Saturday, October 24, 2015

खतरा हम खुद है और इधर-उधर देख रहे है।


हर घटना एक दम लाईव। आंखों के सामने। सच का सच। दूध का दूध, पानी का पानी। शीशे की तरह साफ। ये सब अलग अलग मीडिया की टैगलाईन है। कोई भी किसी की हो सकती है। बहुत ही मंझें हुए लेखकों ने बहुत माथापच्ची कर लिखी है। आखिर हर लाईन का मकसद अपने अर्थ के लिए कोई समर्थन हो या न हो लेकिन जनता की आंखों में चढ़ जाना होता है। और जनता ने इस पर यकीन कर लिया। मीडिया इस वक्त देश के सिर चढ़ बोल रहा है। आदमी के हर विचार पर मीडिया के किसी न किसी हिस्से का प्रभाव है। कोई न कोई रिपोर्टर किसी न किसी समुदाय के लिए एक मसीहा में तब्दील हो रहा है। लेकिन खुद मीडिया किस चीज में तब्दील हो रहा है इस पर मीडिया के अंदर बहस बंद है। फिल्मस्टार की हैसियत हासिल के लिए आतुर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रणबांकुरें तो इलेक्ट्रानिक से भी ज्यादा चरपरे अंदाज में खबर लिखने के लिए तैयार कलम के महारथी। और इस बीच में खबर कहां चली गई कोई खबर नहीं। यूं तो खबरों को लेकर बहुत ज्यादा सजग होने के दिन काफी दिन पहले ही चले गए। लेकिन सिर्फ भड़काऊ चीजों को खबर बनाते हुए देखना काफी देने से एक मजबूरी के कर्म में तब्दील हो चुका है। और हैरानी की बात सिर्फ मीडिया के लिए है कि जनता उनको बुद्दिजीवि क्यों नहीं समझती है। उनकी आवाज जनता के लिए नक्कारखाने में तूती क्यों बन रही है।  लेकिन जनता के लिए कोई हैरानी नहीं कि वो आसानी से ये निशान लगा देती है कि कौन पत्रकार किस पार्टी के लिए खड़ा हुआ रिपोर्ट कर रहा है।  
रिपोर्ट को किस अंदाज में लिखा जा रहा है ये पता करने के लिए किसी भी आदमी को उस जमीन पर जाना चाहिए। मैं यहां सिर्फ मीडिया के लोगो से बात कर रहा है और खासतौर से उनके लिए जो अपनी लेखनी में आग भर देते है बिना किसी घटनास्थल पर जाए बिना। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगो को अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्होंने क्या देखा और उऩ्होंने क्या चलाया लेकिन इसके बाद भी ये लोग घटना स्थल से हजारों किलोमीटर दूर बैठे हुए ये देख लेते है कि गांव में एक आदमी को पूरे गांव ने मिलकर मार डाला। गांव का ढ़ांचा क्या था। गांव में रहने वाले लोगो की अंदरूनी राजनीति क्या थी, गांव में आर्थिक और सामाजिक यर्थाथ क्या है इसका कोई ब्यौरा नहीं उनको संजय दृष्टि मिली हुई है और उसका इस्तेमाल वो बहुत सधे हुए अंदाज में करते है। यहां किसी का नाम नहीं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि अपनी जाति घृणा को वो देश की घृणा में कैसे बदलते है अपनी इच्छा को खबर में कैसे तब्दील करते है बिना ये जाने (या जानबूझकर कह नहीं सकता ) कि मौके पर खबर क्या थी। दो उदाहरण इसके लिए बहुत मौंजू है।
