।
देश के बकता नेता और सत्तारूढ़ पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की मौत पर बयान दिया था कि कि मरने के बाद ओसामा बिन लादेन जी का संस्कार धार्मिक रीति-रिवाजों और सम्मान से होना चाहिएं था। लेकिन ये यूपी है और माया की पुलिस इस मनमोहनी अमीर पर चार लीटर मिट्टी का पेट्रोल और पांच गज कफन का टुकड़ा क्यों बर्बाद करें..दिग्गी भी तो हैं।

Sunday, June 12, 2011

रामलीला मैदान में यूपी का दंगल

पुरानी कहानी है कि एक ठग को दिल्ली के दरबार में पेश किया गया। राजा ने पूछा कि बता क्या खाओंगे 100 कोड़े या फिर 100 प्याज। ठग को लगा कि कोड़े खाने से बेहतर है कि प्याज खा ली जाएं। प्याज खाना शुरू हुआ और पांच दस प्याज के बाद ही ठग की हिम्मत जवाब दे गयी और वो चिल्लाया कि मुझे कोडे़ लगा दो।उसको कोड़े लगाने शुरू किये कि पांच-सात कोड़ों के बाद ठग चिल्लाया कि मुझे प्याज दे दो। फिर से प्याज खाना शुरू किया और कुछ देर में ही फिर से कोड़े मांगने लगा। कहानी का अंत तो इस तरह से हुआ कि ठग ने 100 प्याज भी खायें और कोड़े भी।
यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के नेता इस कहानी को दोबारा से देश को दिखा रहे है।
लोकतंत्र को बचाने के नाम पर रात में सोते हुए लोगों पर ये बर्बर लाठीचार्ज किसी लोकतांत्रिक आस्था को हिला सकता है। लेकिन कांग्रेस सरकार के मंत्रियों और पार्टी के नेताओं ने इस के समर्थन में बेशर्मी से बयान दे रहे है। मीडिया के तमाम समर्थन के बावजूद सरकार या पार्टी ऐसा कोई सबूत नहीं दे पा रही थी जिससे लोगों को उनकी बातों पर यकीन हो। लेकिन फिर भी यूपीए के लोग इस पर टिके हुए है। कांग्रेस के बकता महासचिव दिग्विजय राष्ट्र को संघ के हमलों से बचाने के लिए इस लड़ाई को आखिर तक लड़ने की बात कर रहे है। लेकिन कोई भी आदमी इस बात को देख सकता है कि जो फ्रेम में जड़ा जा रहा है उस फोटों के लिए ये फ्रेम नहीं बनाया गया है। आखिरकार कारण क्या है कि जो पार्टी अपने उपप्रधानमंत्री प्रणवमुखर्जी सहित देश के सबसे योग्य मंत्री कपिल सिब्बल को स्वामी रामदेव से मिलने एअरपोर्ट भेजती है वही अगले दिन उसे ठग साबित करने जुट जाती है। रात में पचास हजार लोगों पर लाठियां भांजती पुलिस भेजती है। ऐसा सिर के बल खड़ा होने वाला करतब दिखाने के लिए पार्टी ने अपने को कैसे तैयार किया। जनसमर्थन से पैदल दिग्विजय सिंह एकाएक पार्टी के रणनीतिकार में कैसे तब्दील हो गये। कैसे कपिल सिब्बल अपना वाक्-चातुर्य खोकर एक उलट बांसी सुनाने लगे। एक योगी योग करे राजनीतिक आसन न सिखाएं। खुद सालों तक बेचारे कपिल सिब्बल सिर्फ वकालत करते रहे। लेकिन अब दोनों कर रहे है टेलीकॉम राजा से कागज के प्रधानमंत्री की वकालत तक। सब लोगों को अचानक दिखने लगा कि संघ इस तरह की आग भड़का रहा है। पहले स्वामी रामदेव का मुखौटा इन लोगों को दिखा फिर अन्ना हजारे को भी यूपीए के मंत्री वहीं मुखौटा पहनाने में जुट गए। एक दिन पहले पैर छूने वाले अचानक पैर पकड़ कर कैसे पटक कर मारने वाले बन गए।
