Thursday, October 29, 2015

हम तो शासन के नागरिक सुनहरे हो गएं ..

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चीख गले में गिरवी
हाथ जेब में
पैरों से कोई हलचल नहीं
हम शासन के नागरिक सुनहरे हो गए है ।
किसी पर मौत झपट्टा मारे
किसी को अपने पंजें में दबोचे
किसी को दिन में चीथ दे
किसी को रात में रौंद दे
हमारी आंख न देखती है
न हमारे कान सुनते है
न हम अंधें हुए है
न हम बहरे हो गए है
हम शासन के नागरिक सुनहरे हो गए है
सैकड़ों हो या हजारों
कोई एक भी आदमी छांटता है
दिन दहाड़े
चिल्लाता है मारो
चाकूओं से काटता है कोई
भरे बाजार सब्जी की तरह
किसी को गोली मारता है
सरे राह जैसे करे जंगल में शिकार
हर कोई हथियार
हर कोई शिकार
सब करे किसी का इंतजार
हम पर जैसे मौत के पहरे हो गए
हम तो शासन के नागरिक सुनहरे हो गए

Saturday, October 24, 2015

खतरा हम खुद है और इधर-उधर देख रहे है।


हर घटना एक दम लाईव। आंखों के सामने। सच का सच। दूध का दूध, पानी का पानी। शीशे की तरह साफ। ये सब अलग अलग मीडिया की टैगलाईन है। कोई भी किसी की हो सकती है। बहुत ही मंझें हुए लेखकों ने बहुत माथापच्ची कर लिखी है। आखिर हर लाईन का मकसद अपने अर्थ के लिए कोई समर्थन हो या न हो लेकिन जनता की आंखों में चढ़ जाना होता है। और जनता ने इस पर यकीन कर लिया। मीडिया इस वक्त देश के सिर चढ़ बोल रहा है। आदमी के हर विचार पर मीडिया के किसी न किसी हिस्से का प्रभाव है। कोई न कोई रिपोर्टर किसी न किसी समुदाय के लिए एक मसीहा में तब्दील हो रहा है। लेकिन खुद मीडिया किस चीज में तब्दील हो रहा है इस पर मीडिया के अंदर बहस बंद है। फिल्मस्टार की हैसियत हासिल के लिए आतुर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के रणबांकुरें तो इलेक्ट्रानिक से भी ज्यादा चरपरे अंदाज में खबर लिखने के लिए तैयार कलम के महारथी। और इस बीच में खबर कहां चली गई कोई खबर नहीं। यूं तो खबरों को लेकर बहुत ज्यादा सजग होने के दिन काफी दिन पहले ही चले गए। लेकिन सिर्फ भड़काऊ चीजों को खबर बनाते हुए देखना काफी देने से एक मजबूरी के कर्म में तब्दील हो चुका है। और हैरानी की बात सिर्फ मीडिया के लिए है कि जनता उनको बुद्दिजीवि क्यों नहीं समझती है। उनकी आवाज जनता के लिए नक्कारखाने में तूती क्यों बन रही है।  लेकिन जनता के लिए कोई हैरानी नहीं कि वो आसानी से ये निशान लगा देती है कि कौन पत्रकार किस पार्टी के लिए खड़ा हुआ रिपोर्ट कर रहा है।  
रिपोर्ट को किस अंदाज में लिखा जा रहा है ये पता करने के लिए किसी भी आदमी को उस जमीन पर जाना चाहिए। मैं यहां सिर्फ मीडिया के लोगो से बात कर रहा है और खासतौर से उनके लिए जो अपनी लेखनी में आग भर देते है बिना किसी घटनास्थल पर जाए बिना। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगो को अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्होंने क्या देखा और उऩ्होंने क्या चलाया लेकिन इसके बाद भी ये लोग घटना स्थल से हजारों किलोमीटर दूर बैठे हुए ये देख लेते है कि गांव में एक आदमी को पूरे गांव ने मिलकर मार डाला। गांव का ढ़ांचा क्या था। गांव में रहने वाले लोगो की अंदरूनी राजनीति क्या थी, गांव में आर्थिक और सामाजिक यर्थाथ क्या है इसका कोई ब्यौरा नहीं उनको संजय दृष्टि मिली हुई है और उसका इस्तेमाल वो बहुत सधे हुए अंदाज में करते है। यहां किसी का नाम नहीं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि अपनी जाति घृणा को वो देश की घृणा में कैसे बदलते है अपनी इच्छा को खबर में कैसे तब्दील करते है बिना ये जाने (या जानबूझकर कह नहीं सकता ) कि मौके पर खबर क्या थी। दो उदाहरण इसके लिए बहुत मौंजू है।
शुरूआत करते है सुनपेड़ गांव से। फरीदाबाद से लगा हुआ ये गांव लगभग 1800 वोटों का गांव है। खेत अब शॉपिंग कॉप्लेक्स और अपार्टमेंट में बदलने के लिए करोड़ो के खरीदे-बेचे जा रहे है। गांव में लगभग 800 घर दबंग ( जाति परंपरा और इतिहास से सिद्द) राजपूतों जाति के है। 300 घर दलितों के है। (बात रिपोर्टिंग की हो रही है और चीजों पर मैं कभी भी कही बहस में हिस्सा ले सकता हूं) बाकि घर अन्य जातियों के है जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी शामिल है। सोमवार की सुबह की खबर मिलती है कि दंबगों ने दलितों के घऱ आग लगाकर एक जिंदा जलाने का एक खौंफनाक मामला। जल्दी से मौके पर रवाना। तब तक देश के तमाम बड़े टीवी चैनल्स और अखबारों की वेबसाईट्स पर आकाशवाणी हो चुकी थी दबंग राजपूतों ने दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया और बच्चों के मां-बाप गंभीर रूप से घायल है और दिल्ली के अस्पताल में भर्ती है। गांव में तनाव की काफी गंभीर जानकारी और फोनो टीवी चैनल्स पर चल रहे थे।
गांव के बाहर से पुलिस की भारी मौजूदगी आपको अनहोनी होने की सूचना दे देती है। आलाअधिकारियों की गाड़ियों के बजते हुए वायरलैस सेट्स भी ये बताने लगते है कि इस घटना में अधिकारियों की बदली हो सकती है लिहाजा वो अपनी खाल या नौकरी जो भी कह सकते है बचाने के लिए मंदिर से होकर घटनास्थल तक जा सकते है। गांव की एक गली से घुसते ही चार-पांच घर और एक खाली प्लॉट के बाद जितेन्द्र का मकान है। गली भी पक्की है और मकान भी पक्के है। घर के अंदर घुसते ही एक बड़ा सा लोहे का गेट है और फिर घर के आंगन में दर्द से भरी आवाजे। गैलरी से खुली खिड़की से पेट्रोल छिड़का गया था और अंदर बेड पर जले हुए गद्दे है। फिर थोड़ी देर बाद में जितेन्द्र भी अपने दोनो हाथों पर पट्टी बंधवाएं हुए आ जाता है। सब कुछ गवांकर बैठे हुए आदमी के रोने की आवाज और टूटी हुई उम्मीद का चेहरा दोनो भाव आपको उसके चेहरे तो देखते ही समझ में आ जाते है। बात हुई उसने कहा कि राजपूतों ने मारा है।