शुरूआत करते है सुनपेड़ गांव से। फरीदाबाद से लगा हुआ ये गांव लगभग 1800 वोटों का गांव है। खेत अब शॉपिंग कॉप्लेक्स और अपार्टमेंट में बदलने के लिए करोड़ो के खरीदे-बेचे जा रहे है। गांव में लगभग 800 घर दबंग ( जाति परंपरा और इतिहास से सिद्द) राजपूतों जाति के है। 300 घर दलितों के है। (बात रिपोर्टिंग की हो रही है और चीजों पर मैं कभी भी कही बहस में हिस्सा ले सकता हूं) बाकि घर अन्य जातियों के है जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी शामिल है। सोमवार की सुबह की खबर मिलती है कि दंबगों ने दलितों के घऱ आग लगाकर एक जिंदा जलाने का एक खौंफनाक मामला। जल्दी से मौके पर रवाना। तब तक देश के तमाम बड़े टीवी चैनल्स और अखबारों की वेबसाईट्स पर आकाशवाणी हो चुकी थी दबंग राजपूतों ने दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया और बच्चों के मां-बाप गंभीर रूप से घायल है और दिल्ली के अस्पताल में भर्ती है। गांव में तनाव की काफी गंभीर जानकारी और फोनो टीवी चैनल्स पर चल रहे थे।
गांव के बाहर से पुलिस की भारी मौजूदगी आपको अनहोनी होने की सूचना दे देती है। आलाअधिकारियों की गाड़ियों के बजते हुए वायरलैस सेट्स भी ये बताने लगते है कि इस घटना में अधिकारियों की बदली हो सकती है लिहाजा वो अपनी खाल या नौकरी जो भी कह सकते है बचाने के लिए मंदिर से होकर घटनास्थल तक जा सकते है। गांव की एक गली से घुसते ही चार-पांच घर और एक खाली प्लॉट के बाद जितेन्द्र का मकान है। गली भी पक्की है और मकान भी पक्के है। घर के अंदर घुसते ही एक बड़ा सा लोहे का गेट है और फिर घर के आंगन में दर्द से भरी आवाजे। गैलरी से खुली खिड़की से पेट्रोल छिड़का गया था और अंदर बेड पर जले हुए गद्दे है। फिर थोड़ी देर बाद में जितेन्द्र भी अपने दोनो हाथों पर पट्टी बंधवाएं हुए आ जाता है। सब कुछ गवांकर बैठे हुए आदमी के रोने की आवाज और टूटी हुई उम्मीद का चेहरा दोनो भाव आपको उसके चेहरे तो देखते ही समझ में आ जाते है। बात हुई उसने कहा कि राजपूतों ने मारा है।
क्या सारे गांव के राजपूतों ने
नहीं साहब मैं ये नहीं जानता कि सारे गांव के राजपूतों ने बस मैं तो ये जानता हूं बलमत से परिवार से दुश्मनी है।
पुलिस का क्या रोल है
पुलिस भी उन्हीं का साथ देती है सवर्णों का साथ देती है पैसे वालों का साथ देती है।
पहरे पर छह पुलिस वाले थे उनका क्या हुआ
फिर आप घर से बाहर निकलते हो तो घर के सामने एक गली और गली में सारे मकान दबंग राजपूतों के। जितेन्द्र के घऱ के बराबर में एक और घर और फिर वो गली जिसमें दबंग बलमत का परिवार रहता है। उसी गली के नुक्कड़ पर बने घेर में बैठे हुए दबंगों से बातचीत।( मीडिया के लिए हर राजपूत दबंग है और उतना ही हत्यारा है जितना बलमत और उसका परिवार)
दलितों पर अत्याचार करते है आप
हम तो नहीं करते
अरे आपने जलाकर मार दिया
गांव का कोई आदमी थोड़े ही शामिल है। बलमत और उसके परिवार वालों की दुश्मनी चल रही है उनसे तो उऩके बीच का मामला है गांव का कोई दूसरा इस लड़ाई में शामिल नहीं है
लेकिन आग लगाने में कोई और लोग तो होंगे
अगर गांव को दलितों से दुश्मनी होती तो जब पिछले साल जगमाल हर ने इनके तीन जवान यही चाकू घोंप कर मार दिए थे तभी न उजाड़ देते इन्हें।
फिर इसके बाद वापस जितेन्द्र के घऱवालों से बातचीत कर पूछा  तो उन्हेंने बताया कि बलमत के परिवार के लड़के का मोबाईल नाली में गिर गया था जिसे निकालने के लिए जितेन्द्र के भाई को कहा और उसके मना करने पर राजपूतों ने उन पर हमला बोल दिया। चाकू और बल्लम से आए हुए राजपूतों के तीन लोगो की चाकूओं से गोद कर मौत हुई। इस मामले में जितेन्द्र के परिवार के 11 लोग जेल में गए। और रिपोर्ट और गांव वालों की कहानी के मुताबिक ठीक फोन जितेन्द्र के चाचा और गांव के तत्कालीन सरपंच जगमाल ने दबंग राजपूत के हाथ से छीनकर नाली में फेंक कर रहा था ये रहा मोबाईल उठा ले। और झगड़ा शुरू हुआ और नामजद लोगो ने ( जितेन्द् के परिवार वाले) बलमत के परिवार के लोगो पर हमला बोल दिया दो लोगो की घटनास्थल पर और तीसरे की मौत अस्पताल ले जाते हुए हुई।