इस सवाल का जवाब आपको दिल्ली में नहीं लखनऊ में मिलेगा। यूपीए को हालिया लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में चुनावी कामयाबी मिली थी उसने पार्टी को सेर से सवा सेर में तब्दील कर दिया। लेकिन उसके बाद युवराज राहुल की मेहनत की उनकी पार्टी के हवाई नेताओं ने हवा निकाल दी। पार्टी न अपना अध्यक्ष बदल पायी न ही माया से परेशान अपने कार्यकर्ताओं को कोई ठोस उम्मीद। कोढ़ में खाज वाली बात रही मुलायम सिंह का वापस मैदान में उतर कर फिर से ताल ठोंकना। दलाल की उपाधि से नवाजे गए अमरसिंह की पार्टी से बर्खास्तगी के बाद सपा अपने पुराने स्वरूप में वापस आने की जी-तोड़़ कोशिश में जुट गयी। मुस्लिमों को अपने साथ जो़ड़ने की मुहिम में मुलायम को अप्रत्याशित कामयाबी मिल रही है। और यही वो कुंजीं है जो रामलीला मैदान में हुई रावणलीला का ताला खोल सकती है।
कांग्रेस के अफलातूनी दिग्विजय सिंह जो मध्यप्रदेश में पार्टी को खत्म कर उत्तर प्रदेश के इंचार्ज बने है ने ये बात युवराज राहुल जी के दिमाग में उतार दी कि यूपी में जीत की कुंजी मुस्लिम वोटों के पास है। अगर रामदेव नाम के एक संयासी और स्वघोषित योगसम्राट जो जाति ये यादव भी है हमला बोला जाएं तो कोई संकट नहीं है। इसका राजनीतिक फायदा काफी है। इस योजना में दिग्विजय सिेंह को मदद मिली होंगी राहुल के आंख-नाक और कान यानि कनिष्क सिंह और भंवर जितेन्द्र सिंह के बिरादराना सहयोग से। पार्टी की मीटिंग्स में सोनिया को डराने के लिए ये बताना काफी था कि जितनी सीट यूपी में लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली थी उतनी संख्या भी विधानसभा चुनाव में नहीं छू पाएंगी। और यदि ऐसा हुआ तो युवराज राहुल की छवि को काफी नुकसान होगा। राहुल कांग्रेस के पूरे देश में नायक है लेकिन यूपी में तो वो कांग्रेसी सेना के घोषित कमांडर है। ऐसे में राहुल का मिशन प्रधानमंत्री भी खटाई में पड़ सकता है। अपने काम से ज्यादा कमजोर और दिशाहीन विपक्ष की बेवकूफियों के चलते सत्ता की मलाई काट रहे कांग्रेसियों को इससे ज्यादा कोई नहीं डरा सकता कि उनकी सत्ता की उम्मीद राहुल फेल हो सकते है। बस इस बात ने पूरी पार्टी को अपनी ही आत्मा के खिलाफ एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया। हो सकता है इस बारे में बहुत से ज्ञानियों को ये लग सकता है कि मुसलमानों के वोट को लेकर इतना दांव क्यों खेल रही है कांग्रेस तो उनको असम और केरल में हुए चुनावों के रिजल्ट पर निगाह डाल लेनी चाहिए।
पहली बार किसी राष्ट्रीय अखबार ग्रुप(टाईम्स ग्रुप) ने मुसलमानों में वोटिंग में धार्मिक पार्टियों को एक मुश्त दिये गये वोट पर चिंता जाहिर की। लेकिन अपना कोई रिश्ता इस चिंता से नहीं है। कांग्रेस को जिस तरह की सफलता असम में जिस तरह से यूडीएफ और केरल में मुस्लिम लीग को वोट किया गया उससे अखबार ने चिंता जाहिर की थी कि मुस्लिमों सेक्यूलर पार्टियों की विश्वनीयता खत्म हो रही है। इस बात से हमारा कोई सरोकार नहीं है लेकिन यहीं वो आंकडां है जो कांग्रेस पार्टी में लोकतंत्र समर्थकों को अपनी जुबान बंद करने के लिए मजबूर कर रहा है। पार्टी ने अब पूरी तरह से मन बना लिया है क्यों कि वो जानती है यूपी में उसके पास हिंदुओं का कोई भी ऐसा वोट बैंक नहीं है प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी को मिल जाएंगा। लेकिन मुस्लिम ने अगर पीस पार्टी जैसी छोटी पार्टियों और समाजवादी पार्टी जैसी एक परिवार की पार्टी को वोट दे दिया तो कांग्रेस के युवराज को राजनीतिक तौर पर दीवालिया होते देर नहीं लगेगी। ऐसे में कांग्रेस ने अपने पर वापस इमरजेंसी के रोल में लौटने में गुरेज नहीं किया। हालांकि देश को इसकी कीमत काफी चुकानी पड़ेगी।

