शरद पवार के बारे में अगर देश में किसी भी आम आदमी से जानकारी लेंगें तो पता चलेगा कि वो देश के अरबपति राजनतेा है। वो क्रिकेट मंत्री है। खेल से खेल करते है। लेकिन उऩके बारे में एक जानकारी और है वो देश के कृषि मंत्री है। कृषि से खेल करते है। आप उन्हें दिल्ली में कभी-कभी किसानों की समस्याओं पर बोलते सुन सकते है। एक खास बात है कि वो जब-जब बोलते है हजारों व्यापारियों की तिजोरियों में अरबों रूपये भर जाते है औऱ आम आदमी की जेब पर महंगाई की मार पड़ जाती है। शरद पवार को आप मुंबई में समारोह में आते-जाते देख सकते है। लेकिन देश के सबसे बड़े कृषि राज्यों के किसानों के लिये वो सिर्फ टीवी पर नजर आते है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और मध्यप्रदेश के किसानों पिछली सरकार के पांच साल के कार्यकाल में सिर्फ एक बार अपने राज्य में देखा। यहां तक की उत्तर प्रदेश जो बुंदेलखंड में अकाल के चलते बेहद चर्चाओं में रहा। वहां भी कृषि मंत्री शरद पवार एक ही बार गये है 20-21 जुलाई 2005 को लखनऊ गये थे शरद पवार।
उत्तर प्रदेश की तरह से ही मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों को पांच साल में अपने कृषि मंत्री के एक एक बार ही दर्शन हुए है। कृषि मंत्री शरद पवार के मंत्रालय से हासिल जानकारी के मुताबिक शरद पवार ने पिछले पांच साल के कार्यकाल में मध्य प्रदेश का भी एक ही बार दौरा किया।
शरद पवार ने मध्य प्रदेश में 30 अप्रैल 2006 में इंदौर का दौरा किया था।
राजस्थान भी शरद पवार के निगाहों में जा चढ़ नहीं पाया और केन्द्रीय कृषि मंत्री 2004-2009 के कार्यकाल में सिर्फ एक बार 23-24 2006 फरवरी को उदयपुर कर आये थे।
इसके अलावा शरद पवार 2006 में चार बार उत्तराखंड में आये। केन्द्र में क्रांगेस और उसके सहयोगियों की सरकार को आये भी इतने दिन हो गये। लेकिन यूपी, मध्यप्रदेश, बिहार को अभी भी मंत्री जी के दर्शन नहीं हुये है। इस दौरान गन्ना किसानों ने अपना गन्ना खेतों में जलाया।
लेकिन इस पूरे सीन में में पूरे एपिसोड़ का नायक कहां रहा। देश के कृषि मंत्री शरदपवार। जिनकी जिम्मेदारी देश में कृषि और उसके किसानों का ख्याल रखने की वो आखिर कहां हैं। कृषि मंत्री शरद पवार बयान देते है और मंहगाई बढ़ जाती है।
देश के कृषि उत्पादन में उत्तर भारत के राज्यों का कितना बड़ा हिस्सा है। इस बारे में जानने के लिये आपको किसी किताब की जरूरत नहीं होंगी। लेकिन देश के कृषि मंत्री शरद पवार की नजर में इन राज्यों में कृषि चकाचक है।
लेकिन इस दौरान कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी ने कई बार राज्य का दौरा किया। इतना ही नहीं राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में सूखे को लेकर कई बार ऐसे बयान भी दिये कि राज्य सरकार ने उन पर विवाद खड़ा कर दिया। लेकिन इस बारे में भी जो चीज सीन से गायब थी वो थी कृषि मंत्री शरद पवार की उपस्थिति।
कुछ तो होगा / कुछ तो होगा / अगर मैं बोलूँगा / न टूटे / तिलस्म सत्ता का / मेरे अदंर / एक कायर टूटेगा / टूट मेरे मन / अब अच्छी तरह से टूट / झूठ मूठ मत अब रूठ।...... रघुबीर सहाय। लिखने से जी चुराता रहा हूं। सोचता रहा कि एक ऐसे शहर में रोजगार की तलाश में आया हूं, जहां किसी को किसी से मतलब नहीं, किसी को किसी की दरकार नहीं। लेकिन रघुबीर सहाय जी के ये पंक्तियां पढ़ी तो लगा कि अपने लिये ही सही लेकिन लिखना जरूरी है।
Wednesday, January 13, 2010
Monday, January 11, 2010
अरे हबीब की गर्दन बच गयी...मुरादाबाद के सैकड़ों सर कटे सऊदी अरब में...
हबीब वापस चला आया। अपने घर से हजारों मील दूर पैसे कमाने की आस में गया हबीब किसी तरह एक प्लेन में छिपकर अपनी जान बचा कर लौट आया। लेकिन ये सालों दर साल से चल रही गल्फ कंट्रीज में हिंदुस्तानी लोगों के साथ हो रहे शोषण की किताब का एक बरखा भर है। मैं शोषण की ऐसी किताब का एक पन्ना आपके सामने खोलता हूं जो आज भी आपके रोंगटें खड़े कर सकता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।
मुरादाबाद जिले के सदर डाकखानें में जब एक साथ 52 पैकेट आये तो ये कोई नयी बात नहीं थी। इस इलाके के लोग हजारों की तादाद में रोजी-रोटी कमाने गल्फ कंट्रीज गये थे। और महीने दर महीने अपने घर वालों के लिये सामान भेजते रहते थे। लेकिन इस बार इन पैकेटों का वजन कुछ कम था। क्योंकि आम तौर आने वाले सामानों में टेपरिकार्ड, परफ्यूम और दूसरे ऐसे आईटम होते थे जिसकी इस इलाके में पूछ थी। खैर डाकखाने से आस-पास के गांवों के डाकिये जब इन पैकेटों को लेकर घर पहुंचे तो घरवालों ने उत्सुकता से पैकेटों को खोला। लेकिन पैकेट के अंदर के सामान ने उन्हें कुछ उलझा दिया। पैकेट के अंदर सऊदी अरब गये उनके पिता- चाचा – या भाई का पासपोर्ट और पहने गये कपड़े थे। और साथ में था एक कागज जिस पर अंग्रेजी और अरबी में कुछ लिखा था। गांव में उपलब्ध किसी पढ़े लिखे आदमी से उस खत को सुना तो घर पहले तो सन्नाटे और फिर रोने की आवाजों से भर गया। खत में लिखा था कि पासपोर्टधारी आदमी को नशीली दवाओं की तस्करी में लिप्त पाये जाने के कारण सऊदी कानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गयी। सऊदी में मौत की सजा शुक्रवार को दोपहर की नमाज के बाद शहर के व्यस्ततम चौराहे पर गर्दन उड़ा कर दी जाती है। मातम घर से निकल कर गांव की चौपाल पर पहुंचा वहां से लोगों की जुबां