Friday, October 16, 2015

दरिंदों को सजा जरूर दिलाना साहब।

दिल्ली के बेहद पास दादरी है। और दिल्ली के पास हापुड़ है। दादरी में गांव में एक आदमी की हत्या एक भी़ड़ ने कर दी। भीड़ को शक था कि अखलाख ने गाय से गायब हुए बछड़े का मांस खाया है। भीड़ ने युवा थे। और फिर देश में एक आंधी उतर आई। जिसका असर हुआ कि नयनतारा सहगल और टिवाना ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिये। 
दूसरी हापुड़ में एक हफ्तें पहले एक युवती के साथ उसके घर में घुस कर दो युवको ने बलात्कार किया। और विरोध करने पर युवती पर तेल डालकर आग लगा दी गई। परिजन रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो भगा दिया गया क्योंकि थानेदार साहब उस वक्त सो रहे थे। महिला को अस्पताल में भर्ती किया गया। तीसरे दिन लोकल अखबारों की नजरे करम हुई खबर छपी और फिर समाजवाद की सेवा में जुटी उत्तम पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर महिला और उसके परिजनों पर अहसान कर दिया। महिला ने सात दिन तक मौत से लडाई लडी लेकिन हार गई। किसी टीवी चैनल पर खबर देखने को आंखें तरस गई। और हींउसकी मौत की खबर के बाद पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार भी कर लिया। लेकिन मौत की खबर पढ़ने से भी दर्दनाक था कि महिला का मरने से पहले पुलिसवाले को बयान देते वक्त ये कहना कि साहब उन दरिंदों को सजा जरूर दिलााना ताकि वो किसी और के साथ ऐसा न कर सके। आंखों के आंसू अब समाज की आंखों में किसी के लिए बचे नहीं है। हमारी आंखो से आंसू अब अपनों के लिए खुल कर बहते है या फिर टीवी चैनलों पर बाईट देते हुए भावुक होता दिखने के लिए आते है। लेकिन ये दर्द से दोहरा कर देने वाली आवाज थी। मरते हुए भी वो महिला किसी और को बचाने के लिए दरिंदों को सजा दिलाने की फरियाद कर रही थी। दर्द के बीच भी दूसरो को दर्द से बचाने की अचेतन में छिपी हुई चेतना। लेकिन वो बेकार प्रार्थना कर रही थी। जिस पुलिस से वो इस बात की फरियाद कर रही थी उसके थानेदार सोते वक्त बदनसीबों को भगा देते है। उसके सिपाही दिन भर की वसूली से शाम की अय्याशी का इंतजाम कर सकते है। इस वक्त वर्दी पर लगे हुए दागों को देखने से आपकी आंखें पत्थर न हुई हो तो फिर किसी भी चौराहे पर रात-दिन किसी भी वक्त जाकर देख सकते है। और यदि हौसला बचा हो तो सिर्फ एक दिन थाने के सामने ख़ड़े होकर देख लो इनसे क्या फरियाद की जा सकती है। हर रोज यूपी में बलात्कार की ऐसी कहानियां सामने आ रही है जो किसी के भी रोंगटें खड़े कर रही है। रोज आपको बहन बेटी को लेकर चिंता से जूझते हुए घर पहुंचने का फोन आने तक सांसों सो रोके रखना होता है। लेकिन दो घटनाओं का जिक्र इसलिये कि दिल्ली से पचास किलोमीटर दुूर की दोनो घटनाओं में मीडिया और साहित्याकारों का रवैया आंखे खोल देने वाला है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आसमान को कंपा देने वाले लोग यहां नहीं पहुंच सकते। दूर दूर से गाय को काटने के अधिकार के लिए दुनिया आसमान एक देने वाले संगठन यहां से गायब है। उन महिला पत्रकारों को बहसते हुए देखता हूं जिन्होंने एक भी किताब इन साहितयकारों की नहीं पढ़ी है लेकिन उनको लगता है कि ये युग परिवर्तक साहित्यकार क्रांत्रि कर रहे है। ये लिखते हुए जेहन में साफ तौर पर है कि लोगो को एक मिनट नहीं लग रहा है कि किसी को कठघरे में खड़ा करने लेकिन साफ कहना जरूरी है। अगर अशोक वाजपेयी और उदयप्रकाश जैसे अखड़ेबाज इस वक्त सेक्युलरिज्म के साथ खड़े दिख रहे है तो इसमें उनकी सत्ता से दूरी की छटपटाहट है और बाकि सबको अपना नाम मीडिया में न दिखने की छटपटाहट। रोज रोज एक के बाद एक बलातकांर की शिकार महिलाओंं, बच्चियों और युवतियों की दर्दनाक कहानियां सिर्फ अपराध के पन्नों पर टीआरपी के लिए सामने आ रही है। कोई रिश्ता ऐसा नहीं बचा जो कलंकित नहीं हो रहा हो। लेकिन महान साहित्यकारों ने इस के खिलाफ मुहिम छेड़ने की जिम्मेदारी मुंबईया फिल्मकारों पर छोड़ दी है जिनको सबकुछ दिखाने की छूट चाहिए। किसी साहित्य में इऩ महिलाओं का दर्द मैंने साया होते हुए नहीं देखा। किसी महान साहित्यकार ने नौएडा से शाम के वक्त निकलती