यूं तो मैं बोल सकता था

यूं तो मैं कह सकता था,
कि ये आवारा भीड़ नहीं है
मुझे बोलने से पहले सोचना नहीं था
इस भीड़ में कोई खतरा नहीं है.
या ऐसा ही कुछ
ये दीवानों का जमावड़ा
तोड़ सकता है
बनी-बनाईं व्यवस्था
मेरे पास लाईंने थीं
सीखें गएँ शब्द थे
मेरे पास कलम भी थी
और पेपर भी
मुझे लिखना था
और फिर उसे छाप देना था
ऐसा ही जैसा मुझे बताया गया
लेकिन मेरी आंखों में दर्द ज्यादा था
न मैं लिख पाया
न मैं बोल पाया।
यूं तो मैं बोल सकता था
बस और मत मुस्कुराओं मेरी तरफ
अंतर नहीं कर पाता हूं मैं
तुमहारी इन मुस्कानों में
ये सब तरफ से एक सी दिखती है
कातिल की तरफ हो
तुम्हारा चेहरा
या फिर कत्ल हुएं की ओर
बंद करों इस तरह दिखना
कि
दोनों में कोई फर्क दिखाईं न दें
बंद करो इस तरह से मुस्कुराना
लेकिन आवाज नहीं निकली
यूं तो मैं कह सकता था
कि किताबों में बंद बेजान अक्षरों में
बंद नहीं की जा सकती है
बेसाख्ता हंसतें हुए किसी बच्चें की तकदीर
रोका नहीं जा सकता हवा में झूमना किसी फिरकी का
गहराईं में धरती की गोद में
समाएं हुए किसी पेड़ की जड़ नहीं उखाड़़ सकते
हो महज काली लाईनों को पढ़कर
लेकिन सोच ही नहीं पाया
यूं तो बोल सकता था
मैं इस खेल में शामिल नहीं हूं
बंद करों
ये गोटियां उछालना
जिसकी हर चाल तुमकों मालूम है
मत छनकाओं वो सिक्के
जिसमें दोनों ओर तुम्हारे लिए ही जीत
लिखी हो।
लेकिन
मेरी जुबान सर्द है
मैं बस देख रहा हूं तुम्हारा सिक्का, गोटियां और मुस्कानें
मैं बिक गया था,
तुम जानते हो मेरे डर को और मेरी कीमत को
बिना किसी और के ये जाने........

Saturday, June 11, 2011

आधी रात को आजादी

एक खामोश सी चादर शहर पर है
बोलते हुए लोगों के ऊपर
शहर के बीचों-बीच मारे गये लोगों की निगाह
टिक गयी शहर में बसे हुए लोगों पर।
हिल गये अंतस में
डूब गयी एक आवाज को दबाने में जुट गया शहर
आवाज जो गले से निकली ही नहीं
लेकिन कानों में बजती रही जोर से-
- चोर है सब
बुरी तरह पिट कर निकले लोगों की निगाह में
ये शहर था जहां उनकी धुंधली सी आवाज
अपने भाईयों के लिए
घुट गए बचपन के लिए
और गुमशुदा जवानियों के लिए
निकल कर-
गले गूंज बन जाती
लेकिन
शहर में खरीद कर लाएं गये बांस के डंडों में
रूंध कर रह गयी।
रात के तीसरे पहर में दौड़ते वक्त
उनको
याद नहीं रहा
तिंरगा जो मचान पर खंभें के बांध दिया गया था
नहीं दिख रहा था लालकिले का वो मचान
जिस पर पचासियों बार प्रधानमंत्रियों ने
माईक से आवाज बढ़ा कर
गोरों के भाग जाने का आश्वासन दिया था।
कांपते-हाथों और जाम की चढ़ गई गर्मी से
नर्म गद्दे में धंस कर नाराज होते हुए कहा
नींद खराब हो जाती है
रामलीला मैदान से आते हुए खर्राटों से
अंधेंरे में ढूंढ़ते हुए शत्रु शिविरों का
आग लगाकर मिटा देना है नामो-निशान
इतना आदेश बहुत था
सदियों के अनुभव को अपने में समेटे हुए
वर्दी के अनुशासन को।
उधर पुलिस पर यकीन रखने वालों को नशे के बाद हरारत हुई
गोपीनाथ बाजार में सपने डूबी लड़की
जीने के अधिकार को सीने से लगाएं घूम रही थी
उठाया
रौंदा
फेंक दिया
उसी जगह पर
सफेद से लाल हो गये खून से कपड़े
एजेंसी को शक है
जरूर किसी संगठन से रिश्ता है इसका
लाल कपड़े पहने
और आंखों में सपने लिए घूम रही थी
अकेले
राजधानी की सड़कों पर।
इस बीच ढोंगियों को लगा दिया
ठिकाने
भगा दिया सड़कों पर
बेघर बेचारों की तरह
सड़कों पर दौड़ते
नींद में इधर-उधर हाथ मारते
लोगों के
अंदर का राक्षस
दिख रहा था संसद
से
लेकर अकबर रोड़ तक
आखिर नंगें हाथ और
भूख के सहारे
खतरा बन सकते थे
हजारों लोग
मासूम दिखने वाले
औरतों बच्चों और बूढ़ों के चेहरे।
बदल गया फोकस कैमरे का
फ्रेम में चीखतें बौंनों को
दिखाई दे रहा था
किसी पिरामिड के गणितीय ज्ञान की तरह
कभी लगता है कि भीड़ आवारा नहीं है
कभी लगता है ढोंगी बाबा के पास सरकार उड़ाने के बम है
झूठ के सहारे चलती एकाउंटिंग में
100 के चालान से बचने के लिए
कमिश्नर तक की कुर्सी हिलाने वाले बौंनों को
मैंदान में मिट्टी कुचलने वाले ढ़ोंगी के भक्तों के खिलाफ
फ्रेम बनाने थे, कलम चलानी और ढूंढने थे ऐसे शब्द
जो संसदीय लोकतंत्र को बचाने में मददगार रहे
इसके लिए जूता दिखाने वाले को पिटते देखने से ज्यादा
मजा है
खुद जूता उतार कर जूतिया दिया जाएं

