एक पुरानी कहावत- मीठा-मीठा गप्प गप्प, कड़वा-कड़वा थू थू एक अखबार में महेश भट्ट का लेख पढ़ा तो याद आ गयी। लेख में महेश भट्ट ने बताया कि उनके भाई ने अमरिका से उन्हे फोन कर गुस्से में कहा कि अमरिकी फिल्मों का हिंदी में डब रोकना होंगा नहीं तो इनकी आंधी बॉलीवुड को खत्म कर देंगी। इस बात का उदाहरण भी है हाल हीं में हिंदुस्तान में रिलीज हुयी दो हॉलीवुड फिल्मों ने हिंदी फिल्मों से ज्यादा पैसा कमाया। 2012 और अवतार ने हिंदी फिल्मों की बोलती बंद कर दी। और अब इस बात से पूरा मुंबईया फिल्म उद्योग थर्रा गया है। इससे बचने का जो उपाय महेश भट्ट ने बताया है वो बहुत ही हैरान कर देने वाला है उनके मुताबिक हिंदी में डब करने से रोक लगा देनी चाहिये। यानि हिंदी फिल्मों पर मुंबई के थर्ड रेटेड अभिनेता और निर्माता, निर्देशकों का कब्जा बरकरार रहना चाहिये। बॉलीवुड के अघोषित प्रवक्ता बनने से पहले महेश भट्ट की पहचान भी कई बार अंग्रेजी फिल्मों की नकल पर ही मोहताज थी। लेकिन पहले हिंदुस्तानी दर्शक हॉलीवुड के फार्मूलों और उसके प्रयोगो से दूर था औऱ उसकी कॉपी करके हिंदुस्तानी दर्शकों को दिखा कर इन काले अंग्रेजों ने खूब तिजोरी भरी। अब खुद हॉलीवुड ने सीधे भारतीय भाषाओं में डब कर अपनी फिल्में हिंदुस्तान में रिलीज करना शुरू कर दिया है तो ऐसे में नकलची बंदरों की ऐसी की तैसी हो हो रही है।
लेकिन मुझे जो सबसे बड़ी हैरानी हो रही है वो महेश भट्ट का हिंदी भाषा के लिये उमड़ा प्रेम। बॉलीवुड में ऐसा कोई बेचारा ही होगा जो इंटरव्यू में हिंदी में बात करता हो। हर हीरो-हीरोइन रोटी के लिेय हिंदी फिल्मों के मोहताज लेकिन अपना नक्शा अंग्रेजी में दिखाते रहे है। ऐसे में हिंदी के लिये बेचारे महेश भट्ट का रोना कैसा लगता है।
हिंदी फिल्मों में सबसे बडी कमी उसके पास अच्छी स्क्रिप्ट औऱ कहानियों का न होना है। ये बेचारे दर्शक की विवशता थी कि वो लगातार जीतेन्द्र, धर्मेंद्र औऱ भी जाने कितने हीरों को सिर्फ पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचते देखने और लाल आंखें कर विलेन को मुक्का मार कर जमीन में धंसाते हुए देखे। हिंदी फिल्में बेचारी एक भी टाईटैनिक पैदा नहीं कर सकी,जुरासिक पार्क की कल्पना नहीं कर सकी। ऐसी तो हजारों बाते है जो आप भी जानते है और लिखी भी जा चुकी है। लेकिन ओम शांति ओम, वांटेड, और भी जाने कितनी हिट फिल्में है उनकी कहानियों में दिमागी दिवालियापन का नजारा ही मिलता है औऱ वो हिट होती है तो स्टारडम के दम पर। अगर किसी दर्शक को सलमान, शाहरूख या ऐसी ही किसी स्टार के बारे में पता न हो औऱ उसको फिल्म दिखा दी जाये तो वो सिनेमा से सिर पीटता हुआ ही बाहर आयेगा।
हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीयों को लेकर, या विदेशी शूटिंग्स् को लेकर या फिर विदेशी कल्चर में ढली ये ही फिल्में तो चल रही है। ऐसे में कहावत है कि सू सू न कह एक बार में ससुरी कर दे। तो फिर विदेशी लोकेशन और उनसे कॉपी की गयी कहानियां देखने की बजाय फिल्में ही देख तो बुरा क्या है।
हिंदी फिल्मों में आतंकवाद को लेकर क्या रूख अपनाया जाता है, देश में भूख से लड रहे करोड़ों लोगों के लिये फिल्मों में क्या है, देश की राजनीति में चल रहे बदलाव को लेकर क्या हो रहा है, सत्ता में बैठे लोग किस तरह से देश बेच रहे है। भ्रष्ट्राचार को लेकर हर आदमी का कैसा सलेक्टिव रूख है ये सब आपको किसी हिंदी फिल्म में नहीं मिला होगा। और हिट फिल्मों की बानगी देखनी हो तो हैरानी होती है कि जोधा-अकबर फिल्म को ऐतिहासिक फिल्म कहा जाता है।
महेश भट्ट से एक सवाल और है कि जब हिंदी फिल्मों में जबर्दस्त पैसों की भरमार और स्टारडम के चलते पंजाबी, कन्नड. और दूसरे भाषायी सिनेमा खत्म हो रहा था तब उनका ये रोना नहीं सुना था रोये थे क्या वो।
2 comments:
It is Mahesh Bhatt who should be banned not dubbing. He's a professional plagiarist who thinks he has a free ticket to lifting not only the plots but also the scenes and even posters.
He should be booked for being a stupid and a cheap thief.
apni apni dafli apna apna raag
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