घटना का वर्णन था कि इसके बाद से बलमत का परिवार और जितेन्द्र का परिवार एक दूसरे का जानी दुश्मन बन गया था जिसके बाद ये दहला देने वाली घटना को अंजाम दिया गया।
अब मीडिया रिपोर्ट और मौके की रिपोर्ट में जमीन आसमान में अंतर आ गया। गांव में राजपूतों की दबंगई की कहानी सिर्फ मीडिया की रिपोर्टरों के पीटीसी में और खबरों में थी गांव में नहीं। ये दो परिवारों की जानलेवा रंजिश की कहानी थी जिसमें बदला लेने के लिए दो मासूम बच्चों को जला दिया गया। लेकिन पूरी कहानी देश भर में घूम गई दलितों को दबंगों के जलाने के नाम पर। हां असली कहानी थी पुलिस की लापरवाही की। पुलिस के मुताबिक जितेन्द्र के परिवार वालों को छह पुलिसकर्मी गांव में सुरक्षा के लिए दिए गए थे। ऐसे में वो पुलिसवाले कहां थे। गांव में जागरण था जहां सब लोग थे पुलिस वाले भी क्या जागरण में चले गए थे। उन पुलिसवालों और उनके अधिकारियों की बर्खास्तगी की मांग तो कही से आई नहीं लेकिन केन्द्र सरकार को घटना में बर्खास्त और इस्तीफा देने की मांग काफी लोगो ने बहुत जोर उठाई।
ऐसा नहीं कि दबंगों का दलितों पर अत्याचार नहीं है। जाति के चलते रोज हजारों दलितों को देश भर में अपमान सहना पड़ता होगा। और बहुत से गांवों में दलितों की हालत सवर्णों की दबंगई से वाकई सोचनीय हालत में होगी। लेकिन क्या उन सारे आरोपों को किसी दूसरी घटना पर मढ़ा जा सकता है। ( मैं ये नहीं छिपा रहा हूं कि मैं खुद इस घटना में शामिल दबंगों की जाति से ताल्लुक रखता हूं लेकिन किसी दबंगई में कभी शामिल नहीं हुआ।
इस घटना के बाद राजनीति शुरू हो गई। और फिर उस परिवार ने भी इस मामले को दलित बनाम दबंग बना दिया। क्या इस घटना को हजारों किलोमीटर दूर बैठकर देख रहे किसी दलित या दबंग को सही सूचना मिल पाई। बाकि तमाम चीजों को छोड़ दीजिए क्या इस घटना से आसानी से किसी भी गांव में तनाव नहीं बढ़ाया जा सकता है। और हरियाणा में तो ये और भी आसान है मिर्चपुर की घटना ने किस तरह से दलितों को गांव छोड़ने पर मजबूर किया था क्या दूर बैठे आदमी को ये घटना भी उसी जैसी नहीं लगेगी। लेकिन ये तो आम आदमी की बात है मैं सोशल मीडिया में इस घटना के बाद संजय दृष्टि के पत्रकारों को देखा जिन्होंने सीधा खांडा चलाया केन्द्र सरकार पर। मुझे लगा कि दोस्तों बार बार भेडिया आया भेडिया आया चिल्ला रहे है।
दूसरा घटनाक्रम रहा बिसाहड़ा। उस घटना ने वाशिंग्टनपोस्ट और बीबीसी जैसे अखबारों को लिखने पर मजबूर किया। गांव के बाहर पीपली लाईव्स देखा जा रहा था। इस घटना को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को गांव की कितनी जानकारी थी नहीं पता। लेकिन 8000 की आबादी वाले गांव के अलग-अलग तीन हिस्सों में पचास के करीब मुस्लिम परिवार रहते है। एक तरफ शक्के और धोबी तो दूसरी तरफ रहने वाले लुहार और बढई। गांव में अलग-अलग मोहल्ले खानदान और कुटुंब के