क्रमश.....

Tuesday, June 7, 2011

असली ईमानदार प्रधानमंत्री है भाई

"it is unfortunate that operation had to be conducted but quite honestly, there was no altenative" ये बयान देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। रामलीला मैदान में रात को सो रहे औरतों और बच्चों पर बर्बर पुलिसया एक्शन के बाद का पहला बयान। ये देश के प्रधानमंत्री का बयान है। एक ऐसे प्रधानमंत्री का बयान जो अपनी योग्यता से किसी वार्ड मेंबरी या गांव में सभासद का चुनाव भी नहीं जीत सकता था। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो बेचारा अपनी कोई राय रखता होगा इस बारे में लोगो को संदेह है। प्रधानमंत्री से एक ऐसा ही बयान चाहिए था। क्या एक ऐसा आदमी जो सिर्फ खडाऊं उठाने के लिए रखा गया था पार्टी के और अपनी ही सरकार के खिलाफ न्याय के पक्ष में खड़ा हो सकता है। नहीं कभी नहीं आम समझ और इतिहास इस बात की ताईद करता है। मनमोहन सिंह की योग्यता सिर्फ इतनी ही है कि वो कभी भी अपनी सत्ता नहीं बना सकते है और न ही देश के लोगों के दिलों मे जगह। मध्यमवर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले बौंनों की मुहिम में मीडिया के एक वर्ग ने बेहद ईमानदार आदमी के तौर स्थापित किया था मनमोहन सिंह को। लेकिन एक ऐसा ईमानदार आदमी जो जानता है कि देश का प्रधानमंत्री पद का वो किसी भी तरह से हकदार नहीं है फिर भी बैठा है कितना ईमानदार है भाई। एक विदेशी महिला को जिसको देश की जनता ने अपने दिल में और सिर पर बैठाया सिर्फ इस लिये क्योंकि उसके साथ गांधी या फिर नेहरू खानदान का नाम जुड़ा था। इसके अलावा और कोई योग्यता इस महान नेत्री सोनिया गांधी में है ये तो बेचारे दिग्विजय सिंह भी नहीं गिनवा सकते है।
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है कि रात के अंधेंरे में पुलिस ने सोए हुए मासूम बच्चों, बेगुनाह औरतों और बूढ़ों पर हमला किया। यहां सवाल ये खड़ा हो गया है कि क्या सरकार अपनी तानाशाही में किसी भी आदमी को जब चाहे फना कर सकती है। क्या कोई आवाज जो सत्ता में शामिल पार्टी के खिलाफ है उठाने की इजाजत नहीं मिलेंगी।
ये वो सरकार है जो अपना इकबाल दिखाना चाहती है लेकिन उसको जगह नहीं मिलती। मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री पद पर चुनाव इस देश के लोकतंत्र को पहली चोट थी। देश के तमाम प्रधानमंत्रियों के नाम गिनवाने से बचते हुए ये कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह राजनीतिक तौर पर चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा या फिर इंद्र कुमार गुजराल जितनी भी हैसियत नहीं रखते है। लेकिन इनको युवराज के बालिग होने तक चरण पादुकाओं को सर पर रख कर चलने की इजाजत दी गयी थी। कोई दिग्विजय सिंह जैसे चाटुकार ये चरण पादुकाओं को युवराज को पहनाने से पहले उनमें कांटे भर सकते है।
जनार्दन द्विवेदी जैसे लोग सर्टिफिकेट बांट रहे है कि कौन साधु है और कौन शैतान। ये जनार्दन द्विवेदी कौन है भाई एक और परजीवि। गांधी नेहरू फैमली के किचन कैबिनेट में शामिल दिग्विजय सिंह की जगह हासिल करने की जुगत भिड़ाता हुआ एक बेचारा राजनीतिज्ञ। हम लोग व्यक्तिगत न हो तब भी इन लोगों के बयान अच्छे-खासे आदमी को परेशान कर सकते है।