क्या सारे गांव के राजपूतों ने
नहीं साहब मैं ये नहीं जानता कि सारे गांव के राजपूतों ने बस मैं तो ये जानता हूं बलमत से परिवार से दुश्मनी है।
पुलिस का क्या रोल है
पुलिस भी उन्हीं का साथ देती है सवर्णों का साथ देती है पैसे वालों का साथ देती है।
पहरे पर छह पुलिस वाले थे उनका क्या हुआ
फिर आप घर से बाहर निकलते हो तो घर के सामने एक गली और गली में सारे मकान दबंग राजपूतों के। जितेन्द्र के घऱ के बराबर में एक और घर और फिर वो गली जिसमें दबंग बलमत का परिवार रहता है। उसी गली के नुक्कड़ पर बने घेर में बैठे हुए दबंगों से बातचीत।( मीडिया के लिए हर राजपूत दबंग है और उतना ही हत्यारा है जितना बलमत और उसका परिवार)
दलितों पर अत्याचार करते है आप
हम तो नहीं करते
अरे आपने जलाकर मार दिया
गांव का कोई आदमी थोड़े ही शामिल है। बलमत और उसके परिवार वालों की दुश्मनी चल रही है उनसे तो उऩके बीच का मामला है गांव का कोई दूसरा इस लड़ाई में शामिल नहीं है
लेकिन आग लगाने में कोई और लोग तो होंगे
अगर गांव को दलितों से दुश्मनी होती तो जब पिछले साल जगमाल हर ने इनके तीन जवान यही चाकू घोंप कर मार दिए थे तभी न उजाड़ देते इन्हें।
फिर इसके बाद वापस जितेन्द्र के घऱवालों से बातचीत कर पूछा  तो उन्हेंने बताया कि बलमत के परिवार के लड़के का मोबाईल नाली में गिर गया था जिसे निकालने के लिए जितेन्द्र के भाई को कहा और उसके मना करने पर राजपूतों ने उन पर हमला बोल दिया। चाकू और बल्लम से आए हुए राजपूतों के तीन लोगो की चाकूओं से गोद कर मौत हुई। इस मामले में जितेन्द्र के परिवार के 11 लोग जेल में गए। और रिपोर्ट और गांव वालों की कहानी के मुताबिक ठीक फोन जितेन्द्र के चाचा और गांव के तत्कालीन सरपंच जगमाल ने दबंग राजपूत के हाथ से छीनकर नाली में फेंक कर रहा था ये रहा मोबाईल उठा ले। और झगड़ा शुरू हुआ और नामजद लोगो ने ( जितेन्द् के परिवार वाले) बलमत के परिवार के लोगो पर हमला बोल दिया दो लोगो की घटनास्थल पर और तीसरे की मौत अस्पताल ले जाते हुए हुई।
घटना का वर्णन था कि इसके बाद से बलमत का परिवार और जितेन्द्र का परिवार एक दूसरे का जानी दुश्मन बन गया था जिसके बाद ये दहला देने वाली घटना को अंजाम दिया गया।
अब मीडिया रिपोर्ट और मौके की रिपोर्ट में जमीन आसमान में अंतर आ गया। गांव में राजपूतों की दबंगई की कहानी सिर्फ मीडिया की रिपोर्टरों के पीटीसी में और खबरों में थी गांव में नहीं। ये दो परिवारों की जानलेवा रंजिश की कहानी थी जिसमें बदला लेने के लिए दो मासूम बच्चों को जला दिया गया। लेकिन पूरी कहानी देश भर में घूम गई दलितों को दबंगों के जलाने के नाम पर। हां असली कहानी थी पुलिस की लापरवाही की। पुलिस के मुताबिक जितेन्द्र के परिवार वालों को छह पुलिसकर्मी गांव में सुरक्षा के लिए दिए गए थे। ऐसे में वो पुलिसवाले कहां थे। गांव में जागरण था जहां सब लोग थे पुलिस वाले भी क्या जागरण में चले गए थे। उन पुलिसवालों और उनके अधिकारियों की बर्खास्तगी की मांग तो कही से आई नहीं लेकिन केन्द्र सरकार को घटना में बर्खास्त और इस्तीफा देने की मांग काफी लोगो ने बहुत जोर उठाई।
ऐसा नहीं कि दबंगों का दलितों पर अत्याचार नहीं है। जाति के चलते रोज हजारों दलितों को देश भर में अपमान सहना पड़ता होगा। और बहुत से गांवों में दलितों की हालत सवर्णों की दबंगई से वाकई सोचनीय हालत में होगी। लेकिन क्या उन सारे आरोपों को किसी दूसरी घटना पर मढ़ा जा सकता है। ( मैं ये नहीं छिपा रहा हूं कि मैं खुद इस घटना में शामिल दबंगों की जाति से ताल्लुक रखता हूं लेकिन किसी दबंगई में कभी शामिल नहीं हुआ।
इस घटना के बाद राजनीति शुरू हो गई। और फिर उस परिवार ने भी इस मामले को दलित बनाम दबंग बना दिया। क्या इस घटना को हजारों किलोमीटर दूर बैठकर देख रहे किसी दलित या दबंग को सही सूचना मिल पाई। बाकि तमाम चीजों को छोड़ दीजिए क्या इस घटना से आसानी से किसी भी गांव में तनाव नहीं बढ़ाया जा सकता है। और हरियाणा में तो ये और भी आसान है मिर्चपुर की घटना ने किस तरह से दलितों को गांव छोड़ने पर मजबूर किया था क्या दूर बैठे आदमी को ये घटना भी उसी जैसी नहीं लगेगी। लेकिन ये तो आम आदमी की बात है मैं सोशल मीडिया में इस घटना के बाद संजय दृष्टि के पत्रकारों को देखा जिन्होंने सीधा खांडा चलाया केन्द्र सरकार पर। मुझे लगा कि दोस्तों बार बार भेडिया आया भेडिया आया चिल्ला रहे है।
दूसरा घटनाक्रम रहा बिसाहड़ा। उस घटना ने वाशिंग्टनपोस्ट और बीबीसी जैसे अखबारों को लिखने पर मजबूर किया। गांव के बाहर पीपली लाईव्स देखा जा रहा था। इस घटना को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों को गांव की कितनी जानकारी थी नहीं पता। लेकिन 8000 की आबादी वाले गांव के अलग-अलग तीन हिस्सों में पचास के करीब मुस्लिम परिवार रहते है। एक तरफ शक्के और धोबी तो दूसरी तरफ रहने वाले लुहार और बढई। गांव में अलग-अलग मोहल्ले खानदान और कुटुंब के नाम से बसते है ( शायद ये सब को पता हो खासतौर पर संजय दृष्टि वालों को) एक हिस्से में रहने वाले मुस्लिम परिवारों की जमीनों का मालिकाना हक अभी भी राजपूत परिवारों के पास है ( ये भी संयोग है कि इस बार भी हत्या राजपूतों ने ही की है) और जिस मोहल्ले में ये घटना हुई है वो मोहल्ला परतापुरियों का कहलाता है। उस मोहल्ले में अखलाक की हत्या हुई। हत्या का कारण अफवाह थी। और हत्या में सैकड़ों लोग शामिल थे। हत्या के चश्मदीद गवाह अखलाक का परिवार था। परिवार ने लगभग दस लोगो को पहचान लिया और कहा कि भीड़ में बाकि का नाम-पता मालूम नहीं।  