बाहर मत जाना अकेले......।
अकेले दरवाजा मत खोलना।
पार्क में किसी अनजान आदमी के पास न जाना।
प्रसाद ही क्यों न हो पुजारी का दिया, बाहर किसी से लेकर कुछ न खाना।
सीखा रहा हूं अपने बेटे को रात दिन।
लेकिन
किसी को दरवाजे पर देखकर दरवाजा खट से खोलना
दरवाजा खुला देख कर फट से बाहर निकलना।
इंसान को देखकर, भले ही अनजान हो मुस्कुराना।
तीन साल की जिंदगी में ही सीख चुका है वो इतनी बाते।
जो उसकी जिंदगी को आसान नहीं मुश्किल कर देंगी।
उसको सीखना है किसी भी तरह से जिंदा रहना।
उसे फरिश्तों में नहीं इंसानों में रहना है।
5 comments:
बहुत ख़राब बात, लेकिन बहुत अच्छी कविता.
बहुत कविता रचना . धन्यवाद.
sach hai, aaj ki hakikat
बच्चों को फ़रिश्ता यूं ही नहीं कहते। मासूमियत पर शैतानी का मुलम्मा चढ़ते,चढ़ते ही चढ़ेगा:-(
.....फरिश्ते को इंसान बनना ही पड़ेगा। गजब लिख रहे हैं आप आजकल; ऐसे ही लिखते रहिए।
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