भीड़ में दौड़़ती उन महिलाओं पर कलम नहीं चलाई जो अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी देने के लिए भेड़़ियों के बीच छो़ड़ देती है। पुलिसिया जुल्म की हदें रोज नए मानक बनाती जा रही है किसी को नहीं लग रहा है कि जाति के दम से टके से नेता देश के नीति निर्धारक बन रहे है जो बलात्कार जैसे संगीन जुर्म को लड़़कों से गलती होना बता रहे है। लेकिन वो एक किस्म की सेक्यूलरिज्म के नायक है। लूट के नायक और सेक्युलरिज्म के नायक होना एक जैसा होना साबित कर दिया हिंदी पट्टी के लोगों ने। दादरी की घटना पर यूएऩ जाने वाले आजम को मुस्लिम आवाज बनाने वाले महान मीडिया ने कभी नहीं पूछा मुंबई मेंरोटी की तलाश में पहुचे हिंदी पट्टी के नौजवानों पर हमला करने वाले शिवसैनिकों या हुड़दंगियों के खिलाफ कब दुनिया की सबसे बड़ी अदालत में जाएंगे। पत्रकार के तौर पर मैं इलाके की मिट्टी से काफी दूर तक जुड़ा रहा। लेकिन सेक्युलरिज्म के नाम पर झंडा बुलंद करने वाले लोग इतना नासमझ बन कर दिखाते है कि एक तरफा कार्रवाई के मायने क्या होंगे। रोज मिलने की बात से अलग अगर आप दादरी में एसडीएम की अखलाख के घर वालों को धमकी करी खबर का सच उसके वीडियों में देख लेगें तो आपका मन थप्पड़ मारने का नहीं बल्कि थूकने का जरूर कर जाएंगा इस बौने मीडिया पर। मीडिया इस वक्त देश के लिए एक खतरे की तरह उभर रहा है। आधे घंटे का बुलेटिन या फिर एक लाईव चैट के लिए कही नौकरी न मिलने का फ्रस्टेशन लिए घूम रहे नायक देश की मिलीजुली संस्कृति बचाने के लिए पांच सौ शब्दों का अपना शब्दकोश पूरा उछा ल देते है। एक बार एक सेमीनार में मुंह से निकला था कि मीडिया एक तरह से डेमोक्रेसी के खिलाफ खड़ा दिखता है। टीआरपी ने बुद्दि पर ऐसा जहर बैठा दिया कि सच को देखने और समझने के बावजूद सेक्युलरिज्म के नाम पर झूठ परोसने से गुरेज नहीं। लोगों का गुस्सा नहीं दिखता है। मीडिया की लाईन और आम आदमी की लाईऩ एक दूसरे के खिलाफ खड़ी दिखती है। दरअसल मुजफ्फरनगर के दंगों का सच जिस तरह से हर्ष मंदर जैसे महान मानवाधिकारवादी को दिखा वैसा उस अखबार के रिपोर्टर को नहीं जिसके अखबार में हर्ष मंदर का लेख छपा। मैं कई बार हैरत में रहता हूं कि सच कहने से डर रहे लोग रूम के अंदर अपना डर निकालते है लेकिन बाहर निकल कर उनको सच कहने में परहेज होता है। शोभा डे कितनी महान साहित्यकार है ऐसा उनको ही मालूम होगा क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में उनकी किताबों की ब्रिकी का डाटा जरूर उनके पास होगा यहां तो किसी स्टॉल पर नहीं दिखी। वो अपनी ललकार बीफ पर जरूर निकालती है लेकिन रश्दी के नॉवल को पढ़ा या नहीं उस पर नहीं बताती। उसको मुंबई में बिकवाएँगी कि नहीं इस पर अपनी राय नहीं देती। दरअसल इन भ्रष्ट्र साहित्याकारों से निवेदन है कि इस झूठ के नाटक से सच का खतरा दूर नहीं होता है। खतरा जरूर है आपके सामने लेकिन वो आपके झूठ से आया है। भेड़िया आया भेडिया आया कह कर पिछले चालीस सालों से देश के तमाम शिक्षण संस्थानों पर कब्जा जमाने वाले वामपंथियों से तकाजा था कि वो जनता की आवाज पहचानेंगे झूठ के नाम पर चल रही धर्मनिरपेक्षता की आवाज का को सुनकर जनता के करीब पहुंचेंगे। लेकिन अब वो उस इतिहास में समा रहे है जिसको बदलने के लिए उन्होंने लोगो की आंखों में धूल झोंकी। अपना इन साहित्याकारों से सिर्फ ये ही कहना है देश में लूट, बलात्कार और जातिवाद के नाम पर रोज हो रही हत्याओं पर भी कभी विरोध करके दिखाओं। या सिर्फ नाटक के नाम पर नाटक ही करते रहोंगे। अभिमन्यु अनत की कुछ लाईऩों के साथ अपनी बात खत्म करता हूं।
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जब दिन-दहाड़े 
गाँव में प्रवेश कर 
वह भेड़िया खूँख्वार
दोनों के उस पहले बच्चे को 
खाकर चला गया 
दिन तब रात बना रहा 
गाँव के लोग दरवाज़े बंद किए 
रहे रो-धोकर अकेले में 
एक दूसरे को दूसरे से 
आश्वासन मिला । 
कोई बात नहीं अभी तो पड़ी है ज़िन्दगी 
जन्मा लेंगे हम बच्चे कई 
झाड़ियों के बीच पैने कानों से 
एक दूसरे भेड़िये ने यह सुना 
अपनी लंबी जीभ लपलपाता रहा

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