पुलिस ने भी भीड़ में सैकड़ों शब्द का इस्तेमाल किया। लेकिन संजय दृष्टि ने पूरे गांव को लपेट लिया। गांव का हर आदमी, बच्चा और औरतें हत्यारों में तब्दील कर दिए गए जो भी मुसलमान नहीं था। गांव की आबादी आठ हजार और चश्मदीद का बयान सैक्ड़ों लेकिन मीडिया का खुला खेल फर्रूखाबादी गांव का हर आदमी हत्यारा। एक प्रिय मित्र की टिप्पणी मैंने पढ़ी जिसमें लिखा था कि गांव में एक आदमी ने बकरे का मांस खाया था लेकिन पूरे गांव ने आदमी का मांस खाया। ये किस तरह का अतिवाद है। मैंने बहुत से महान पत्रकारों को उस घटना को रिपोर्ट करते हुए देखा। बड़ी महीन रिपोर्टिंग करते हुए। मैं खुद ही वहां रिपोर्ट करने नहीं गया बहुत दिन तक। फिर एक दिन मैंने एक वीडियो देखा जो मुझे टैग किया गया कि किस तरह समाजवादी पार्टी का एक एसडीएम अखलाख की फैमिली को डराने वहां गया था और उसे रिकॉर्ड कर लिया गया। उस वक्त वहां अखलाख के समर्थन में वहां पहुंचे मुस्लिम संगठनों ने उस एसडीएम को दौडाया था और इस बात को मीडिया ने रिपोर्ट किया था। बाद में इस घटना को लेकर एक एफआईआर होने की बात हुई तो ये वीडियो शेयर हुआ। सालों तक स्पाई कैमरों से ही काम किया। और उनकी ईज्जत की। लिहाजा एक एक फ्रेम देखने की आदत हो गई थी। इस वीडियों को सुना और लगा कि ये क्या हालत हो गई है इस मीडिया की। वीडियों की शुरुआत में ही एंबियेंस है जिसमें बाहर से आऩे वालों को एक आदमी बता रहा है (पूरे वीडियो के बाद आप समझते है कि ये पत्रकार महोदय थे) कि ये एसडीएम अंदर सच न बोलने के लिए धमका रहा था परिवार वालों को तो फिर एक आवाज आती है कि उसको रिकॉर्ड किया तो वो कहता है नहीं लेकिन वो लोग एसडीएम को धमकाने पहुचते है और कहते है कि आपने अंदर परिवार को धमकी दी है कि सच मत बोलना नहीं तो गलत परिणाम भुगतने होंगे भीड़ से अचकचाया हुआ एसडीएम कहता है कि अरे भाई मैंने कुछ नहीं कहा तब वो पत्रकार एक माईक लेकर पहुंचता है चिल्लाता है मैंने सुना है और उसको रिकॉर्ड किया है। इसके बाद वो बाहर से गांव के मुसलमानों को सुरक्षा देने आया हुआ खुदाई खिजमतगारों का दस्ता उस एसडीएम के पीछे पड़ जाता है। हालात नाजुक होते देख कर एसडीएम अपनी गाडी की ओर भागता है लेकिन गांव के बाहर खड़े पीपली लाईव्स को असली जिंदगी बनाने में तुले पत्रकारों का जत्था उस एसडीएम के मुंह पर माईक लगाने लगता है। एसडीएम भाग कर गाड़ी में बैठता है निकल जाता है और फिर वो रिपोर्टर बाकि रिपोर्टरों को कहता है कि मेरा नाम सद्दाम हुसैन है मैं पत्रकार हूं मेरा इँटरव्यू लीजिये मैंने रिकॉर्ड किया है और इलेक्ट्रानिक मीडिया के महारथी इस पर लाईव्स शुरू कर देते है और खबर पैदा होती है एसडीएम ने परिवार तो मुंह खोलने पर परिणाम भुगतने की धमकी दी। एक दो चैनल्स ने रात को इस पर शो किए और काफी बहस भी की। मैंने अभी उस रिकॉर्डिंग को नहीं सुना जिसमें एसडीएम ने धमकी दी। पत्रकार के तौर पर मैं पहले उसी रिकॉरिंग को सुनता क्योंकि ये मामला तो राज्य सरकार के खिलाफ जा रहा है जबकि मामला रिपोर्ट हो रहा है मोदी के खिलाफ। इस रिकॉर्डिंग को सुनने के बाद मैं बिहासड़ा इस घटना के बाद पहली बार गया। गांव में कोई तनाव नहीं दिखा। मैं एक बड़े घेर में बैठा जिसके ठाकुर साहबने बताया कि इस तरफ के शक्कों और धोबियों के घऱ जिस जमीन पर बने है वो उनके परिवार की है और उऩ लोगो को बसने के लिए फ्री में दी गई थी। आरोपियों में शामिल लड़के ज्यादातर दानिश के साथ उठते-बैठते थे। माईक की आवाज पूरे गांव के लोगो ने सुनी भी नहीं थी। ज्यादातर आरोपियों में परतापुरिये ही है। गांव के बाकि कुटुंबों के लोगो को इस घटना का सही से पता भी नहीं चला और जब मौके पर पहुंचे तो वहां पुलिस भी आ चुकी थी और अखलाख का राजपूत दोस्त भी उसे बचाने पहुंचा था।
मैंने सिर्फ वो बताया जो आपको आसानी से दिख सकता है इसके बाद की कहानी महान सेक्युलर दोस्तों की कहानी है। स्टूडियों में बैठकर फैसला हुआ कि उस दिन गांव में क्या हुआ होगा। किस तरह से एक गाय की अफवाह को केन्द्र सरकार ने पैदा किया होगा। किस तरह मोदी इसके पीछे होगा। और इस बीच में जो चीज भुला दी गई वो कि अफवाह के आधार पर हत्या करने वाले लोग पकडे गए। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का मसला है। कुछ दिन बाद ही गांव में मुस्लिम परिवार में बारात आई और बरात का पूरा खर्च  और आवभगत का जिम्मा उसी गांव के उन्हीं आदमियों ने उठाया जिन्होंने मेरे काबिल दोस्तों के मुताबिक अखलाख का मांस खाया था।
क्या इस घटना के बाद इस देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई प्रतिक्रियाओं की कोई जिम्मेदारी मीडिया पर आयद हो सकती है। क्या मिली-जुली आबादी के गांवों में अविश्वास का बीज मीडिया के धुंरधरों की कलम और माईक से तो नहीं निकला।
और मीडिया के इन नायकों का सोच का स्तर कितना है वो इससे दिखता है कि एक महान महिला पत्रकारकर्मी ने तो बॉलीवुड से ही निराशा जता दी कि उसने इस घटना का सही से विरोध नहीं किया।
दरअसल ये ऐसी पत्रकारिता का सबूत है जो अपनी बुद्दि का जलवा कायम करना चाहती है भले ही उसके लिए देश में आग लगाकर उसकी रोशनी में दिखता हो। ये रिपोर्टिंग कुछ भी हो सकती है लेकिन देश हित  और आम आदमी के हित में नहीं हो सकती है। 
गाजिल मंगलू के शब्दों में खत्म करता हूं


खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है
घंटों पहले अरमानों का
दिया जलाने आया था
खून में उन अरमानों को
लुढ़काते हुए अब डूब रहा है।
कल यह सूरज फिर निकलेगा
कल भी उन अरमानों का
नाहक खून दोबारा होगा
खुद भी लाल कफन ओढ़े हुए
वह देखो सूरज डूब रहा है

Monday, October 19, 2015

बाकि का क्या जिनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं

रास्ते भर मारामारी
एक तरफ चमकती दुकानें
नियान लाईटे बदलती एलईडी में
अंदर की दुकान की चमक बाहर तक
पहले सीढ़िया सड़क पर
फिर सड़क पार्किंग में
और फिर पार्किंग से बाहर की सड़क पर कार
दूसरी ओर बेतरतीब दुकानें
खोंखे , रिक्शा, तिपहिया स्कूटर
और बीच में चौराहों से गायब सिपाही
कोनों में ट्रकों से हासिल रकम का हिसाब करते हुए
रोज-रोज का ये रास्ता
सड़क पर इतना बोझ बस नहीं था
सत्ता में आई पार्टियों के झंडे
और सत्ता के मद में झूमते नेता
सड़कों के बीच खड़ी एसयूवी
कई बार खिड़कियां खोल कर
खूबसूरती से ताकत का प्रदर्शन
आवाज और हॉर्न दोनो बजाना
सर पर व्रज बन कर गिर सकता है
लिहाजा मैंने बदल लिया रास्ता
लंबा सही लेकिन कुछ बेहतर हो
रास्ता ऐसा चुना जिसपर
नौकरशाह गुजरते हो
जिस पर सत्ताधीश गुजरते हो
और
जिन पर न्यायधीश गुजरते हो
रास्ते में जाम कही बार हो जाता है
सत्ता में ताकत के हिसाब से बनता है गाड़ियों का काफिला
कई बार उतर आता है कोई गरीबों का मसीहा
अपनी समाजवादी चादर के साथ
ऐसे वक्त में फिर से हॉर्न पर हाथ नहीं जाता है
मैंने बदल लिया रास्ता
गलियों से जाने लगा।
कई बार गलियों में जग जाता है ऊपर वाला
कभी कोई जलूस तो कभी किसी की बारात
कई बार शादियों के बैंड बाजे में नाचते लोग
रोक लेते है तुम्हारी गाडी
कई बार इंतजार करना होता
कार के बोनट पर गिलास रखे हुए आदमियों के मूड का
हर रोज घऱ पहुचने के लिए रास्ता बदलना पड़ता है
बच्चों को जागते हुए देखने के लिए
रास्तों की तलाश करनी पड़ती है
एक और नए रास्तें की तलाश में हूं
कि
रात ख्याल आया
उनका क्या होता है
जिनके पास दूसरा रास्ता नहीं होता
उनको एक ही रास्ते से गुजरना होता है बार बार
और
क्या 
बात सिर्फ घर तक पहुचने वाली सड़क की है 

Friday, October 16, 2015

अवार्ड लौटाना मजाक से ज्यादा कुछ भी नहीं।

एक के बाद एक साहित्याकार अवार्ड लौटा रहे है।वो सब केन्द्र की चुप्पी से नाराज है। दादरी से लेकर दिल्ली के दंगों तक सब में सरकार की चुप्पी से बहुत दिनो बाद इन महान साहित्यकारों को याद आया कि उनका बोलना जरूरी है। दादरी में गांव कौन सा है। गांव में क्या हुआ। गांव का क्या हाल है ये सब इनको मीडिया से जानकारी मिली है। उसी मीडिया से जिसकी पीपली लाईव्स किसी भी समझदार इंसान को दिख रही थी। लेकिन इन समझदार साहित्याकारों को नहीं। शुरूआत हुई उदय प्रकाश जी से और टिवाऩा तक पहुंच गई। ये तमाम लोग देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता के खिलाफ है। इस बात का दावा तो किया जा सकता है कि ये लोग गांव के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक भूगोल से पूरी तरह अनभिज्ञ होंगे। ये लोग ये भी नहीं बता सकते होगे कि गांव में कितने मोहल्ले है और किस मोहल्ले में किस जात धर्म के लोग है। इस गांव में कितने स्कूल है, मंदिर है और मस्जिद है। इस घटना में क्या हुआ। किस पर इस घटना की जिम्मेदारी है. किसको पुलिस ने पकड़ा और क्या कार्रवाई हुई। मीडिया ने पीपली लाईव शुरू किया और राजनेताओं ने चुनावी रोटियों पर घी लगाया। और फिर इस में अपनी ही दुनिया में भूला दिए गए साहित्यकारों को भी रोशनी दिखने लगी। बिना किसी जानकारी के बिना किसी तहकीकात के उन लोगो ने अवार्ड लौटाने शुरू कर दिये। ( ज्यादातर लोगों को मिले अवार्ड के बारे में सिर्फ अवार्ड देने वाले और लेने वाले के अलावा किसी को ज्यादा जानकारी नहीं थी) और अवार्ड लेने के वक्त किसी भी टीवी ने उनकी खबर नहीं दिखाई होगी ये शीशे की तरह साफ है इस पर शर्त भी लगाई जा सकती है। और रही बात अखबारों की ज्यादातर में खबर ही नहीं छपी होगी और अगर किसी में भूले-भटके छपी होगी तो अंदर के पेज पर एक छोटे से कॉलम में। इनके लेखन पर कितने लोगो ने बात की होगी इस पर इसी तरह संशय है जैसे कि इनके अवार्ड मिलने के समय लोग खुश हुए होंगे। इनके लेखन से किसी को लेना-देना नहीं है लेकिन सेक्युलर के नाम पर एक सुविधाभोगियों की ब़ड़ी होती पीढी ने इनके अवार्ड वापस करने की प्रक्रिया हो हाथो-हाथ लिया क्योंकि ये उनको शूट करता है और इसी के साथ मीडिया ने जिसको अगले आधे घंटे का प्रोग्राम सोचना होता है देश नहीं