नाम से बसते है ( शायद ये सब को पता हो खासतौर पर संजय दृष्टि वालों को) एक हिस्से में रहने वाले मुस्लिम परिवारों की जमीनों का मालिकाना हक अभी भी राजपूत परिवारों के पास है ( ये भी संयोग है कि इस बार भी हत्या राजपूतों ने ही की है) और जिस मोहल्ले में ये घटना हुई है वो मोहल्ला परतापुरियों का कहलाता है। उस मोहल्ले में अखलाक की हत्या हुई। हत्या का कारण अफवाह थी। और हत्या में सैकड़ों लोग शामिल थे। हत्या के चश्मदीद गवाह अखलाक का परिवार था। परिवार ने लगभग दस लोगो को पहचान लिया और कहा कि भीड़ में बाकि का नाम-पता मालूम नहीं।  पुलिस ने भी भीड़ में सैकड़ों शब्द का इस्तेमाल किया। लेकिन संजय दृष्टि ने पूरे गांव को लपेट लिया। गांव का हर आदमी, बच्चा और औरतें हत्यारों में तब्दील कर दिए गए जो भी मुसलमान नहीं था। गांव की आबादी आठ हजार और चश्मदीद का बयान सैक्ड़ों लेकिन मीडिया का खुला खेल फर्रूखाबादी गांव का हर आदमी हत्यारा। एक प्रिय मित्र की टिप्पणी मैंने पढ़ी जिसमें लिखा था कि गांव में एक आदमी ने बकरे का मांस खाया था लेकिन पूरे गांव ने आदमी का मांस खाया। ये किस तरह का अतिवाद है। मैंने बहुत से महान पत्रकारों को उस घटना को रिपोर्ट करते हुए देखा। बड़ी महीन रिपोर्टिंग करते हुए। मैं खुद ही वहां रिपोर्ट करने नहीं गया बहुत दिन तक। फिर एक दिन मैंने एक वीडियो देखा जो मुझे टैग किया गया कि किस तरह समाजवादी पार्टी का एक एसडीएम अखलाख की फैमिली को डराने वहां गया था और उसे रिकॉर्ड कर लिया गया। उस वक्त वहां अखलाख के समर्थन में वहां पहुंचे मुस्लिम संगठनों ने उस एसडीएम को दौडाया था और इस बात को मीडिया ने रिपोर्ट किया था। बाद में इस घटना को लेकर एक एफआईआर होने की बात हुई तो ये वीडियो शेयर हुआ। सालों तक स्पाई कैमरों से ही काम किया। और उनकी ईज्जत की। लिहाजा एक एक फ्रेम देखने की आदत हो गई थी। इस वीडियों को सुना और लगा कि ये क्या हालत हो गई है इस मीडिया की। वीडियों की शुरुआत में ही एंबियेंस है जिसमें बाहर से आऩे वालों को एक आदमी बता रहा है (पूरे वीडियो के बाद आप समझते है कि ये पत्रकार महोदय थे) कि ये एसडीएम अंदर सच न बोलने के लिए धमका रहा था परिवार वालों को तो फिर एक आवाज आती है कि उसको रिकॉर्ड किया तो वो कहता है नहीं लेकिन वो लोग एसडीएम को धमकाने पहुचते है और कहते है कि आपने अंदर परिवार को धमकी दी है कि सच मत बोलना नहीं तो गलत परिणाम भुगतने होंगे भीड़ से अचकचाया हुआ एसडीएम कहता है कि अरे भाई मैंने कुछ नहीं कहा तब वो पत्रकार एक माईक लेकर पहुंचता है चिल्लाता है मैंने सुना है और उसको रिकॉर्ड किया है। इसके बाद वो बाहर से गांव के मुसलमानों को सुरक्षा देने आया हुआ खुदाई खिजमतगारों का दस्ता उस एसडीएम के पीछे पड़ जाता है। हालात नाजुक होते देख कर एसडीएम अपनी गाडी की ओर भागता है लेकिन गांव के बाहर खड़े पीपली लाईव्स को असली जिंदगी बनाने में तुले पत्रकारों का जत्था उस एसडीएम के मुंह पर माईक लगाने लगता है। एसडीएम भाग कर गाड़ी में बैठता है निकल जाता है और फिर वो रिपोर्टर बाकि रिपोर्टरों को कहता है कि मेरा नाम सद्दाम हुसैन है मैं पत्रकार हूं मेरा इँटरव्यू लीजिये मैंने रिकॉर्ड किया है और इलेक्ट्रानिक मीडिया के महारथी इस पर लाईव्स शुरू