पिछले कुछ दिनों से यूपी में अलग अलग जगहों पर विरोध प्रर्दशनों पर लाठियां बजातें हुए पुलिस कर्मियों के फोटो आपको दिख जाएँगे। मीडिया के कैमरे तोड़ देना और उनको भी ढ़ंग से ठोक देना भी इसी कर्मकांड का हिस्सा सा बन गया। आलाअधिकारी विरोधियों को गरियाते है , धमकी देते है और पिटाई के बाद दिलासा देते है कि रिपोर्ट दर्ज करा दो। लेकिन कल एक खबर पर थोड़ा ज्यादा ध्यान गया। हत्या की खबर थी। शराब के लिए पानी न देने की वजह से चौंकी में घुसकर सिपाही की हत्या। (खबर पर किसी और की रिपोर्ट देखी और पढ़ी लिहाजा उम्मीद करता हूं लिखने वाले ने सनसनी के लिए कुछ अपने से नहीं जो़ड़ा होगा) पुलिस वालों पर हमले की खबर भी अब थोडा़ चौंकाती नहीं। क्योंकि उत्तरप्रदेश में इस तरह की खबरें आप को गाहे-बगाहे मिल जाती है। और रही बात हत्या की तो इस पर हिलना इस लिए बंद कर दिया क्योंकि हर रोज इस शहर में दुनिया के किसी भी आपराधिक रिकॉर्ड वाले शहर के मुकाबले की हत्या होती है। आधे-अधूरे रिकॉर्ड इस बात की गवाही दे देंगे। ( आधे-अधूरे इस लिए क्योंकि जिले में मिलने वाली लावारिस लाशों को पुलिस वाले भी लावारिस ही समझते है- और कभी आगे बहा देते है कभी गुम कर देते है और कभी कागजों में खेल कर देते है-- ऐसी रिपोर्टें कई बार सामने आई है) । सिपाही का नाम पढ़ा और अँदाज लगाया कि कल तक पुलिस को हत्यारों को आसमान पर भेज देना चाहिए। खैर आज का अखबार मेरे अंदाजे को कुछ झूठ तो कुछ सच साबित कर रहा था। एक गैंगस्टर के भाई को पुलिस ने एक मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार कर लिया। तीन गोलियां लगी ङुई थी उस आरोपी के जिस्म में। बच गया। उसकी किस्मत। पुलिस की सक्रियता की कहानी आज उसी अखबार की सुर्खियों में थी। मसलन 32 ए-के 47 से लैस पुलिस वाले तलाश में थे। समाजवादी एसएसपी खुद कमांड कर रहे थे इस मामले की। पूरी बारात से पूछताछ । फिर सीसीटीवी को खंगाला गया और आखिर में पुलिस पर ( अगर पुलिस ने सिर्फ इसी बात को ध्यान में रख कर कार्रवाई की हो तब) हुए हमले के आरोपियों को धर दबोचा। लेकिन पुलिस पर हमले की ऐसी ही एक और वारदात लखनऊ में हुई थी जहां एक सिपाही से पिस्तौल लूट ली गई उसको भी गोली लगी है।अस्पताल में है और गंभीर है। लेकिन आरोपियों के लिए पुलिस ने किस तरह की कार्रवाई ही उसका मालूम नहीं । शायद वो पुलिस में है समाजवादी पुलिस में नहीं है और कुछ इधर के अखबार में उधर की खबर कुछ कॉलम की होती है।