में तैरता हुआ कस्बे के बाजारों तक पहुंच गया। तब पता चला कि 52 से ज्यादा लोगों की गर्दन उड़ा दी गयी। खबर आयी थी बरास्ते दिल्ली और पहुंच गयी दिल्ली वापस। खबर कवर करने मैं पहुंचा अमरोहा(ज्योतिबाबा फूले नगर)। एक के बाद एक घरों में पहुंचा। तो पता चला कि ज्यादातर लोग उमरा करने गये थे। रमजान के दिनों में हज के अलावा दूसरे दिनों में मक्का-मदीना की यात्रा करने ये लोग गये थे। लेकिन एक बात जो चौंकाने वाली थी कि इन लोगों की यात्रा का इंतजाम किया गया था। यानि इन लोगों ने खुद के पैसे पर यात्रा नहीं थी इनके उमरे का ज्यादातर खर्च इलाके के कुछ ऐसे लोगों ने उठाया था जो रातों-रात अमीर बने थे और अब असरदार आदमी में तब्दील हो चुके थे। ज्यादातर लोगों के घर वालों ने मुंह खोलने से परहेज किया लेकिन ये बता भी दिया कि उनको इस यात्रा के लिये पैसे भी दिये गये थे। और जब ये लोग यात्रा पर जाने लगे तो उन्हें बैंगों में रखने के लिये खास कंबल या फिर कोई पैकेट दिये गये जिसकों उन्हें जेद्दा में किसी आदमी को सौंपना था । यहां से सब लोग पार कर गये और जब जेद्दा एअरपोर्ट पर उनके बैंगों की सख्ती से तलाशी ली गयी तो पता चला कि ये सब नशीले पदार्थ थे जिसकी उनसे तस्करी करायी जा रही थी। उन लोगों ने अपनी बेगुनाही का सबूत देने की कोशिश की लेकिन सऊदी एजेंसियों ने इस बात पर कोई तवज्जों नहीं दी कि ये शख्स तो पैगंबर साहेब की जमीन पर सजदा करने आये हैं। और हिंदुस्तानी अधिकारियों की निगाह में इन लोगों की हैसियत ही क्या थीं। इस तरह से सिर्फ मुरादाबाद जिले के ही सैकड़ों लोगों ने विदेशी सरजमीं पर अपनी जिंदगी गवां दी। लेकिन हिंदुस्तानी एजेंसियों ने इस धंधें की तह में जाने की कोशिश नहीं की। मुरादाबाद पुलिस को अफवाहों में ही ये खबर मिली। और उऩ्होंने जांच की या नहीं भगवान जाने.....। मुरादाबाद रोड़ पर बने अमरोहा थाने के सामने एक मेडीकल स्टोर है उसके मालिक की पीठ पर बने कोड़ों के निशान आज भी आप की रूह को कंपा सकते है। लेकिन जब दो-दो रिपोर्टर ने एक-एक साल के अंतर पर थानेदार से जानकारी चाही तो उनका जवाब था कि ऐसा तो कुछ की जानकारी में नहीं है। खैर गांव दर गांव..मुंह दर मुंह ये बात इलाके में फैल गयी और लोगों ने शिकारियों के जाल में फंसना बंद कर दिया। लेकिन इस धंधें के असली लोग कभी सामने नहीं आये.....। और अब हबीब की कहानी में जहां देश की सुरक्षा एजेंसियां हैरत में है वही उसका एजेंट दूसरे शिकार की तलाश कर चुका होंगा। वो जानता है कि नशीले सौदागरों की तरह उसका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा...आखिर चांदी का जूता ही सब पर राज करता है।
Saturday, January 9, 2010
पत्रकारों को जूतियाने का सही समय...
अलग-अलग अखबारों में मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को लेकर खबरें थीं। सभी खबरों का मजमूनं एक सा था लेकिन आप एक खबर की शुरूआत देख लीजिये
"जो दशा देश में बाघों की उसी दशा में मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी पहुंच गये है। सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आज या तो जेल में है अथवा नौकरी से निलंबित -निष्कासित है।"
खबर का मतलब है कि बाघ और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दोनों पूरी तरह से नहीं तो ज्यादातर एक जैसे है। लेकिन पिछले दस सालों के पत्रकारिता के कैरियर में मैंने कभी नहीं सुना कि किसी बाघ को फर्जी एनकाउंटर के चलते जेल भेजा गया हो या किसी नौकरी से निलंबित कर दिया गया हो। बाघ बेचारे जंगल में रहते है। देश में रहने वाले शिकारियों ने इस खूबसूरत जानवर का बेदर्दी से शिकार किया और दुनिया भर में बाघों का अस्तित्व खतरे में आ गया। हिंदुस्तान के जंगलों में 1900 की शुरूआती दशक में पचास हजार की तादाद में बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या दो हजार से भी कम रह गयी है। खैर बाघों की कहानी तो फिर कभी सही लेकिन पत्रकारों की एक फौज के कारनामें पर आज बात की जा सकती है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ये शब्द ऐसे पत्रकारों की देन है जो नौकरी की तलाश में कही भी कुछ भी कर सकते थे लेकिन उनको पत्रकारिता में जगह मिल गयी और उन्होंने हाथ धो लिये। किसी को मालूम नहीं कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होने की परीक्षा कब पास की गयी थी और कौन सी मिनिस्ट्री ने इस एक्जाम को लिया था। चलिये आपने शुरू भी कर दिया लिखना तो ठीक है लेकिन इन एनकाउंटर करने वालों को देश का हीरो बना कर रख दिया। एक ऐसा हीरों जो जिसकी हर गलती आपने उसकी अदा में बदल दी। मुंबई के इन हीरों ही नहीं देश के दूसरे वर्दी में छिपे हत्यारों से लंबी मुलाकात और बातें हुयी है। कही से नहीं लगा कि ये एनकाउंटर उन्होंने देश के प्रति अपने जज्बे के चलते किये है। हर बात का निचोड़ था कि मीडिया के एक खास वर्ग की तारीफ और अपने लिये मैडल प्रसिद्धी हासिल करने के लिये ज्यादातर एनकाउंटर किये गये। एनकाउंटर करने वाले पुलिसवालों को सबसे पहले ये कहा गया कि ये अपनी जान को दांव पर लगाते है औऱ फिर कहा गया कि इन लोगों ने अपराधियों से आम आदमी को निजात दिलाने के लिये अपने कंधों पर ये जिम्मेदारी ली है।