दरिंदों को सजा जरूर दिलाना साहब।

दिल्ली के बेहद पास दादरी है। और दिल्ली के पास हापुड़ है। दादरी में गांव में एक आदमी की हत्या एक भी़ड़ ने कर दी। भीड़ को शक था कि अखलाख ने गाय से गायब हुए बछड़े का मांस खाया है। भीड़ ने युवा थे। और फिर देश में एक आंधी उतर आई। जिसका असर हुआ कि नयनतारा सहगल और टिवाना ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिये। 
दूसरी हापुड़ में एक हफ्तें पहले एक युवती के साथ उसके घर में घुस कर दो युवको ने बलात्कार किया। और विरोध करने पर युवती पर तेल डालकर आग लगा दी गई। परिजन रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो भगा दिया गया क्योंकि थानेदार साहब उस वक्त सो रहे थे। महिला को अस्पताल में भर्ती किया गया। तीसरे दिन लोकल अखबारों की नजरे करम हुई खबर छपी और फिर समाजवाद की सेवा में जुटी उत्तम पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर महिला और उसके परिजनों पर अहसान कर दिया। महिला ने सात दिन तक मौत से लडाई लडी लेकिन हार गई। किसी टीवी चैनल पर खबर देखने को आंखें तरस गई। और हींउसकी मौत की खबर के बाद पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार भी कर लिया। लेकिन मौत की खबर पढ़ने से भी दर्दनाक था कि महिला का मरने से पहले पुलिसवाले को बयान देते वक्त ये कहना कि साहब उन दरिंदों को सजा जरूर दिलााना ताकि वो किसी और के साथ ऐसा न कर सके। आंखों के आंसू अब समाज की आंखों में किसी के लिए बचे नहीं है। हमारी आंखो से आंसू अब अपनों के लिए खुल कर बहते है या फिर टीवी चैनलों पर बाईट देते हुए भावुक होता दिखने के लिए आते है। लेकिन ये दर्द से दोहरा कर देने वाली आवाज थी। मरते हुए भी वो महिला किसी और को बचाने के लिए दरिंदों को सजा दिलाने की फरियाद कर रही थी। दर्द के बीच भी दूसरो को दर्द से बचाने की अचेतन में छिपी हुई चेतना। लेकिन वो बेकार प्रार्थना कर रही थी। जिस पुलिस से वो इस बात की फरियाद कर रही थी उसके थानेदार सोते वक्त बदनसीबों को भगा देते है। उसके सिपाही दिन भर की वसूली से शाम की अय्याशी का इंतजाम कर सकते है। इस वक्त वर्दी पर लगे हुए दागों को देखने से आपकी आंखें पत्थर न हुई हो तो फिर किसी भी चौराहे पर रात-दिन किसी भी वक्त जाकर देख सकते है। और यदि हौसला बचा हो तो सिर्फ एक दिन थाने के सामने ख़ड़े होकर देख लो इनसे क्या फरियाद की जा सकती है। हर रोज यूपी में बलात्कार की ऐसी कहानियां सामने आ रही है जो किसी के भी रोंगटें खड़े कर रही है। रोज आपको बहन बेटी को लेकर चिंता से जूझते हुए घर पहुंचने का फोन आने तक सांसों सो रोके रखना होता है। लेकिन दो घटनाओं का जिक्र इसलिये कि दिल्ली से पचास किलोमीटर दुूर की दोनो घटनाओं में मीडिया और साहित्याकारों का रवैया आंखे खोल देने वाला है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आसमान को कंपा देने वाले लोग यहां नहीं पहुंच सकते। दूर दूर से गाय को काटने के अधिकार के लिए दुनिया आसमान एक देने वाले संगठन यहां से गायब है। उन महिला पत्रकारों को बहसते हुए देखता हूं जिन्होंने एक भी किताब इन साहितयकारों की नहीं पढ़ी है लेकिन उनको लगता है कि ये युग परिवर्तक साहित्यकार क्रांत्रि कर रहे है। ये लिखते हुए जेहन में साफ तौर पर है कि लोगो को एक मिनट नहीं लग रहा है कि किसी को कठघरे में खड़ा करने लेकिन साफ कहना जरूरी है। अगर अशोक वाजपेयी और उदयप्रकाश जैसे अखड़ेबाज इस वक्त सेक्युलरिज्म के साथ खड़े दिख रहे है तो इसमें उनकी सत्ता से दूरी की छटपटाहट है और बाकि सबको अपना नाम मीडिया में न दिखने की छटपटाहट। रोज रोज एक के बाद एक बलातकांर की शिकार महिलाओंं, बच्चियों और युवतियों की दर्दनाक कहानियां सिर्फ अपराध के पन्नों पर टीआरपी के लिए सामने आ रही है। कोई रिश्ता ऐसा नहीं बचा जो कलंकित नहीं हो रहा हो। लेकिन महान साहित्यकारों ने इस के खिलाफ मुहिम छेड़ने की जिम्मेदारी मुंबईया फिल्मकारों पर छोड़ दी है जिनको सबकुछ दिखाने की छूट चाहिए। किसी साहित्य में इऩ महिलाओं का दर्द मैंने साया होते हुए नहीं देखा। किसी महान साहित्यकार ने