बस स्टैंड के सामने झोपड़ी नहीं फ्लैट दिखने लगे,
खाली पड़े मैदान में रातों-रात उग आया मॉल,
कूचा अमीर सिंह, चोर गली, गली संगतराशान, के नाम पर
रिक्शा वाले तो दूर दुकान वाले भी होने लगे हैरान,
लेकिन कभी नहीं लगा कि शहर बदल गया।
अपने ही स्कूल की इमारत में खुल गया साईं मंदिर,
खेल के मैदान में पुलिस का थाना,
स्टेशन पर बन गये कई और प्लेटफार्म,
लेकिन शहर नहीं बदला,
मैं जा कर भी नहीं गया इस शहर से,
लेकिन
दोस्त की आंखों में जब शरारत नहीं समझदारी दिखायी दे,
होली से उठता धुंआं आंखों में कड़वा लगने लगे,
रास्ता पूछने पर कोई आदमी तुम्हारी तरफ पलटे भी नहीं
तब लगता है कि शहर बदल गया है।
साल दर साल त्यौहार पर शहर लौटने में
बदलाव की चमक आंखों को चौंधियाने लगे,
खूबसूरत लडकियों के पतों, से निकले बच्चों पर चिल्लाती हुयी औरते
मां से हर बार किसी ऐसे रिश्तेदार की बात सुनना, जिससे आप मिले ही ना हो
लगता है कि शहर बदल गया है।
जब इंतजार लंबा हो जाये कि भीड़ से चिल्ला कर कोई आदमी आप से पूछे
अरे क्या कर रहे हो आजकल
बेपरवाह कोई धौल जमा दे कमर पर,
और कोई उलाहना न मिले एक पूरी रात और दो दिन में भी
तब लगता है कि शहर बदल गया।
और आज लगा कि मैं आकर भी इस शहर में हूं नहीं
किसी भी पल में हिस्सेदार...........।
3 comments:
"दोस्त की आंखों में जब शरारत नहीं समझदारी दिखायी दे"
ये लाइन सबसे ज्यादा हिला गई। वक्त बदलने के एहसास से भी ज्यादा कड़वा एहसास होता है उम्र ढलने का... लोग कहते हैं उम्र के साथ दोस्ती मज़बूत होती है ... मेरा अनुभव है कच्ची उम्र की दोस्ती सबसे मासूम ...सबसे गहरी... सबसे मज़बूत होती है
दिल की चुभन को कुरेद गई आपकी ये कविता.......दोस्तों के शहर में कब दोस्त दुश्मन बन जाते है...पता ही नहीं चलता ..,तो फिर किसी राहगीर से कोई उम्मीद कैसे। होली के रंग भी आखों को लुभाते नहीं दर्द दे जाते है। जी हां धीरेंद्र बाबू जब अपने बदलते है तो लगता है शहर बदल गया। जब झोपड़ी का दर्द किसी मॉल की रौनक में दब जाता है तो लगता है शहर बदल गया। ये शहर रोज बदलता है....अपनों के इस शहर में अब आंख का पानी भी सूख गया...काश की आखों में एक बार फिर दरिया उमर आए......
शाश्वत प्रक्रिया है। हम से ही शहर है; जब हम ही बदल गए तो शहर क्यों न बदलेगा।
धीरेन्द्र भाई,
आपकी कविता पढ़कर ऋचा का लिखा एक दोहा याद आ गया-
बचपन लौटा शहर से जब बचपन के गांव
न वह बरसातें मिलीं न कागज की नाव
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