अगर किसी भी पुलिस वाले के एनकाउंटर को सही मायने पर किसी न्यूट्रल एजेंसी से जांच करा ली जाये तो शायद किसी को भी हैरानी नहीं होंगी कि ज्यादातर एनकाउंटर उठा कर किये गये। हमेशा एनकाउंटर के लिये अपराधियों का एक साथी मारा जाता है और दुसरे या दूसरा अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। लेकिन आज एनकाउंटर पर नहीं उऩ पत्रकारों पर बात कर रहे है जिनकी मदद से ये क्रिमीनल दिमाग के पुलिस वाले देश के लिये नासूर में तब्दील हो गये। शुरू में तो बड़े अपराधी के मारे जाने पर पुलिस पर निगाह रखने की जिम्मेदारी संभालने वाले पत्रकारों ने तारीफ के बंडल बांध दिये और इस बात को नजरअंदाज किया कि कैसे उस अपराधी उठा कर मारा गया। इसके लिये देश के उसी संविधान और उसकी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया जिसने इन पुलिस वालों को वर्दी दी थी। फिर एक दो साल में ही इऩ पुलिस वालों के रिश्ते अंडरवर्ल्ड और अपराधियों से सुर्खियों में आने लगे तो फिर पत्रकारों की उसी जमात ने इस बात का हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बदमाशों या फिर अंडरवर्ल्ड की हरकतों पर नजर रखने के लिये इनके साथ मिलना-जुलना जरूरी है। और उनका वो दोष भी ढांप दिया गया। लेकिन आदमखोर के मुंह तो खून लग चुका था। और पुलिस वर्दी में छिपे बैठे इन अपराधियों ने शुरू कर दी वसूली और अवैध कब्जें तो फिर पत्रकारों ने कहना शुरू किया कि सरकार से मिलने वाले पैसे से तो इऩ सुपरस्टार पुलिसवालों का घर का खर्चा नहीं चलता तो मुखबिरों का नेटवर्क कैसे काम करेंगा। यानि पुलिस के अपराधी दिमाग ताकत पाते रहे और देश के कानून के दम पर वर्दी की शान रखने वाले पुलिसवाले बेबस और चुपचाप अपराधियों औऱ पुलिस का अंतर खत्म होते देखते रहे। लेकिन इस पूरे वाकये में सबसे गंदा और घटिया रोल था तो इन लोगों को हीरो बनाने वाले पत्रकारों का। मैं ऐसे पत्रकारों का नाम लूं उससे बेहतर है आप खुद खबरों को देख कर अंदाज लगा सकते है कि कौन-कौन पत्रकार किस भावना से खबर लिख रहा है। अंडरवर्ल्ड के बारे में मिलने वाली छोटी-छोटी खबर के लिये इन पुलिस वालों को महान बनाने वाले पत्रकारों की एक लंबी सूची है। दरअसल फर्जी मुठभेड़ एक ऐसी घटना होती है जो सबके लिये फायदे का सौदा होती है, किसी दूसरे गैंग से पैसे लेकर बदमाश को उड़ा देने वाले पुलिस वाले के लिये हीरो गर्दी का लाईसेंस औऱ पैसे दोनों का फायदा। इस घटना से आला अधिकारियों को आम जनता से पड़ने वाले दबाव में कमी और इस गठजोड़ में शामिल होने वाले पत्रकारों के लिये सबसे पहले मिलने वाली ब्रेकिंग न्यूज से मिली वाहवाही का फायदा। और पत्रकारों के इसी लालच ने देश की पुलिस में ऐसे सैकड़ों तथाकथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट खड़े कर दिये जिनके लिये देश के कानून का मतलब कायरों की प्रार्थना में तब्दील हो गया। इस बात का सबूत मिल सकता है अगर देश के सभी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले पुलिसवालों की संपत्ति की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से करा ली जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।
जाने वो कैसी सरकारी जांच है जो हजारों करोड़ के मालिक में तब्दील हो चुके दया नायक के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाती और वो फिल्मों में नायक के तौर पर पूजा जाता है। प्रदीप शर्मा जो देश के सबसे बड़े दुश्मन दाउद इब्राहिम के टुच्चे से गुंडे में तब्दील हो जाता है। ऐसे ही सैकड़ों पुलिसवाले सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये काम करते है। और पत्रकार सिर्फ उसकी तारीफ करते है।
"जो दशा देश में बाघों की उसी दशा में मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी पहुंच गये है। सारे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आज या तो जेल में है अथवा नौकरी से निलंबित -निष्कासित है।"
खबर का मतलब है कि बाघ और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दोनों पूरी तरह से नहीं तो ज्यादातर एक जैसे है। लेकिन पिछले दस सालों के पत्रकारिता के कैरियर में मैंने कभी नहीं सुना कि किसी बाघ को फर्जी एनकाउंटर के चलते जेल भेजा गया हो या किसी नौकरी से निलंबित कर दिया गया हो। बाघ बेचारे जंगल में रहते है। देश में रहने वाले शिकारियों ने इस खूबसूरत जानवर का बेदर्दी से शिकार किया और दुनिया भर में बाघों का अस्तित्व खतरे में आ गया। हिंदुस्तान के जंगलों में 1900 की शुरूआती दशक में पचास हजार की तादाद में बाघ थे लेकिन अब उनकी संख्या दो हजार से भी कम रह गयी है। खैर बाघों की कहानी तो फिर कभी सही लेकिन पत्रकारों की एक फौज के कारनामें पर आज बात की जा सकती है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ये शब्द ऐसे पत्रकारों की देन है जो नौकरी की तलाश में कही भी कुछ भी कर सकते थे लेकिन उनको पत्रकारिता में जगह मिल गयी और उन्होंने हाथ धो लिये। किसी को मालूम नहीं कि एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होने की परीक्षा कब पास की गयी थी और कौन सी मिनिस्ट्री ने इस एक्जाम को लिया था। चलिये आपने शुरू भी कर दिया लिखना तो ठीक है लेकिन इन एनकाउंटर करने वालों को देश का हीरो बना कर रख दिया। एक ऐसा हीरों जो जिसकी हर गलती आपने उसकी अदा में बदल दी। मुंबई के इन हीरों ही नहीं देश के दूसरे वर्दी में छिपे हत्यारों से लंबी मुलाकात और बातें हुयी है। कही से नहीं लगा कि ये एनकाउंटर उन्होंने देश के प्रति अपने जज्बे के चलते किये है। हर बात का निचोड़ था कि मीडिया के एक खास वर्ग की तारीफ और अपने लिये मैडल प्रसिद्धी हासिल करने के लिये ज्यादातर एनकाउंटर किये गये। एनकाउंटर करने वाले पुलिसवालों को सबसे पहले ये कहा गया कि ये अपनी जान को दांव पर लगाते है औऱ फिर कहा गया कि इन लोगों ने अपराधियों से आम आदमी को निजात दिलाने के लिये अपने कंधों पर ये जिम्मेदारी ली है।