नौएडा से शाम के वक्त निकलती भीड़ में दौड़़ती उन महिलाओं पर कलम नहीं चलाई जो अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी देने के लिए भेड़़ियों के बीच छो़ड़ देती है। पुलिसिया जुल्म की हदें रोज नए मानक बनाती जा रही है किसी को नहीं लग रहा है कि जाति के दम से टके से नेता देश के नीति निर्धारक बन रहे है जो बलात्कार जैसे संगीन जुर्म को लड़़कों से गलती होना बता रहे है। लेकिन वो एक किस्म की सेक्यूलरिज्म के नायक है। लूट के नायक और सेक्युलरिज्म के नायक होना एक जैसा होना साबित कर दिया हिंदी पट्टी के लोगों ने। दादरी की घटना पर यूएऩ जाने वाले आजम को मुस्लिम आवाज बनाने वाले महान मीडिया ने कभी नहीं पूछा मुंबई मेंरोटी की तलाश में पहुचे हिंदी पट्टी के नौजवानों पर हमला करने वाले शिवसैनिकों या हुड़दंगियों के खिलाफ कब दुनिया की सबसे बड़ी अदालत में जाएंगे। पत्रकार के तौर पर मैं इलाके की मिट्टी से काफी दूर तक जुड़ा रहा। लेकिन सेक्युलरिज्म के नाम पर झंडा बुलंद करने वाले लोग इतना नासमझ बन कर दिखाते है कि एक तरफा कार्रवाई के मायने क्या होंगे। रोज मिलने की बात से अलग अगर आप दादरी में एसडीएम की अखलाख के घर वालों को धमकी करी खबर का सच उसके वीडियों में देख लेगें तो आपका मन थप्पड़ मारने का नहीं बल्कि थूकने का जरूर कर जाएंगा इस बौने मीडिया पर। मीडिया इस वक्त देश के लिए एक खतरे की तरह उभर रहा है। आधे घंटे का बुलेटिन या फिर एक लाईव चैट के लिए कही नौकरी न मिलने का फ्रस्टेशन लिए घूम रहे नायक देश की मिलीजुली संस्कृति बचाने के लिए पांच सौ शब्दों का अपना शब्दकोश पूरा उछा ल देते है। एक बार एक सेमीनार में मुंह से निकला था कि मीडिया एक तरह से डेमोक्रेसी के खिलाफ खड़ा दिखता है। टीआरपी ने बुद्दि पर ऐसा जहर बैठा दिया कि सच को देखने और समझने के बावजूद सेक्युलरिज्म के नाम पर झूठ परोसने से गुरेज नहीं। लोगों का गुस्सा नहीं दिखता है। मीडिया की लाईन और आम आदमी की लाईऩ एक दूसरे के खिलाफ खड़ी दिखती है। दरअसल मुजफ्फरनगर के दंगों का सच जिस तरह से हर्ष मंदर जैसे महान मानवाधिकारवादी को दिखा वैसा उस अखबार के रिपोर्टर को नहीं जिसके अखबार में हर्ष मंदर का लेख छपा। मैं कई बार हैरत में रहता हूं कि सच कहने से डर रहे लोग रूम के अंदर अपना डर निकालते है लेकिन बाहर निकल कर उनको सच कहने में परहेज होता है। शोभा डे कितनी महान साहित्यकार है ऐसा उनको ही मालूम होगा क्योंकि दुनिया के तमाम देशों में उनकी किताबों की ब्रिकी का डाटा जरूर उनके पास होगा यहां तो किसी स्टॉल पर नहीं दिखी। वो अपनी ललकार बीफ पर जरूर निकालती है लेकिन रश्दी के नॉवल को पढ़ा या नहीं उस पर नहीं बताती। उसको मुंबई में बिकवाएँगी कि नहीं इस पर अपनी राय नहीं देती। दरअसल इन भ्रष्ट्र साहित्याकारों से निवेदन है कि इस झूठ के नाटक से सच का खतरा दूर नहीं होता है। खतरा जरूर है आपके सामने लेकिन वो आपके झूठ से आया है। भेड़िया आया भेडिया आया कह कर पिछले चालीस सालों से देश के तमाम शिक्षण संस्थानों पर कब्जा जमाने वाले वामपंथियों से तकाजा था कि वो जनता की आवाज पहचानेंगे झूठ के नाम पर चल रही धर्मनिरपेक्षता की आवाज का को सुनकर जनता के करीब पहुंचेंगे। लेकिन अब वो उस इतिहास में समा रहे है जिसको बदलने के लिए उन्होंने लोगो की आंखों में धूल झोंकी। अपना इन साहित्याकारों से सिर्फ ये ही कहना है देश में लूट, बलात्कार और जातिवाद के नाम पर रोज हो रही हत्याओं पर भी कभी विरोध करके दिखाओं। या सिर्फ नाटक के नाम पर नाटक ही करते रहोंगे। अभिमन्यु अनत की कुछ लाईऩों के साथ अपनी बात खत्म करता हूं।
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जब दिन-दहाड़े 
गाँव में प्रवेश कर 
वह भेड़िया खूँख्वार
दोनों के उस पहले बच्चे को 
खाकर चला गया 
दिन तब रात बना रहा 
गाँव के लोग दरवाज़े बंद किए 
रहे रो-धोकर अकेले में 
एक दूसरे को दूसरे से 
आश्वासन मिला । 
कोई बात नहीं अभी तो पड़ी है ज़िन्दगी 
जन्मा लेंगे हम बच्चे कई 
झाड़ियों के बीच पैने कानों से 
एक दूसरे भेड़िये ने यह सुना 
अपनी लंबी जीभ लपलपाता रहा