दूसरों लोगों की शराफत की ओर इशारा करने वाले इन नेताओं ने रामलीला मैदान की कार्रवाई पर क्या सफाई दी है ये सुन लेते है।
दिग्विजय को लगा कि बाबा ठग है। जनार्दन द्विवेदी को लगा कि बाबा औरतों के भेष में भागा। कपिल सिब्बल को लगा कि बाबा योग करे राजनीति नहीं। और प्रधानमंत्री का बयान आप को इस लेख के शुरू ही मिला।
एक ठग के बुलावे पर आएं हजारों मासूमों को ये सरकार लाठी-डंड़ों और अश्रूगैस का उपहार देंगी। ये लोग क्या मांग कर रहे थे देश के गरीब और किसानों के लूटे गये धन को वापस देश में लाने की कार्रवाई करने की मंशा जाहिर करे सरकार। बस इतनी सी मांग पर गुस्सा गये जूते साफ करने की राजनीति करने वाले ये लोग। ओसामा बिन लादेन की मौत पर गुस्साएं दिग्विजय सिंह के बयान पर ध्यान देना बेवकूफी है। ऐसा पहली नजर में लग सकता है लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के महासचिव है इसीलिए जो भी कहते है उसमें कोई न कोई वजन तो जरूर होगा। लेकिन इन बेचारे की पार्टी में नहीं चली। चार-चार मंत्री जिनमें प्रणवमुखर्जी भी शामिल थे ठग का सम्मान करने गएं। लेकिन बेचारे दिग्गी की औंकात नहीं कि ठग का सम्मान करने वालों से इस्तीफा मांगे।
जनार्दन द्विवेदी की सरकार थी जो मुंबई हमलों का सामना कर रही थी। क्या उसको लग रहा था कि बाबा फिदाईन हमला करने आया है। क्या उसको भागने से बेहतर अपनी लाश जनार्दन के घर के सामने पहुंचा देनी थी। ये आदमी बात कर रहा है लोकतांत्रिक मर्यादाओं की हैरानी की बात हो सकती है कि मीडिया के बौंने कैसे मारने भागे जब एक आदमी ने इस पर जूता उठाया।
कपिल सिब्बल का तो कहना ही क्या है। पार्टी के ट्रबल शूटर है। हर बार नयी ट्रबल के साथ आते है। खुद बेचारे वकालत करते थे अब राजनीति कर रहे है वकालत भी कर रहे है। पत्नी इम्पोर्ट -एक्सपोर्ट के धंधें में है। लेकिन दूसरा कैसे राजनीति कर सकता है ये बताना नहीं भूलते। ये वो है जो इतनी शर्म भी नहीं रखते कि सीएजी पर आरोप लगाने के बाद माफी मांग ले। सीएजी भी सरकार की है और सीबीआई भी। दोनो ने न केवल माना बल्कि इनके दोस्त राजा साहब जेल में है। लेकिन साहब फिर देश के सामने बेशर्मी का नया नारा ले कर आये है कि योगी है तो योग करें। फिर भाई आप अदालत के बाहर क्या कर रहे है।
बात व्यक्तिगत आरोप लगाने की नहीं है। लेकिन मन बहुत दुखी है। इस बात पर नहीं कि एक बाबा के समर्थकों पर हमला हुआ है। दुख इस बात पर है कि लोकतंत्र की इस सरेआम हत्या पर भी लोग बहाना ढूंढ रहे है। कुछ दिन पहले इसी ब्लाग में एक लेख में इस बात का अंदेशा जताया था कि बौंने मीडियावाले इस देश में एक हिटलर की तलाश कर रहे है लेकिन ये हिटलर इतनी जल्दी आएंगा ये लिखने वालों को भी अंदेशा नहीं होगा।
आखिर में ये कुछ पंक्तियां है उन्हीं कांग्रेसियों को समर्पित जिनकी पार्टी के नेता ने ही ये लिखी हैं।
महामहिम |
डरिए। निकल चलिए।
किसी की आंखों में
हया नहीं,
ईश्वर का भय नहीं,
कोई नहीं कहेगा,
"धन्यवाद"
सबके हाथों में,
कानून की किताब है,
हाथ हिला पूछते है,
किसने लिखी थी,
यह कानून की किताब ?
"श्रीकांत वर्मा"