अगर किसी भी पुलिस वाले के एनकाउंटर को सही मायने पर किसी न्यूट्रल एजेंसी से जांच करा ली जाये तो शायद किसी को भी हैरानी नहीं होंगी कि ज्यादातर एनकाउंटर उठा कर किये गये। हमेशा एनकाउंटर के लिये अपराधियों का एक साथी मारा जाता है और दुसरे या दूसरा अंधेंरे का लाभ उठा कर भाग जाता है। लेकिन आज एनकाउंटर पर नहीं उऩ पत्रकारों पर बात कर रहे है जिनकी मदद से ये क्रिमीनल दिमाग के पुलिस वाले देश के लिये नासूर में तब्दील हो गये। शुरू में तो बड़े अपराधी के मारे जाने पर पुलिस पर निगाह रखने की जिम्मेदारी संभालने वाले पत्रकारों ने तारीफ के बंडल बांध दिये और इस बात को नजरअंदाज किया कि कैसे उस अपराधी उठा कर मारा गया। इसके लिये देश के उसी संविधान और उसकी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया जिसने इन पुलिस वालों को वर्दी दी थी। फिर एक दो साल में ही इऩ पुलिस वालों के रिश्ते अंडरवर्ल्ड और अपराधियों से सुर्खियों में आने लगे तो फिर पत्रकारों की उसी जमात ने इस बात का हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बदमाशों या फिर अंडरवर्ल्ड की हरकतों पर नजर रखने के लिये इनके साथ मिलना-जुलना जरूरी है। और उनका वो दोष भी ढांप दिया गया। लेकिन आदमखोर के मुंह तो खून लग चुका था। और पुलिस वर्दी में छिपे बैठे इन अपराधियों ने शुरू कर दी वसूली और अवैध कब्जें तो फिर पत्रकारों ने कहना शुरू किया कि सरकार से मिलने वाले पैसे से तो इऩ सुपरस्टार पुलिसवालों का घर का खर्चा नहीं चलता तो मुखबिरों का नेटवर्क कैसे काम करेंगा। यानि पुलिस के अपराधी दिमाग ताकत पाते रहे और देश के कानून के दम पर वर्दी की शान रखने वाले पुलिसवाले बेबस और चुपचाप अपराधियों औऱ पुलिस का अंतर खत्म होते देखते रहे। लेकिन इस पूरे वाकये में सबसे गंदा और घटिया रोल था तो इन लोगों को हीरो बनाने वाले पत्रकारों का। मैं ऐसे पत्रकारों का नाम लूं उससे बेहतर है आप खुद खबरों को देख कर अंदाज लगा सकते है कि कौन-कौन पत्रकार किस भावना से खबर लिख रहा है। अंडरवर्ल्ड के बारे में मिलने वाली छोटी-छोटी खबर के लिये इन पुलिस वालों को महान बनाने वाले पत्रकारों की एक लंबी सूची है। दरअसल फर्जी मुठभेड़ एक ऐसी घटना होती है जो सबके लिये फायदे का सौदा होती है, किसी दूसरे गैंग से पैसे लेकर बदमाश को उड़ा देने वाले पुलिस वाले के लिये हीरो गर्दी का लाईसेंस औऱ पैसे दोनों का फायदा। इस घटना से आला अधिकारियों को आम जनता से पड़ने वाले दबाव में कमी और इस गठजोड़ में शामिल होने वाले पत्रकारों के लिये सबसे पहले मिलने वाली ब्रेकिंग न्यूज से मिली वाहवाही का फायदा। और पत्रकारों के इसी लालच ने देश की पुलिस में ऐसे सैकड़ों तथाकथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट खड़े कर दिये जिनके लिये देश के कानून का मतलब कायरों की प्रार्थना में तब्दील हो गया। इस बात का सबूत मिल सकता है अगर देश के सभी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले पुलिसवालों की संपत्ति की जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से करा ली जाये तो दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।
जाने वो कैसी सरकारी जांच है जो हजारों करोड़ के मालिक में तब्दील हो चुके दया नायक के खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाती और वो फिल्मों में नायक के तौर पर पूजा जाता है। प्रदीप शर्मा जो देश के सबसे बड़े दुश्मन दाउद इब्राहिम के टुच्चे से गुंडे में तब्दील हो जाता है। ऐसे ही सैकड़ों पुलिसवाले सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये काम करते है। और पत्रकार सिर्फ उसकी तारीफ करते है।
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अरे ये लोग प्रधानमंत्री को नहीं पहचानते, दिल्ली में रहकर भी
सेवन रेसकोर्स रोड़ और कनॉट प्लेस के बीच कितनी दूरी है। सवाल दिल्ली से बाहर रहने वाले लोगों के लिये अटपटा जरूर हो सकता है।लेकिन जो दिल्ली में रहते है वो जानते है कि पत्थर फेंक दे तो इन दोनों के बीच की दूरी पार की जा सकती है। लेकिन इस दूरी को पार करने में देश के प्रधानमंत्री को शायद इतना अंतर लग रहा है जितना अर्सा हमारे वैज्ञानिकों को चांद पर जाने में नहीं लगता। कैसे ....ये मैं आप को सुझा सकता हूं। देश के प्रधानमंत्री का आवास है सात रेसकोर्स रोड़। प्रधानमंत्री के आवास के सामने यानि रेसकोर्स रोड़ के आप-पास से भी आप गुजरते हो तो आप को मालूम होता है कि ये देश के सबसे ताकतवर आदमी का आवास है औऱ तब आप और भी सजग हो जायेंगे जब ये पता चलेगा कि आपके प्रधानमंत्री वर्ल्ड बैंक की नौकरी के दौरान विदेश में रह चुके है। अब प्रधानमंत्री विदेश में पढ़े लिखे और नौकरीशुदा है तो जीनियस तो होंगे ही आम फहम बात है हमारे देश के लिये क्योंकि विदेशी अपना नौकर पढ़े लिखे औऱ समझदार काले हिंदुस्तानियों को ही रखते है।
