तु्म्हारों ख्वाबों से मेरी नींद का कोई रिश्ता जरूर है,
बीच रात खुलती है मेरी नींद तो तुम कसमसा रहे होते हो,
मेरी आंखे खुलती है जब भी हल्के से,
तुम नींद में मुस्करा रहे होते हो,
अचानक उठा जब मैं चौंक कर
तुम नींद में किसी ख्वाब में घबरा रहे होते हो।
मैं समझ नहीं पाता कि क्या रिश्ता है
लेकिन जल............... मेरे बेटे
मेरी गोद में सोने की जिद के बाद
तुम्हारीं धीरे-धीरे बंद होती आंखों में
जैसे ही कोई ख्बाव पनपता है,
मेरी आंखों में भी नींद पसर जाती है।
कुछ यूं ही है तीन साल से मेरी
और तुम्हारी नींद का अनजाना रिश्ता।
4 comments:
मोहक।
धिरेंद्र भाई...सच है, हर ख़्वाब से हमारा रिश्ता है। और फिर अगर वो अपना ख़ून हो तो, उसकी हर उम्मीद, ख़्वाब, सपनों से आप कब और कैसे जुड़ जाते हैं...पता भी नहीं चलता। अच्छी कविता लिख लेते हैं आप भी। ऐसे मेरा मानना है कि ये विधा साहित्य की अगली सीढ़ी हैं।
बहुत सुंदर।
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