खैर बात समाजवाद पर न घुमाएं तब भी सवाल ये उठता है कि पुलिस वालों पर होने वाला हमला कानून पर होने वाला हमला हो जाता है। कानून व्यवस्था को चुनौती हो जाती है। लेकिन हर रोज होने वाले कत्ल आम आदमी के कत्ल होते है और उन कत्लों को कानून पर हमला नहीं माना जा सकता है। इसीलिए पुलिस की ए के 47 रखने वाली 32 टीमें बैरक के अंदर ही रहती है। क्या ये कोई अलिखित समझौता तोड़ने का रिएक्शन है। या फिर कानून का खौंफ बैठाने के लिए की जाने वाली एक साहसिक कार्रवाई। कई बार उलझ जाता हूं। उन लोगो के लिए ये बहुत आसान होगा पुलिस की तारीफ करना जिनका कभी पुलिस से सीधा सामना नहीं हुआ या फिर उन्होंने एक क्राईम रिपोर्टर के तौर पर कभी काम नहीं किया। पिछले 17 सालों से पुलिस की कार्यप्रणाली को देखता रहा हूं। समझा या नहीं ये पक्के तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन अपनी छोटी सी समझ में ये ही आया है कि पुलिस आपकी औकात देख कर कार्रवाही करने में यकीन करती है। रात भर चौंकी पर बैठे सिपाहियों के सामने बैठ कर रोते हुए बहुत से लोगो को देखता रहा हूं, देखता हूं। पुलिस उनके लिए एक कागज खराब करने की जहमत नहीं उठाती है। लेकिन एक ट्रक न निकल जाएं इसके लिए तैनात किया गया आदमी ( कोई होमगार्डस भी हो सकता है और प्राईवेट आदमी भी, मौके की नजाकत पर है) अपनी जान पर खेल सकता है। हर ट्रक को हर चौंकी का सम्मान करके जाना होता है। घर से दफ्तर तक आपक कही रहते हो किसी शहर में रहते हो आपके रास्ते में अगर कोई अलग सीन आता है तो मैं माफी मांग लेता हूं। पुलिस इस वक्त किस किस्म की पुलिसिंग कर रही है इस पर सवाल उठते है। लेकिन पुलिस पहले से ही किस किस्म की पुलिसिंग कर रही थी ये कभी जेरे बहस रहा ही नहीं। मीडिया के शुरूआती पितामहों ने ( आजादी के बाद की पत्रकारिता के नायकों को समर्पित है ये शब्द) कभी इस बात पर गौर किया या नहीं कि किसी दलित या पिछड़े या फिर बे औकात के आदमी का थाने में क्या चल रहा था। थानों में सामंतशाही और गुलामी के समय हिंदुस्तानियों को कुत्तों की तरह देखने की परंपरा खत्म हुई कि नहीं। आम आदमी की हैसियत किसी भिखारी की हैसियत से ज्यादा हुई कि नहीं। किसी ने नही देखा और किसी ने नहीं लिखा। दूर दराज के इलाकों में निकल रहे पत्रकारों ने अगर कोई हिम्मत की भी होगी तो उसको जूतों का स्वाद अर्से तक याद रहा होगा ( अगर वो जिंदा रहा होगा तो) और दिल्ली जैसी जगह में उस वक्त संपादकों के पास बहुत से काम रहे होगे।
पुलिसकर्मियों के अपराध में शामिल होने की वारदात आज सिर्फ आपको डरा सकती है। लेकिन आप डर कर भी कुछ कर नहीं सकते। आपकी कोई हैसियत नहीं है। सिस्टम को इस तरह से गढ़ा गया है कि पुलिस वाले की ओर देखने भर से आपकी आंखें निकाल ली जाएंगी। यूपी में एक के बाद एक पुलिस के थानों में अत्याचारों की कहानियां मिलती है। कुछ दब जाती है कुछ सामने आ जाती है। कुछ में वादी सिर्फ खून का घूंट पी कर चला जाता है। क्योंकि अगर उसमें कुछ दम होता या फिर औकात होती तो फिर थानेदार पहले ही समझ चुका होता और उसको सलाम ठोंक रहा होता। इस दौरान एक के बाद एक पुराने