Thursday, October 8, 2015

मेरे बेटे मेरे करीब रहना

पत्तों के बीच से छनकर आती हुई धूप
हरी-भरी फ़सलों से ढंकी ज़मीन पर दिखती पगडंडी
गोधूलि में लौटते हुए पशुओं के झुंड
सुबह बूढ़े नीम और बरगदों से उठतीं चहचहाटें
धूल के साथ दौड़ते बच्चे
खाटों के घेरे में हुक्कों की बंसी के साथ बुज़ुर्ग
तस्वीरों में सबकुछ तुम देख लो
मेरी आंखों से तुम वहां पहुंच नहीं पाओगे
मेरे हाथों को थाम कर चलो
या फिर मेरे क़दमों के निशानों पर चलो
एक भी राह तुम्हें उस तरफ नहीं ले जाएगी
किताबों में तलाशो
या फिर मोबाईल की रोज़ बदलती स्क्रीन में
उसका पता नहीं मिलेगा
और मेरी ज़ुबां से अब उसका कोई शब्द नहीं
हां लेकिन इतना ज़रूर जान लो
मेरी निगाहों में आए गीलेपन से
वो सब मौजूद था जीता जागता
मेरे आसपास
उसको महसूस किया
उसको जीया मैंने
और फिर उसको ढोकर पहुंचा दिया
धरती के उस पार
जहां तुम्हारी कार, रेल और जहाज़ नहीं जा पाएंगे
आसमान को छूती हुई इस मंज़िल से
तुम बादलों को देख सकते हो लेकिन उनको नहीं
इसीलिए कुछ दिन
और
छू लो मुझे
कुछ दिन बात कर टोह लो उस अतीत को
जिसको मेरे पूर्वज ले आए थे मुझ तक
इस उम्मीद में सौंप कर चले गए
मैं पहुंचा दूंगा तुम तक
कुछ और बढ़ाकर
लेकिन
मेरी भूख
मेरी प्यास
मेरी नजर
और
मेरी नादानी
इन सबने मिलकर
तुमसे छीन लिया
बिना तुम्हारे ये जाने
कि गोदी में उछालते वक्त
सोचता हूं
कि तुम को छू लें वो पत्ते
तुम को दिख जाए वो ज़मीन
और मेरी लोरी में ही सही
तुम सुन सको चिड़ियों की चहचहाटों को

Monday, October 5, 2015

दौंड़ों जब तक की भीड़ के हत्थे न चढ़ों .................