Sunday, June 5, 2011

लोकतंत्र के हत्यारें-

इस वक्त कैसा अहसास हो रहा है। बता नहीं सकता। घर में किसी की मौत हो गयी हो और तब आपको मर्सिया लिखना हो ऐसा ही लग रहा है। देश में लोकतंत्र की सरे-राह हत्या। एक लोकतंत्र जो किसी भी कीमत पर गरीब आदमी का लोकतंत्र नहीं था। लेकिन उस पर्दे को भी इस बे-पैंदी के प्रधानमंत्री की सरकार ने फाड़ दिया। रात के अंधियारें में आराम कर रहे हजारों लोगों पर पुलिस का लाठीचार्ज अश्रु-गैस के गोले बरसाये गये।
ये पुलिस वाले वहीं है जो पहले यूनियन जैक के नाम पर इस देश के लोगों पर अत्याचार किया करते थे और अब तिरंगे के नाम पर कर रहे है।
भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आंदोलन में दिल्ली आएँ इन देशवासियों पर कुछ हजार पुलिस वालों ने सरकार में बैठे बौंनों के आदेश में हमला बोल दिया। साफ तौर पर दिख रहा है कि आजादी के बाद भी इस देश की पुलिस ने कुछ नहीं सीखा। सत्ता में बैठे लोग चार जून से ही सदमें में थे कि क्या चल रहा है। राजधानी में कुछ लोग आ गये और पैसे वालों के खिलाफ कार्रवाई की बात कर रहे है। ये क्या बात हुई। पिछले साठ सालों से खाकी वर्दी के दम पर राज में हिस्सेदारी कर रहे लुटेरों के खिलाफ आंदोलन। मैं कई बार इस बात समझने में नाकाम रहा कि मीडिया ऐसे वक्त में क्यों चूक जाता है कि उसे किसका साथ देना है। टीवी चैनलों और अखबारों में ऐसी खबरें साया हो रही थी कि जैसे रामदेव नाम का ये बाबा पाकिस्तान का एजेंट है और इसके तंबू और कनात का पैसा आईएसआई ने दिल्ली में बैठे आरएसएस नाम के संगठन की मार्फत भेजा है। हो सकता है रामदेव के ट्रस्ट्र के खिलाफ कई शिकायतें हो फिर ये शिकायतें उसी वक्त को आती है जब वो भ्रष्ट्राचार के खिलाफ कोई आंदोलन कर रहा होता है। ये उसी वक्त क्यों आती है जब भ्रष्ट्राचार की नाभि में हमला करने की बात होती है। रामदेव के खिलाफ लोग मुझे एक बात से मुत्तमईन करना चाहते है कि ये बाबा कभी साईकिल पर चलता था तब मैं एक सवाल करता हूं कि क्या उन लोगों के बाबा हवाई जहाज में बैठ कर चलते थे।
इस पूरे मामले में दो किस्म की खीझ थी एक कि ये बाबा कभी साईकिल पर चलता था अब इसके पास हजारों करोड़ रूपये का ट्रस्ट है और दूसरी कि इससे लोकतंत्र को खतरा है। अरे शांति पूर्ण विरोध करना किस देश के लोकतंत्र में अवैध है। एक मैदान में बैठकर अनशन करना किस देश के कानून का उल्लंघन है। इस बारे में कोई बोल नहीं रहा है।
मैंने इस बात को समझने की कोशिश की चलो बाबा के खिलाफ हो सकता है भ्रष्ट्राचार के मामले हो लेकिन क्या इससे ही वो भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता है।
ये तर्क देने वालों से एक बात पूछना चाहता हूं कि रोटी के लिए जीबी रोड़ पर बैठकर जिस्म बेचने वाली औरत अगर बाजार में उतरती है तो क्या हर आदमी को उससे बलात्कार करने का अधिकार मिल जाता है।
मैं आजतक एक बात ही समझता रहा कि लोकतंत्र का मूल ये बात है जो किसी पश्चिमी विचारक ने कही थी।
"मैं आपकी कही बात से पूर्णतया असहमत हूं लेकिन आपके कहने की अधिकार की रक्षा के लिए अपने खून की आखिरी बूंद भी बहा दूंगा।"

ये बौंने युवराज की पुलिस है

ये बौने युवराज की पुलिस है। ये उत्तर प्रदेश पुलिस नहीं है युवराज। ये उसकी अपनी दिल्ली की पुलिस है जहां शीला दीक्षित राज करती है। अगर बुद्धि कमजोर है तो फिर ये याद कर लो कि दिल्ली देश की राजधानी है। इस राजधानी में आधी रात को सोते हुए लोगों पर लाठियां चलाने वाली पुलिस कहां से आयी है। बौने युवराज को पता लग जाना चाहिएं। मैं हमेशा से ये मानता रहा हूं कि इस देश में राज कर रहे बौने या तो पैसे वालों के एंजेट है या फिर सीधे दलाल है। ज्यादातर नौकरशाहों के बच्चों या फिर उन राजघरानों की संतानें है जो देश की आजादी की ओर से भौंकतें थें।
ये उन लोगों की औंलादें है जो विदेशों में पढ़कर इस देश के करोड़ों-करोंड़ लोगों की नुमाईंदगी का दावा करते थे। ये वो लोग है जिनका ताकत अनपढ़ और गरीब लोग थे लेकिन ताकत का मजा ये खुद अंग्रेजों के साथ मिल कर बांच रहे थे।