ड़ीजी रिटायर होते ही पुलिस सुधारों की बात ठोंकने लगते है। अंग्रेजी के पत्रकारों और अखबारों की चर्चा में ये शब्द काफी चलते है। लेकिन पुलिससुधारों को गौर से देखे तो ये सुधार उनको और ताकत देने की ओर जाते है। पूरी दुनिया में अगर किसी डेमोक्रेसी में देखे तो हिंदुस्तान में शायद डेमोक्रेसी के खोल में सबसे ज्यादा ताकत अगर किसी के पास है तो वो है हिंदुस्तान में पुलिस का थानेदार।
(मैं पुलिस विरोधी नहीं हूं और किसी भी पुलिस वाले पर हमला और आम आदमी पर हमला दोनो को एक जैसा ही मानता हूं)
अशोक अंजुम साहब की एक गजल शायद इस पर कुछ और कह सके
धमकियाँ हैं-सच न कहना बोटियाँ कट जाएँगी।।
जो उठाओगे कभी तो उंगलियाँ कट जाएँगी।।
आरियों को दोस्तों दावत न दो सँभलो ज़रा
वरना आँगन के ये बरगद इमलियाँ कट जाएगी।
कुछ काम कर दस की उमर है बचपना अब छोड़ दे
तेरे हिस्से की नहीं तो रोटियाँ कट जाएँगी।
दौड़ता है किस तरफ़ सिर पर रखे रंगीनियाँ
ज़िंदगी के पाँव की यों एड़ियाँ कट जाएँगी।
माँ ठहर सकता नहीं अब एक पल भी गाँव में
तेरी बीमारी में यों ही छुट्टियाँ कट जाएँगी।
कुर्सियाँ बनती हैं इनसे चाहे तुम कुछ भी करो
देख लेना क़ातिलों की बेड़ियाँ कट जाएँगी।
खैर बात समाजवाद पर न घुमाएं तब भी सवाल ये उठता है कि पुलिस वालों पर होने वाला हमला कानून पर होने वाला हमला हो जाता है। कानून व्यवस्था को चुनौती हो जाती है। लेकिन हर रोज होने वाले कत्ल आम आदमी के कत्ल होते है और उन कत्लों को कानून पर हमला नहीं माना जा सकता है। इसीलिए पुलिस की ए के 47 रखने वाली 32 टीमें बैरक के अंदर ही रहती है। क्या ये कोई अलिखित समझौता तोड़ने का रिएक्शन है। या फिर कानून का खौंफ बैठाने के लिए की जाने वाली एक साहसिक कार्रवाई। कई बार उलझ जाता हूं। उन लोगो के लिए ये बहुत आसान होगा पुलिस की तारीफ करना जिनका कभी पुलिस से सीधा सामना नहीं हुआ या फिर उन्होंने एक क्राईम रिपोर्टर के तौर पर कभी काम नहीं किया। पिछले 17 सालों से पुलिस की कार्यप्रणाली को देखता रहा हूं। समझा या नहीं ये पक्के तौर पर नहीं कह सकता। लेकिन अपनी छोटी सी समझ में ये ही आया है कि पुलिस आपकी औकात देख कर कार्रवाही करने में यकीन करती है। रात भर चौंकी पर बैठे सिपाहियों के सामने बैठ कर रोते हुए बहुत से लोगो को देखता रहा हूं, देखता हूं। पुलिस उनके लिए एक कागज खराब करने की जहमत नहीं उठाती है। लेकिन एक ट्रक न निकल जाएं इसके लिए तैनात किया गया आदमी ( कोई होमगार्डस भी हो सकता है और प्राईवेट आदमी भी, मौके की नजाकत पर है) अपनी जान पर खेल सकता है। हर ट्रक को हर चौंकी का सम्मान करके जाना होता है। घर से दफ्तर तक आपक कही रहते हो किसी शहर में रहते हो आपके रास्ते में अगर कोई अलग सीन आता है तो मैं माफी मांग लेता हूं। पुलिस इस वक्त किस किस्म की