कर देते है और खबर पैदा होती है एसडीएम ने परिवार तो मुंह खोलने पर परिणाम भुगतने की धमकी दी। एक दो चैनल्स ने रात को इस पर शो किए और काफी बहस भी की। मैंने अभी उस रिकॉर्डिंग को नहीं सुना जिसमें एसडीएम ने धमकी दी। पत्रकार के तौर पर मैं पहले उसी रिकॉरिंग को सुनता क्योंकि ये मामला तो राज्य सरकार के खिलाफ जा रहा है जबकि मामला रिपोर्ट हो रहा है मोदी के खिलाफ। इस रिकॉर्डिंग को सुनने के बाद मैं बिहासड़ा इस घटना के बाद पहली बार गया। गांव में कोई तनाव नहीं दिखा। मैं एक बड़े घेर में बैठा जिसके ठाकुर साहबने बताया कि इस तरफ के शक्कों और धोबियों के घऱ जिस जमीन पर बने है वो उनके परिवार की है और उऩ लोगो को बसने के लिए फ्री में दी गई थी। आरोपियों में शामिल लड़के ज्यादातर दानिश के साथ उठते-बैठते थे। माईक की आवाज पूरे गांव के लोगो ने सुनी भी नहीं थी। ज्यादातर आरोपियों में परतापुरिये ही है। गांव के बाकि कुटुंबों के लोगो को इस घटना का सही से पता भी नहीं चला और जब मौके पर पहुंचे तो वहां पुलिस भी आ चुकी थी और अखलाख का राजपूत दोस्त भी उसे बचाने पहुंचा था।
मैंने सिर्फ वो बताया जो आपको आसानी से दिख सकता है इसके बाद की कहानी महान सेक्युलर दोस्तों की कहानी है। स्टूडियों में बैठकर फैसला हुआ कि उस दिन गांव में क्या हुआ होगा। किस तरह से एक गाय की अफवाह को केन्द्र सरकार ने पैदा किया होगा। किस तरह मोदी इसके पीछे होगा। और इस बीच में जो चीज भुला दी गई वो कि अफवाह के आधार पर हत्या करने वाले लोग पकडे गए। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का मसला है। कुछ दिन बाद ही गांव में मुस्लिम परिवार में बारात आई और बरात का पूरा खर्च  और आवभगत का जिम्मा उसी गांव के उन्हीं आदमियों ने उठाया जिन्होंने मेरे काबिल दोस्तों के मुताबिक अखलाख का मांस खाया था।
क्या इस घटना के बाद इस देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई प्रतिक्रियाओं की कोई जिम्मेदारी मीडिया पर आयद हो सकती है। क्या मिली-जुली आबादी के गांवों में अविश्वास का बीज मीडिया के धुंरधरों की कलम और माईक से तो नहीं निकला।
और मीडिया के इन नायकों का सोच का स्तर कितना है वो इससे दिखता है कि एक महान महिला पत्रकारकर्मी ने तो बॉलीवुड से ही निराशा जता दी कि उसने इस घटना का सही से विरोध नहीं किया।
दरअसल ये ऐसी पत्रकारिता का सबूत है जो अपनी बुद्दि का जलवा कायम करना चाहती है भले ही उसके लिए देश में आग लगाकर उसकी रोशनी में दिखता हो। ये रिपोर्टिंग कुछ भी हो सकती है लेकिन देश हित  और आम आदमी के हित में नहीं हो सकती है। 
गाजिल मंगलू के शब्दों में खत्म करता हूं


खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है
घंटों पहले अरमानों का
दिया जलाने आया था
खून में उन अरमानों को
लुढ़काते हुए अब डूब रहा है।
कल यह सूरज फिर निकलेगा
कल भी उन अरमानों का
नाहक खून दोबारा होगा
खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है

1 comment:

Anonymous said...

झूठ बोल रहे हैं और लिख रहे हैं आप...आप बड़ी शालीनता से दलीत विरोध और दबंगई करते हैं। रिपोर्टिंग पर सवाल ठीक है। लेकिन, खुद को सही साबित करना इस उम्र में ठीक नहीं लगता। सब बड़े हो गए हैं...पिछले कुछ सालों में।