लेकिन इस आंदोलन पर लाठीचार्ज देश के फर्जी लोकतंत्र के खात्में की शुरूआत है। पहले से ही कौन सा लोकतंत्र इस देश में था। ये सवाल हर बार किसी भी आदमी को सोच में डाल देता था।सारे कानून बनाने वाले अग्रेंजों की फेंकी गई कतरनें पहन कर फैशनेबल बने थे और बाकि जगह गली के गुंडों के लिए छो़ड दी थी। क्या कोई ये सोच सकता है कि शाहबुद्दीन, सूरजदेव सिंह, डी पी यादव, अमरमणि और हरिशंकर तिवारी माननीय हो सकते है। ये सब लोग माननीय थे है औऱ रहेंगे। कभी भी देश जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाया। और यही वो ताकत थी जो दिग्गी जैसे चिंदीचोर को देश का प्रवक्ता बना देती है। किसी भी बाहर के आदमी को देखकर झटका लग सकता है कि इस आदमी या इसके खानदान का देश को क्या योगदान है। लेकिन ये आदमी देश की दिशा तय करने में योगदान देता है।

दिग्विजय से लोग क्यों नहीं डरते,

"अगर सरकार किसी से डरती तो वो जेल के अंदर होता है।" कुछ ऐसा ही बयान दिया है बाबा (रामदेव) के आंदोलन के बारे में कांग्रेस के कारामाती महासचिव दिग्विजय सिेंह ने। अमरसिंह के नये अवतार है दिग्विजय सिंह। बेचारे जबां की खारिश की चपेट में है। सोचते है कि वो जो बोलते है वो गजब का होता है। एक के बाद एक बयान देश सुन चुका है। मध्यप्रदेश को छोड़कर दिग्विजय की पहचान देश में राज कर रही पार्टी के महासचिव की है और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को एक पार्टी के तौर पर राज्य से गायब करने की। सारे वक्तव्य याद दिलाने की जरूरत नहीं है। दिग्विजय का मुंह मीडिया का कैमरा देखते ही खुल जाता है इसके बाद आपके मुंह से जो निकले वो ही खबर है। सो इस बार भी खुल गया। और देश की उस जनता के सामने जो दिग्विजय में एक मसखरें को देखती एक नया मसाला मिल गया।
ये सरकार भी गजब की है। एक दो नहीं चार-चार मंत्री बाबा रामदेव का स्वागत करने एअरपोर्ट पहुंचते हैं। बाबा रामदेव के साथ वार्ता करते है। उनसे आंदोलन वापस लेने के लिए बात करते है। उसी पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह बयान जारी करते है कि योग गुरू के नाम से प्रसिद्ध रामदेव को योग नहीं आता है। दिग्विजय को लगता है बाबा खुद अरबपति हो गये और गरीबों की बात करते है। बेचारे दिग्विजय की परेशानी है कि बाबा ने माल काट लिया और हिस्सा भी नहीं मिला।