अब आप कनॉट प्लेस के चमचमाते गोल चक्करों पर नजर दौड़ाये सरकार के खर्चे पर आजकल पूरा कनॉट प्लेस को चमकाया जा रहा है यानि दुकाने और उनका फायदा दुकानदारों और उनकी चमकदमक का इंतजाम देश का। आखिरकार दुनिया में देश की इज्जत का मामला है। लेकिन इसी कनॉट प्लेस के गलियारों में खुली सड़कों पर एक दो. दस या सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादाद में नशे में डूबे. जिंदगी से चिपटे हुये लोगों के पॉलीथीन या दूसरे कूडे़ को बीनते हुये लोग दिखायी देंगे। इन लोगों को सरे-राह आप हाथ में रूमाल लेकर मुंह में सांस खींचतें या फिर एक चमकीली सी फॉयल को जला कर पीते हुये देख सकते है। इनके साथ औरते-बच्चे सभी होते है। और ये झुंड के झुंड कभी कूड़ा बीनते है और कभी-कभी किसी गाड़ी के सामने हाथ फैलाते हुये दिखायी दे जाते है।
ये तादाद लगातार बढ़ती दिख रही हैजाते है। सड़क से गुजरने वाला हर आदमी इन लोगों से नफरत करता है और शायद ही मैंने कभी भीख देते हुये देखा है।
लेकिन बात प्रधानमंत्री की हो रही है। देश के बाहर भी मनमोहन सिंह को इतने लोग इज्जत देते है औऱ मानते है देश की तरक्की का एक बड़ा कारण मनमोहन सिंह की मनमोहनी आर्थिक नीतियां है। और इन्हीं नीतियों के दम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में बताया कि देश में गरीबी कम हुई है। और प्रधानमंत्री की बात की अहमियत इस लिये भी बढ़ जाती है क्योंकि देश के कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक देश में गरीबों की तादाद काफी हद तक बढ़ गयी है। इसके साथ ही देश में पर व्यक्ति दाल की खपत कम हुयी है। लेकिन प्रधानमंत्री के इस बयान के इऩ अर्थशास्त्रियों के विचार में क्या बदलाव आया नहीं जानता। लेकिन मैंने सोचा कि कनॉट प्लेस में घूमने वाले इन लोगों से जानकारी करूं कि इन लोगों ने मनमोहन सिंह साहब के बयान पर कितना गौर किया। दो घंटे की कवायद में मुझ से कोई बात करने के लिये तैयार नहीं हुआ और एक दो ने पैसे के लिये बात की तो ये जानकर मुझे बहुत निराशा हुयी कि वो ये ही नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कौन है। और दूसरी तरफ मेरी हैसियत नहीं है कि मैं मनमोहन सिंह जी से जाकर पूछूं कि क्या आप कनॉट प्लेस में रहने वाले उन लोगों को जानते है। मुझे उम्मीद है कि बेचारे प्रधानमंत्री नहीं जानते होंगे नहीं तो दिल्ली से इतनी दूर जाकर ये बताने की जरूरत नहीं थी कि देश में गरीबी कम हो गयी है वो भाषण इन्हीं लोगों के बीच दे दिये होते।
अब आप कनॉट प्लेस के चमचमाते गोल चक्करों पर नजर दौड़ाये सरकार के खर्चे पर आजकल पूरा कनॉट प्लेस को चमकाया जा रहा है यानि दुकाने और उनका फायदा दुकानदारों और उनकी चमकदमक का इंतजाम देश का। आखिरकार दुनिया में देश की इज्जत का मामला है। लेकिन इसी कनॉट प्लेस के गलियारों में खुली सड़कों पर एक दो. दस या सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की तादाद में नशे में डूबे. जिंदगी से चिपटे हुये लोगों के पॉलीथीन या दूसरे कूडे़ को बीनते हुये लोग दिखायी देंगे। इन लोगों को सरे-राह आप हाथ में रूमाल लेकर मुंह में सांस खींचतें या फिर एक चमकीली सी फॉयल को जला कर पीते हुये देख सकते है। इनके साथ औरते-बच्चे सभी होते है। और ये झुंड के झुंड कभी कूड़ा बीनते है और कभी-कभी किसी गाड़ी के सामने हाथ फैलाते हुये दिखायी दे जाते है।
ये तादाद लगातार बढ़ती दिख रही हैजाते है। सड़क से गुजरने वाला हर आदमी इन लोगों से नफरत करता है और शायद ही मैंने कभी भीख देते हुये देखा है।
लेकिन बात प्रधानमंत्री की हो रही है। देश के बाहर भी मनमोहन सिंह को इतने लोग इज्जत देते है औऱ मानते है देश की तरक्की का एक बड़ा कारण मनमोहन सिंह की मनमोहनी आर्थिक नीतियां है। और इन्हीं नीतियों के दम पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में बताया कि देश में गरीबी कम हुई है। और प्रधानमंत्री की बात की अहमियत इस लिये भी बढ़ जाती है क्योंकि देश के कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक देश में गरीबों की तादाद काफी हद तक बढ़ गयी है। इसके साथ ही देश में पर व्यक्ति दाल की खपत कम हुयी है। लेकिन प्रधानमंत्री के इस बयान के इऩ अर्थशास्त्रियों के विचार में क्या बदलाव आया नहीं जानता। लेकिन मैंने सोचा कि कनॉट प्लेस में घूमने वाले इन लोगों से जानकारी करूं कि इन लोगों ने मनमोहन सिंह साहब के बयान पर कितना गौर किया। दो घंटे की कवायद में मुझ से कोई बात करने के लिये तैयार नहीं हुआ और एक दो ने पैसे के लिये बात की तो ये जानकर मुझे बहुत निराशा हुयी कि वो ये ही नहीं जानते कि मनमोहन सिंह कौन है। और दूसरी तरफ मेरी हैसियत नहीं है कि मैं मनमोहन सिंह जी से जाकर पूछूं कि क्या आप कनॉट प्लेस में रहने वाले उन लोगों को जानते है। मुझे उम्मीद है कि बेचारे प्रधानमंत्री नहीं जानते होंगे नहीं तो दिल्ली से इतनी दूर जाकर ये बताने की जरूरत नहीं थी कि देश में गरीबी कम हो गयी है वो भाषण इन्हीं लोगों के बीच दे दिये होते।
Friday, January 8, 2010
हॉट सिटी ..और,,, मासूम कलियों को कुचलने वालों का रिश्ता
हालीवुड की एक चर्चित फिल्म ब्लड डायमंड में दस बारह साल के बच्चों को खूंखार हत्यारों में तब्दील करने का एक सीन है। विलेन नशे में डूबे बच्चों को उपनाम देना शुरू करता है तो एक को बोलता है कि तुम्हारा नाम है मासूम कलियों को कुचलने वाला, दूसरे को बोलता है तुम्हारा नाम बच्चों का कातिल,और तीसरे से बोलता है आज से तुम जाना जायेगा औरतों का बलात्कारी। इसके बाद फिल्म में जब ये बच्चे किसी गांव को लूटते है या हत्याएं करते है तो अपना नाम लेकर उन्माद से चिल्लाते है।
