एक के बाद एक साहित्याकार अवार्ड लौटा रहे है।वो सब केन्द्र की चुप्पी से नाराज है। दादरी से लेकर दिल्ली के दंगों तक सब में सरकार की चुप्पी से बहुत दिनो बाद इन महान साहित्यकारों को याद आया कि उनका बोलना जरूरी है। दादरी में गांव कौन सा है। गांव में क्या हुआ। गांव का क्या हाल है ये सब इनको मीडिया से जानकारी मिली है। उसी मीडिया से जिसकी पीपली लाईव्स किसी भी समझदार इंसान को दिख रही थी। लेकिन इन समझदार साहित्याकारों को नहीं। शुरूआत हुई उदय प्रकाश जी से और टिवाऩा तक पहुंच गई। ये तमाम लोग देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के खिलाफ है। इस बात का दावा तो किया जा सकता है कि ये लोग गांव के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक भूगोल से पूरी तरह अनभिज्ञ होंगे। ये लोग ये भी नहीं बता सकते होगे कि गांव में कितने मोहल्ले है और किस मोहल्ले में किस जात धर्म के लोग है। इस गांव में कितने स्कूल है, मंदिर है और मस्जिद है। इस घटना में क्या हुआ। किस पर इस घटना की जिम्मेदारी है. किसको पुलिस ने पकड़ा और क्या कार्रवाई हुई। मीडिया ने पीपली लाईव शुरू किया और राजनेताओं ने चुनावी रोटियों पर घी लगाया। और फिर इस में अपनी ही दुनिया में भूला दिए गए साहित्यकारों को भी रोशनी दिखने लगी। बिना किसी जानकारी के बिना किसी तहकीकात के उन लोगो ने अवार्ड लौटाने शुरू कर दिये। ( ज्यादातर लोगों को मिले अवार्ड के बारे में सिर्फ अवार्ड देने वाले और लेने वाले के अलावा किसी को ज्यादा जानकारी नहीं थी) और अवार्ड लेने के वक्त किसी भी टीवी ने उनकी खबर नहीं दिखाई होगी ये शीशे की तरह साफ है इस पर शर्त भी लगाई जा सकती है। और रही बात अखबारों की ज्यादातर में खबर ही नहीं छपी होगी और अगर किसी में भूले-भटके छपी होगी तो अंदर के पेज पर एक छोटे से कॉलम में। इनके लेखन पर कितने लोगो ने बात की होगी इस पर इसी तरह संशय है जैसे कि इनके अवार्ड मिलने के समय लोग खुश हुए होंगे। इनके लेखन से किसी को लेना-देना नहीं है लेकिन सेक्युलर के नाम पर एक सुविधाभोगियों की ब़ड़ी होती पीढी ने इनके अवार्ड वापस करने की प्रक्रिया हो हाथो-हाथ लिया क्योंकि ये उनको शूट करता है और इसी के साथ मीडिया ने जिसको अगले आधे घंटे का प्रोग्राम सोचना होता है देश नहीं
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