दौंड़ों, भागो, और तेज
बचने के लिए उन्मादी भीड़ से
हाथों में हंसियें, कुदाल है
उनके हाथों में फावड़ें और खुरपे भी है
और हाल ही में हासिल हुए तमंचे भी
उनको तलाश है किसी की भी
जिसका चेहरा मोबाईल की स्क्रीन के चेहरे से मिलता हो
मौत की प्यास लिए आती हुई इस  भीड़ से बचो
तुम्हारे साथ दौड़ती है
खून की धारें
इस खून से नहीं मिलता है तुम्हारा खून
तो इसमें तुम्हारी दौड़ और तुम्हारी चालाकी है
क्योंकि तुम पार कर आएं हो वो भीड़
और जो नहीं कर पाएं उनका खून जमीन पर दौडता है
पनाह पाने के लिए
खून से सने हाथों में, प्यास बुझाती भीड़ के नारों में
आवाज की ऊंचाईंया, जगह और चेहरे बदलते रहते है
लेकिन भीड़ जस की तस रहती है
उठो
यहां छिपो नहीं
तुमको तलाश रहा है दरोगा
उसके सिपाही
उनको तलाश है गवाहों की
उस भीड़ के खिलाफ गवाही की
मारे गए लोगो के नाम-पते उनके पास है
लाशों का पंचनाम किया जा चुका है
उनको माले-जब्ती और
मौका ए वारदात का गवाह चाहिए
तुम पर निगाह है
तुम को तलाश रहे है
बचों और छिपो
क्योंकि भीड़ में उनके अपने चेहरे है
वो भीड़ के हर चेहरे को पहचानते है
उनके कानों में कभी आती नहीं है कोई भी आवाज
उनकी निगाहों में कोई भी हथियार
तब तक हथियार नहीं है
जब तक उस के पास उन्हें देने के लिए कुछ न हो
पुलिस की निगाह में तुम भागे हुए सबूत हो
सबूत सात तल के नीचे भी नहीं छोड़ती है पुलिस
गुम हो जाओं
कि तुम को तलाश रहे है
खादी के कपड़ों में बैठे हुए गिद्द
उनकी नजर में आ चुका है सब
वो देखते रहे भीड़ को दूर से कही
उनकी निगाह में नारे और हथियार
दोनो की पहचान साफ है
हथियार उन्होंने दिए है
नारे उनके लिए गढ़े गए है
उनको मारे गए लोगो के खून की खुशबू मालूम है
झुंड के झुंड पहुंच जाएंगे भीड़ के साथ
और भीड़ के खिलाफ
अपनी सुविधा और स्वाद के अनुसार मांस नोंचने
उनको दिख गया है तुम्हारा भागना
वो तलाश करते है तुम्हारी
एक ऐसे चारे की तरह
जिसको डंडी पर लगाकर
भींड को आगे-पीछे करके
फिर से काम पर लगाया जा सकता है
दिखो नहीं, आवाज मत करो
सांस भी मत लो
तुम्हारी टोह में
मीडिया
जनता के नाम पर सच दिखाने वाले
बौंने से लोगो के हाथों में
खून से सनी जाने कितनी कहानियां
उऩके हलक में जाकर
उतरती है पैग के साथ ही नीचे
उदरस्थ हो जाती है कही अंधेंरों में
जहां से पैसों की रोशनी में दिखाई देती है
उनकी निगाहों में तुम्हारी तस्वीर है
तुम एक बार दिख जाओं
फिर वो रेशा-रेशा
रेजा-रेजा
तुम्हारी निगाहों से हर सीन को निकाल लेंगे
तुम्हारी आत्मा की आवाज
जिसको तुम नहीं सुन पाएं हो जो सुन लेगे
कई बार डर जाओंगे
कि कितना डर था उस वक्त भागते हुए
जब वो तुम्हारे डर को अपने मुंह से बोलेंगे
कुछ पल उनके, तुम्हारे पैर छूने से लेकर
तुम्हें लालच और धमकी दोनों देने में गुजरेंगे
एक खास तरीके से एक खास मीडिया ही
तुम्हारा सच कह सकता है
वो सच जो तुमने भुगता है
लेकिन तुमसे ज्यादा वो जानते है
ये बौंने रात होते ही अपने मुखौंटे उतारते है
दारू से धोते है हाथों पर चढ़े खून के रंग
दांतों में फंसी बोटियां को खींचते है
अपने किसी शिकार का नाम से गले तक उमड़ आई हंसी से
तुम्हारा घर अब ये तुम्हारा नहीं छोंडेगे
उसको बाजार कर देंगे
तुम्हारे घर के दरवाजें, कमरों को
सुंरगों में तब्दील कर
गुजरेंगे ऐसे
बारूदों के बीच से गुजर रहे हो जैसे
इन सब से बच कर निकलो
तो सरकार सूंघ रही है तुमको
क्या तुमने बचने का टेस्ट पास किया
या फेल हो गए हो तुम
अपने को बचाने में
और इसी के आधार पर
गिद्द तय कर देंगे तुम्हारे बचे हुए
और सड़क पर गिरे हुए सर की कीमत
चलो दौडों कि जब भी कोई भीड़ दिखाईं दे
बचों कि जब कानों में किसी नारे की आवाज सुनाई दे
और इन सब के बीच जिंदा तुमसे लोगो को
प्यार की उम्मीद है
चमत्कारी की उम्मीद है
तुम जो एक यौद्धा हो
तुमने एक जंग जीत ली है
तुम को जिंदगी से प्यार है

जब तक तुम अगली भीड़ के हत्थे न चढ़ जाओं