मैं एनसीआर के अखबारों में अक्सर शहरों के नाम पढ़ता हूं जो उनके मुताबिक उन्हें दुनिया की किसी मैगजीन ने उन्हें दिये है। और फिर रह-रहकर उसका जिक्र करते हुये पत्रकारों को देखता हूं तो अक्सर जुगुप्सा पैदा करने वाला ये सीन याद आता है।
गाजियाबाद है हॉट सिटी। गुडगांव है मिलेनियम सिटी। ऐसे ही कई सिटी और है देश में जिनके बारे में जब भी अखबार लिखता है तो शुरू करता है दुनिया के किसी हिस्से में छपने वाली किताब से दिया गया कोई उपनाम। मसलन गाजियाबाद की खबर देखें तो किसी भी अखबार में छपी हो शुरू होती है हॉट सिटी में ऐसा। अब कोई इन पत्रकारों से पूछे भाई ये कोई सरकारी टाईटल है जिसे वो धारण किये हुये है। या फिर देश की संसद में पारित हुआ कोई प्रस्ताव जिसे बार-बार वो दिखाता घूम रहा। लेकिन अंधों के गांव में फूलों का रंग पूछ रहे हो।
गाजियाबाद से दिल्ली आते वक्त आप को दिख जायेगा कि किस सिटी को वो हॉट सिटी लिख रहे है। बिल्डरों औऱ भ्रष्ट्राचारी नेताओं के गठजोड़ के इशारे में बनाये गये इन उपनामों के सहारे हजारों लोगों को रोज मूर्ख बनाया जाता है।
मोहन नगर तिराहे से शुरू हुआ दर्शन आनंद विहार तक आपको यकीन दिला देता है कि आंखों की लाज और कानून का लिहाज कही और के लिये लिखे गये शब्द है इस शहर के लिये नहीं। एसएसपी जो अब डीआईजी अखिल कुमार साहब है से बातचीत हो रही थी। उनके साथ उनके एसपीसिटी साहब भी बैठे थे। बातचीत में उनको बताया गया कि आपके यहां एक साहिबाबाद मंडी है जहां रोज सामने सड़क पर दूसरे तरफ ऑटो और ट्रक वाले खड़ा कर देते है और 11 बजे तक कोई उनको पूछने वाला नहीं होता। सड़क के दोनों ओर दुकान वालों ने अपने वाहन खड़े किये हुए है। लाईटे सिर्फ बच्चों को ये बताने के लिये लगी हुई है कि हरा रंग कौन सा होता है और लाल कौन सा। तो एसएसपी साहब ने तुरंत अपने एसपीसिटी को आदेशदिया कि कल से ये सब नहीं होना चाहिये। ये काम बेहद आसानी से हो सकता था क्योंकि उस कट से दो कदम गिन कर ही काफी जगह खाली है। लेकिन आप आज भी उधर से आते है तो दिख जायेगा कि एसपी सिटी के लिये उस आदेश की कितनी अहमियत थी। जाम में फंसे-फंसे आप खुद को ही कोसने लगते है। आनंद विहार पर ठगों के गिरोह पुलिस चौकी के सामने धडल्ले से ठगी का धंधा चलाते है। ऐसा नहीं है कि पुलिस को पता नहीं है। एक बार घर लौट रहा था तो ठीक चौकी के सामने एक दो आदमियों ने घेर लिया। एक ने बताना शुरू किया साहब सोने के डायल की घडी है। बहुत मजबूरी है बेच रहा हूं। दूसरे ने कहा कितने की है। 2000 रूपये की है। साहब ले लो। ओरिजनल है। मैंने कहा भाई जाओं किसी और को पकड़ों लेकिन वो मेरे पीछे पड़े थे। ऐसे में मैंने चौकी में जाकर एक सिपाही को कहा भाई ये लोग ठगी कर रहे है इनसे जरा मिल लो। कोई त्यागी साहब थे उनके साथ गया और एक आदमी को पकड़ लाये। इसके बाद मैंने ये बात तत्कालीन एसपीसिटी विजय कुमार को बता दी। मैं घर चला गया और दो दिन बाद ही मैंने उसी आदमी को उसी तरह से घड़ी के साथ लोगों को ठगते हुये देखा। वो आपको आज भी तथाकथित हॉट सिटी के दरवाजे यानि आनंद विहार में मिल सकता है। आप शाम के सात बजे के बाद आसानी से देख सकते है कई सौ ऐसे ऑटो वाले जिनका कोई नंबर नहीं है। ऐसी बसें जो किसी से रजिस्टर्ड नहीं है। लेकिन जाने क्यों अखबार वाले रिपोर्टर्स को जब भी खबर लिखनी होती है वो शुरू करते है देश के हॉट सिटी से।.......गुडगांव पर भी आगे .....
मैं एनसीआर के अखबारों में अक्सर शहरों के नाम पढ़ता हूं जो उनके मुताबिक उन्हें दुनिया की किसी मैगजीन ने उन्हें दिये है। और फिर रह-रहकर उसका जिक्र करते हुये पत्रकारों को देखता हूं तो अक्सर जुगुप्सा पैदा करने वाला ये सीन याद आता है।
गाजियाबाद है हॉट सिटी। गुडगांव है मिलेनियम सिटी। ऐसे ही कई सिटी और है देश में जिनके बारे में जब भी अखबार लिखता है तो शुरू करता है दुनिया के किसी हिस्से में छपने वाली किताब से दिया गया कोई उपनाम। मसलन गाजियाबाद की खबर देखें तो किसी भी अखबार में छपी हो शुरू होती है हॉट सिटी में ऐसा। अब कोई इन पत्रकारों से पूछे भाई ये कोई सरकारी टाईटल है जिसे वो धारण किये हुये है। या फिर देश की संसद में पारित हुआ कोई प्रस्ताव जिसे बार-बार वो दिखाता घूम रहा। लेकिन अंधों के गांव में फूलों का रंग पूछ रहे हो।
गाजियाबाद से दिल्ली आते वक्त आप को दिख जायेगा कि किस सिटी को वो हॉट सिटी लिख रहे है। बिल्डरों औऱ भ्रष्ट्राचारी नेताओं के गठजोड़ के इशारे में बनाये गये इन उपनामों के सहारे हजारों लोगों को रोज मूर्ख बनाया जाता है।
