Saturday, November 7, 2015

हम क्रांति के छलावों से छले थे । ...........................................................


पैर छालों से भर गए
हाथों से गिर गई रोटियां
बेटियों की इज्जत को तार-तार देखा 
बेटों की लाशों को बार बार देखा
हर बार घास की खाई रोटियां
हल ये हुआ कि
उनके हाथ आई बोटियां
उनका कुछ गया नहीं
हमारा कुछ रहा नहीं
इस कदर आराम से आई
हमारे यहां क्रात्रियां
वो रोटियों से चोटियों पर चले थे
हम उनके बोझ तले थे
वो देश भी है विदेश भी
ऐसा उन्होंने कमाल किया
हमने ढो रहे है उनके सपनों की पालकिया
दिन की तलाश में
आधी रात को चले थे
हम दूध से नहीं
छाछ से जले थे
कई बार रो दिए
कई बार हंस दिए
अब तो ये भी याद नहीं
अब है कि पहले भले थे
हम रोटियों की तलाश में चले थे
हम क्रांत्रियों से नहीं
क्रात्रियों के छलावों से छले थे

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