पुलिसिंग कर रही है इस पर सवाल उठते है। लेकिन पुलिस पहले से ही किस किस्म की पुलिसिंग कर रही थी ये कभी जेरे बहस रहा ही नहीं। मीडिया के शुरूआती पितामहों ने ( आजादी के बाद की पत्रकारिता के नायकों को समर्पित है ये शब्द) कभी इस बात पर गौर किया या नहीं कि किसी दलित या पिछड़े या फिर बे औकात के आदमी का थाने में क्या चल रहा था। थानों में सामंतशाही और गुलामी के समय हिंदुस्तानियों को कुत्तों की तरह देखने की परंपरा खत्म हुई कि नहीं। आम आदमी की हैसियत किसी भिखारी की हैसियत से ज्यादा हुई कि नहीं। किसी ने नही देखा और किसी ने नहीं लिखा। दूर दराज के इलाकों में निकल रहे पत्रकारों ने अगर कोई हिम्मत की भी होगी तो उसको जूतों का स्वाद अर्से तक याद रहा होगा ( अगर वो जिंदा रहा होगा तो) और दिल्ली जैसी जगह में उस वक्त संपादकों के पास बहुत से काम रहे होगे।
पुलिसकर्मियों के अपराध में शामिल होने की वारदात आज सिर्फ आपको डरा सकती है। लेकिन आप डर कर भी कुछ कर नहीं सकते। आपकी कोई हैसियत नहीं है। सिस्टम को इस तरह से गढ़ा गया है कि पुलिस वाले की ओर देखने भर से आपकी आंखें निकाल ली जाएंगी। यूपी में एक के बाद एक पुलिस के थानों में अत्याचारों की कहानियां मिलती है। कुछ दब जाती है कुछ सामने आ जाती है। कुछ में वादी सिर्फ खून का घूंट पी कर चला जाता है। क्योंकि अगर उसमें कुछ दम होता या फिर औकात होती तो फिर थानेदार पहले ही समझ चुका होता और उसको सलाम ठोंक रहा होता। इस दौरान एक के बाद एक पुराने ड़ीजी रिटायर होते ही पुलिस सुधारों की बात ठोंकने लगते है। अंग्रेजी के पत्रकारों और अखबारों की चर्चा में ये शब्द काफी चलते है। लेकिन पुलिससुधारों को गौर से देखे तो ये सुधार उनको और ताकत देने की ओर जाते है। पूरी दुनिया में अगर किसी डेमोक्रेसी में देखे तो हिंदुस्तान में शायद डेमोक्रेसी के खोल में सबसे ज्यादा ताकत अगर किसी के पास है तो वो है हिंदुस्तान में पुलिस का थानेदार।
(मैं पुलिस विरोधी नहीं हूं और किसी भी पुलिस वाले पर हमला और आम आदमी पर हमला दोनो को एक जैसा ही मानता हूं)
अशोक अंजुम साहब की एक गजल शायद इस पर कुछ और कह सके
धमकियाँ हैं-सच न कहना बोटियाँ कट जाएँगी।।
जो उठाओगे कभी तो उंगलियाँ कट जाएँगी।।
आरियों को दोस्तों दावत न दो सँभलो ज़रा
वरना आँगन के ये बरगद इमलियाँ कट जाएगी।
कुछ काम कर दस की उमर है बचपना अब छोड़ दे
तेरे हिस्से की नहीं तो रोटियाँ कट जाएँगी।
दौड़ता है किस तरफ़ सिर पर रखे रंगीनियाँ
ज़िंदगी के पाँव की यों एड़ियाँ कट जाएँगी।
माँ ठहर सकता नहीं अब एक पल भी गाँव में
तेरी बीमारी में यों ही छुट्टियाँ कट जाएँगी।
कुर्सियाँ बनती हैं इनसे चाहे तुम कुछ भी करो
देख लेना क़ातिलों की बेड़ियाँ कट जाएँगी।
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