मोहन नगर तिराहे से शुरू हुआ दर्शन आनंद विहार तक आपको यकीन दिला देता है कि आंखों की लाज और कानून का लिहाज कही और के लिये लिखे गये शब्द है इस शहर के लिये नहीं। एसएसपी जो अब डीआईजी अखिल कुमार साहब है से बातचीत हो रही थी। उनके साथ उनके एसपीसिटी साहब भी बैठे थे। बातचीत में उनको बताया गया कि आपके यहां एक साहिबाबाद मंडी है जहां रोज सामने सड़क पर दूसरे तरफ ऑटो और ट्रक वाले खड़ा कर देते है और 11 बजे तक कोई उनको पूछने वाला नहीं होता। सड़क के दोनों ओर दुकान वालों ने अपने वाहन खड़े किये हुए है। लाईटे सिर्फ बच्चों को ये बताने के लिये लगी हुई है कि हरा रंग कौन सा होता है और लाल कौन सा। तो एसएसपी साहब ने तुरंत अपने एसपीसिटी को आदेशदिया कि कल से ये सब नहीं होना चाहिये। ये काम बेहद आसानी से हो सकता था क्योंकि उस कट से दो कदम गिन कर ही काफी जगह खाली है। लेकिन आप आज भी उधर से आते है तो दिख जायेगा कि एसपी सिटी के लिये उस आदेश की कितनी अहमियत थी। जाम में फंसे-फंसे आप खुद को ही कोसने लगते है। आनंद विहार पर ठगों के गिरोह पुलिस चौकी के सामने धडल्ले से ठगी का धंधा चलाते है। ऐसा नहीं है कि पुलिस को पता नहीं है। एक बार घर लौट रहा था तो ठीक चौकी के सामने एक दो आदमियों ने घेर लिया। एक ने बताना शुरू किया साहब सोने के डायल की घडी है। बहुत मजबूरी है बेच रहा हूं। दूसरे ने कहा कितने की है। 2000 रूपये की है। साहब ले लो। ओरिजनल है। मैंने कहा भाई जाओं किसी और को पकड़ों लेकिन वो मेरे पीछे पड़े थे। ऐसे में मैंने चौकी में जाकर एक सिपाही को कहा भाई ये लोग ठगी कर रहे है इनसे जरा मिल लो। कोई त्यागी साहब थे उनके साथ गया और एक आदमी को पकड़ लाये। इसके बाद मैंने ये बात तत्कालीन एसपीसिटी विजय कुमार को बता दी। मैं घर चला गया और दो दिन बाद ही मैंने उसी आदमी को उसी तरह से घड़ी के साथ लोगों को ठगते हुये देखा। वो आपको आज भी तथाकथित हॉट सिटी के दरवाजे यानि आनंद विहार में मिल सकता है। आप शाम के सात बजे के बाद आसानी से देख सकते है कई सौ ऐसे ऑटो वाले जिनका कोई नंबर नहीं है। ऐसी बसें जो किसी से रजिस्टर्ड नहीं है। लेकिन जाने क्यों अखबार वाले रिपोर्टर्स को जब भी खबर लिखनी होती है वो शुरू करते है देश के हॉट सिटी से।.......गुडगांव पर भी आगे .....
Thursday, January 7, 2010
आओं अपनी बहुएं जलाये, मीडिया से दहेज विरोधी कानून बदलवाये
सर मेरी बहन को जिंदा जला दिया। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया। कह रही है पहले जांच करेंगे।
लेकिन हम ये खबर नहीं कर सकते।
क्यों सर क्यों कवर नहीं कर सकते।
क्योंकि हमारे चैनल में दहेज हत्या की खबरें अब कवर नहीं होती। उनमें दहेज विरोधी कानूनों का कई बार बेजा इस्तेमाल होता है।
जीं हां ये आम जवाब है जो पिछले तीन-चार सालों में दहेज की बलि पर जिंदा जला दी गयी लड़कियों के भाईयों-पिताओं या फिर रिश्तेदारों को देश के मीडिया चैनल्स के रिपोर्टर ने दिया। आपको अपने दिमाग पर जोर देने की जरूरत है ताकि आप ये याद कर सके कि विज्यूअल मीडियम पर आपने आखिरी बार दहेज के लिये जलाई गयी लड़की की खबर कब देखी थी। कब देखा था कि ससुराल की दरिंदगी ने एक मासूम की जान ली। आप को ये भी याद नहीं होगा कि देश के तथाकथित नेशनल अखबारों की सुर्खियों में आखिरी बार दहेज हत्या की खबर कब आयी थी।
लेकिन आपको ये जरूर याद होगा कि टीवी चैनलों में दयनीय दिखते कुछ लडके वाले बता रहे है कि उनकी मां-बहन को भी दहेज हत्या में लपेट लिया गया। उनके खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी गयी। पुलिस उन्हें बेजा परेशान कर रही है। और अखबारों ने तो इस बात की मुहिम ही छेड दी है कि दहेज कानूनों नें बदलाव लाया जाये। देश में इन कानूनों का गलत इस्तेमाल हो रहा है। जीं हां देश में दहेज हत्या पर बात करना फैशन से बाहर हो गया। सबको लगने लगा कि हां यार लडकी वाले अपनी लड़की की बदचलनी छिपाने के लिये दहेज मांगने का आरोप लगा देते है।
दरअसल इस देश को झूठ में रहने की आदत है। इसी लिये किसी रिपोर्टर ने इस बात को कवर करने की जरूरत महसूस नहीं की कि वो चैक करे कि हाल में रिलीज हुए दहेज हत्या के आंकड़ों में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी का ही ट्रैंड दिखायी दे रहा है। और ये सरकारी आंकडें है जो ये साबित करते है कि दहेज के लिये इस देश में हर साल हजारों की तादाद में महिलाओं की बलि चढा़यी जा रही है।
ये वो मामले है जिनकी रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज करने में मेहरबानी की है। इससे बड़ी तादाद है उन मामलों की जिन में लड़की वालों की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गयी। और उससे भी बड़ी तादाद है उनकी जिनकी मौत को चांदी के जूते के दम पर ससुराल वालों ने आत्महत्या में तब्दील करा दिया। ऐसे मामले भी कम नहीं जिनकों पंचायतों में निबटा दिया गया। जिनके लिये पैसे देकर समझौता करा दिया गया।
ये देश दुनिया की ताकत कहलाने का बड़ा शौकीन है। हर बात में अमेरिका के जूते चांटने के लिये तत्पर। अमेरिका के बाप को अपना बाप बताने की कोशिश में जुटे लोगों का देश। लेकिन हजारों की तादाद में जलाई जा रही लडकियों के लिये कोई रहम नहीं कोई संवेदना नहीं। चांद पर यान उतारना है। आस्कर जीतना है दुश्मन देश की मिसाईल नष्ट करनी है सेटेलाईट दूर से जला देने है। इतनी तरक्की के बाद भी जिन लोगों को याद है कि लड़कियां जिंदा जलाई जाती वो वाहियात लोग है। देश के गद्दार है। एक रिपोर्टर होते है नासीरुद्दीन साहब तीन या शायद चार साल पहले उन्होंने बांदा में आत्महत्या करने वाली औरतों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर एक खबर की थी। और उसमें ये पता चला था कि मरने वाली औरते के जबड़े तक टूटे हुये थे उनके शरीर पर चोट के निशान थे। लेकिन मौत का कारण आत्महत्या थी। दो साल में ऐसे मामलों की तादाद सैकड़ो में थी।
अब ऐसे में दहेज विरोधी कानून को बदलने की दलील देने वालों लोगों से मेरा एक निवेदन है कि दर्द महसूस करना है तो कम से कम अपनी एक उंगुली ही आग में थोड़ी देर झुलसा कर देख ले।
