Sunday, January 3, 2010

भीमा चला गया...बिना प्रधानमंत्री का भाषण सुने

रात भर नाचता रहा भीमा...होटल से फुटपाथ पर आती रही गानों की आवाज और बेगाने मस्ती में अब्दुल्ला की तरह दीवाना रहा भीमा। रात में सो गया पार्टियों में नाच रहे लोगों की तरह। अगले दिन पार्टियों में झूमने वाले लोग तो नशे में डूबे हैंगओवर के साथ देर में सही लेकिन उठ गये। उठा नहीं तो बस भीमा, वो रात ही इस दुनिया से चला गया। गुब्बारे सी जिंदगी जीता हुआ भीमा दिल्ली की सड़कों पर गुब्बारे बेचता था। साल 2009 की आखिरी रात अमीरों की दया से उसने ज्यादा पैसे कमा लिेये। एक ही रात में तीन सौ रूपये कमा कर भीमा मस्त हो गया। मां को भी पैसे दिये....दादी से भी वायदा किया उसे भी एक चादर दिला देंगा। लेकिन अगली सुबह खुद ही कफन की चादर में लिपट गया भीमा। दिन रात जिस सड़क पर गुब्बारे बेचता था भीमा उसी फुटपाथ पर अपनी जिंदगी के गुब्बारे की डोर तोड़ चला। 31 दिसंबर की रात फुटपाथ पर सो रहा भीमा ठंड की भेंट चढ़ गया। उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि वो अपने लिये झुग्गी का इंतजाम करता। लेकिन भीमा अकेला नहीं हैं, दिल्ली की सड़कों पर खुले आसमान के तले सोने वाले लाखों लोगों में से एक था भीमा। जिंदगी से चिपटे हुये लाखों लोग जिनकी सांसों की डोर कब टूट जाये कोई नहीं जानता। लेकिन तिल-तिल कर रोज मर रहे लाखों बेघरों से भीमा की मौत थोड़ा अलग है। भीमा जब धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था उसी वक्त देश का मीडिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान को लेकर खबर तैयार कर रहे थे कि देश में गरीबी कम हुयी है। देश का प्रधानमंत्री झूठ नहीं बोल सकता। ये भीमा को भी लगता होंगा। लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण तैयार करने वाले और उसके साथ दौरे पर जाने वाले ब्यूरोक्रेट जानते है कि ये सफेद झूठ है जिसके लिये फरेबी आंकड़ों का सहारा लिया गया। हां लेकिन भीमा की मौत से एक परेशानी कम हुई होंगी। रोज-रोज लंबी कारों या लाल बत्ती से कारों में चौराहों से गुजरने वाले ब्यूरोक्रेट और राजनेताओं को कॉमनवेल्थ से पहले जितने लोगों को दिल्ली से भगाना हैं उनमें से एक की संख्या तो कम हो गयी है। हम सुनते रहे कि दिल्ली में बेघरों को रात बिताने के लिये रैन बसेरे होते है लेकिन कोई नहीं जानता दिल्ली में कितने रैनबसेरे है आखिरी रैन बसेरा कब बना था दिल्ली में बेघर रहने वाले लोगों की तादाद कितनी है इसका कोई आंकडा सरकार के पास नहीं है। लेकिन जिस दिन दिल्ली में ओवरब्रिज बनाने के साथ उनका सौंदर्यीकरण का नारा दिया तो पुल के नीचे गरमी और सर्दी से निजात पाने वाले हजारों लोगों को छोड़ दिया गया लम्हा लम्हा मौत का इंतजार करने के लिये। आखिर इनका कोई ताल्लुक देश की तरक्की से नहीं है। देश के स्वाभिमान के तौर पर पेश किये जा रहे कॉमनवेल्थ पर ये बदनुमा दाग है। देश की राजधानी को निखारा जा रहा है। क्योंकि यहां इस साल कॉमनवेल्थ खेल होने है। इसी लिये दिल्ली में बेघरों के लिये बनाये गये रैन बसेरों को भी तोड़ा जा रहा है। खैर पहली जनवरी को भीमा के फूंक या फिर हवा से भरे गये गुब्बारों से खेलने वाले बच्चे कभी नहीं जान पायेंगे कि सुबह जब उनके गुब्बारे कमरों या बरामदे में हवा के बिना इधर उधर पड़े थे ,उस वक्त भीमा की बेसहारा मां और दादी उसके उपर कफन ओढ़ा रही थी। लाश को फूंकने के लिये सड़क पर आने जाने वालों से भीख मांग रही थी। ......इसके बाद पत्थरों के शहर में दो बेसहारा गरीब औरते कैसे मौत का इंतजार करेंगे कोई नहीं जानता। लेकिन हम लोग भी अब अगले साल तक अखबारों में इंतजार करेंगे कि कोई संवाददाता एक ह्यूमन एंगल की स्टोरी लिखे...भीमा नहीं तो कोई कल्लू..राजू या फिर बब्लू मरे।

1 comment:

Udan Tashtari said...

’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’