Friday, June 3, 2011

मीडिया के बुद्ध और जनता की ममता

अबीर-गुलाल उड रहा था। कोशिश थी कि रंग हरा ही हरा दिखें। लेकिन गुलाल-अबीर में लाल रंग बचा है सो दिख रहा था। कोलकाता या कहिये सारा बंगाल मस्ती के आलम में था। ये बंगाल के रंग बदलने की मस्ती थी। लाल बंगाल हरा हो गया। चौंतीस साल तक जो बंगाल लाल था वो अब हरा है। बुद्ध के देवत्त से बंगाल ममता की छांव में आ गया। मीडिया के गपौड़ियों और बे-सिर पैर के तर्क देने वाले बक्कालों के पास बहुत सारी कहानियां रातो-रात आ गयी। ऐसी कहानियां जिनके मुताबिक लेफ्ट ने अपनी नीतियां खो दी थीं। वो आम जनता से दूर हो गया था। इसके लिए उनके पास बहुत सारे उदाहरण भी है। वामपंथियों को सबसे ज्यादा गरिया रहे रिपोर्टर कम एंकरों के पास जो सबसे बड़ा मुद्दा है- परमाणु मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना। इन लालबुझक्कड़नुमा पत्रकारों के पास हर चीज का प्रोम्पटर पर लिखा हुआ समाधान है। ये सर्वज्ञानी है। ये अलग बात है कि जिस कोर्स से पढ़ कर आएँ हैं उसमें थर्ड डिविजन से पास होंगे और या फिर आईएएस का एक्जाम फेल कर यहां पहुंचे होंगे। यदि मार्क्सवादियों का सबसे बड़ा दोष यहीं है तो फिर टीवी चैनल्स और अखबारों ने तब हल्ला क्यों मचाया जब जापान में सुनामी की चपेट में आएं परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा का मुद्दा उठा। न इन बेचारों को परमाणु मुद्दे का पता न बंगाल का। बस इनको रन डाउन के हिसाब से बोलना था। परमाणु मुद्दें पर बहस करने वाला ऐंकर अगले ही पल गांव में पंचायती फैसलों पर होने वाली हिंसा पर बोलने के लिये तैयार था। क्या गजब का विस्तार है इनकी समझ का। लेकिन माफ करना हम यहां बात बंगाल की कर रहे है। तो वहीं पर बात करते हैं। बात शुरू हुई कि वामपंथी क्यों के हारे के मीडिया चिंतन पर।
मीडिया के मार्किट के दलालों की भूमिका का सबसे बड़ा और आसानी से समझ में आने वाला उदाहरण है ममता की गलतियां बताने वाला एक आर्टिकल। नवभारत टाईम्स के मुताबिक ममता ने टाटा को बंगाल के बाहर का रास्ता दिखाकर अपनी राजनीतिक अपरिक्पक्वता का परिचय दिया। अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें अपनी भूल सुधारनी होंगी। इस वक्त्वय के दो मतलब है। एक कि ममता ने टाटा का विरोध किया -गलती की। तब टाटा का समर्थन करने वाले वामपंथियों को इसका फायदा क्यों नहीं मिला। माना वामपंथियों की गलतियां ढ़ेर सारी थीं इसीलिए इस का फायदा नहीं मिला तो दीदी की पार्टी को दूसरी बार उस इलाके से इतना भारी जनसमर्थन क्यों मिला। इसका कोई जवाब दलाल पत्रकार नहीं दे पाएंगे। इसके लिए उनको ईमानदारी से काम करना होगा। लेकिन वो कर नहीं सकते। सत्ता की दलाली, देश को लूट रही मल्टीनेशनल कंपनियों के एडवर्टाईजमेंट का लालच और दूसरे मालिकों की हित साधना ये ऐसे रोड़े है जो बेचारे दलाल पत्रकार का गला दबाते रहते हैं।
बात फिर ममता दीदी पर। इस देश में दिया लेकर कर खोजनें पर भी सत्ता में ऐसी ईमानदारी ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी। 14 बाई 12 के लगभग की उस खोली में रह रही दीदी सालों से सत्ता में ताकतवर भूमिका में रही है। लेकिन उनका लाईफस्टाईल आज भी वहीं है। सूती धोती-हवाई चप्पल पहनने वाली दीदी उन सबके मुंह तमाचा है जो पत्थर के हाथियों को खड़ा कर गरीब दलितों का दर्द या अपने लिए हजारों जोड़ी जूतियों खरीद कर राज्य के करोंड़ों नंगें पैरों का दर्द दूर करने वाली महारानियों की तारीफ करते हैं। इस देश को ममता की छांव की जरूरत हैं। उसी ममता की छांव जिसने यादव शिरोमणि या आय से अधिक संपत्ति की रेल में बैठने वाले लालू के झूठ का पर्दाफाश किया। सालों तक दलाल पत्रकारों और लुटेरी मल्टीनेशनल कंपनियों और भ्रष्ट्र नौकरशाहों के दबावों को झेलते हुए गरीब आदमी का रेल किराया नहीं बढ़ाया। ऐसी ममता दीदी देश के करोड़ों गरीब आदमियों की आखिरी उम्मीद है लेकिन दलाल पत्रकार उनके दिमाग में ये बैठाने में जुट गएं है कि आपको क्या करना है क्या नहीं। ये वही दलाल पत्रकार है जो अब दीदी को ये समझाने में जुट गएं है कि आप जिसे अपनी ताकत समझ रही हो वो आपकी ताकत नहीं है। जो हम बता रहे है वो आपकी ताकत है। और ये उनको दलाली की भाषा समझा रहे है। चूंकि न तो दीदी को इन लेखों को पढ़ना है न ही अपनी समझ उस जननेता को समझाने की है लेकिन हमारी समझ में दीदी पहली गलती कर चुकी है, अमित मित्रा जैसे पुराने घाघ अर्थशास्त्री को वित्त मंत्री बनाकर। ये उन्हीं लोगों में शामिल है जो देश में लाखों किसानों की मौत की जिम्मेदार नीतियां बनाने के लिए जिम्मेंदार है अब वहीं किसानों के हक में नीतियां बनाएंगें।