मुझे याद आ रही है मंजर साहब की दो पक्तियां। पता नहीं सही से लिख पा रहा हूं कि नहीं क्योंकि ये भी उस वक्त कि है जब मैं आठ साल का लड़का होता था और किसी भी लड़की के जलने की किसी खबर पर घर की औरतों और अपने पिताजी को बात करते हुये देखता था।
जिन्हें शौक है बहुएं जलाने का
वो पहले अपने घर में बेटियां जला ले।
लेकिन हम ये खबर नहीं कर सकते।
क्यों सर क्यों कवर नहीं कर सकते।
क्योंकि हमारे चैनल में दहेज हत्या की खबरें अब कवर नहीं होती। उनमें दहेज विरोधी कानूनों का कई बार बेजा इस्तेमाल होता है।
जीं हां ये आम जवाब है जो पिछले तीन-चार सालों में दहेज की बलि पर जिंदा जला दी गयी लड़कियों के भाईयों-पिताओं या फिर रिश्तेदारों को देश के मीडिया चैनल्स के रिपोर्टर ने दिया। आपको अपने दिमाग पर जोर देने की जरूरत है ताकि आप ये याद कर सके कि विज्यूअल मीडियम पर आपने आखिरी बार दहेज के लिये जलाई गयी लड़की की खबर कब देखी थी। कब देखा था कि ससुराल की दरिंदगी ने एक मासूम की जान ली। आप को ये भी याद नहीं होगा कि देश के तथाकथित नेशनल अखबारों की सुर्खियों में आखिरी बार दहेज हत्या की खबर कब आयी थी।
लेकिन आपको ये जरूर याद होगा कि टीवी चैनलों में दयनीय दिखते कुछ लडके वाले बता रहे है कि उनकी मां-बहन को भी दहेज हत्या में लपेट लिया गया। उनके खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी गयी। पुलिस उन्हें बेजा परेशान कर रही है। और अखबारों ने तो इस बात की मुहिम ही छेड दी है कि दहेज कानूनों नें बदलाव लाया जाये। देश में इन कानूनों का गलत इस्तेमाल हो रहा है। जीं हां देश में दहेज हत्या पर बात करना फैशन से बाहर हो गया। सबको लगने लगा कि हां यार लडकी वाले अपनी लड़की की बदचलनी छिपाने के लिये दहेज मांगने का आरोप लगा देते है।
दरअसल इस देश को झूठ में रहने की आदत है। इसी लिये किसी रिपोर्टर ने इस बात को कवर करने की जरूरत महसूस नहीं की कि वो चैक करे कि हाल में रिलीज हुए दहेज हत्या के आंकड़ों में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी का ही ट्रैंड दिखायी दे रहा है। और ये सरकारी आंकडें है जो ये साबित करते है कि दहेज के लिये इस देश में हर साल हजारों की तादाद में महिलाओं की बलि चढा़यी जा रही है।
ये वो मामले है जिनकी रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज करने में मेहरबानी की है। इससे बड़ी तादाद है उन मामलों की जिन में लड़की वालों की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गयी। और उससे भी बड़ी तादाद है उनकी जिनकी मौत को चांदी के जूते के दम पर ससुराल वालों ने आत्महत्या में तब्दील करा दिया। ऐसे मामले भी कम नहीं जिनकों पंचायतों में निबटा दिया गया। जिनके लिये पैसे देकर समझौता करा दिया गया।
ये देश दुनिया की ताकत कहलाने का बड़ा शौकीन है। हर बात में अमेरिका के जूते चांटने के लिये तत्पर। अमेरिका के बाप को अपना बाप बताने की कोशिश में जुटे लोगों का देश। लेकिन हजारों की तादाद में जलाई जा रही लडकियों के लिये कोई रहम नहीं कोई संवेदना नहीं। चांद पर यान उतारना है। आस्कर जीतना है दुश्मन देश की मिसाईल नष्ट करनी है सेटेलाईट दूर से जला देने है। इतनी तरक्की के बाद भी जिन लोगों को याद है कि लड़कियां जिंदा जलाई जाती वो वाहियात लोग है। देश के गद्दार है। एक रिपोर्टर होते है नासीरुद्दीन साहब तीन या शायद चार साल पहले उन्होंने बांदा में आत्महत्या करने वाली औरतों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर एक खबर की थी। और उसमें ये पता चला था कि मरने वाली औरते के जबड़े तक टूटे हुये थे उनके शरीर पर चोट के निशान थे। लेकिन मौत का कारण आत्महत्या थी। दो साल में ऐसे मामलों की तादाद सैकड़ो में थी।
अब ऐसे में दहेज विरोधी कानून को बदलने की दलील देने वालों लोगों से मेरा एक निवेदन है कि दर्द महसूस करना है तो कम से कम अपनी एक उंगुली ही आग में थोड़ी देर झुलसा कर देख ले।
मुझे याद आ रही है मंजर साहब की दो पक्तियां। पता नहीं सही से लिख पा रहा हूं कि नहीं क्योंकि ये भी उस वक्त कि है जब मैं आठ साल का लड़का होता था और किसी भी लड़की के जलने की किसी खबर पर घर की औरतों और अपने पिताजी को बात करते हुये देखता था।
जिन्हें शौक है बहुएं जलाने का
वो पहले अपने घर में बेटियां जला ले।
अंग्रेजी धुन पर नाचने वाला बॉलीवुड हिंदी में रोया
एक पुरानी कहावत- मीठा-मीठा गप्प गप्प, कड़वा-कड़वा थू थू एक अखबार में महेश भट्ट का लेख पढ़ा तो याद आ गयी। लेख में महेश भट्ट ने बताया कि उनके भाई ने अमरिका से उन्हे फोन कर गुस्से में कहा कि अमरिकी फिल्मों का हिंदी में डब रोकना होंगा नहीं तो इनकी आंधी बॉलीवुड को खत्म कर देंगी। इस बात का उदाहरण भी है हाल हीं में हिंदुस्तान में रिलीज हुयी दो हॉलीवुड फिल्मों ने हिंदी फिल्मों से ज्यादा पैसा कमाया। 2012 और अवतार ने हिंदी फिल्मों की बोलती बंद कर दी। और अब इस बात से पूरा मुंबईया फिल्म उद्योग थर्रा गया है। इससे बचने का जो उपाय महेश भट्ट ने बताया है वो बहुत ही हैरान कर देने वाला है उनके मुताबिक हिंदी में डब करने से रोक लगा देनी चाहिये। यानि हिंदी फिल्मों पर मुंबई के थर्ड रेटेड अभिनेता और निर्माता, निर्देशकों का कब्जा बरकरार रहना चाहिये। बॉलीवुड के अघोषित प्रवक्ता बनने से पहले महेश भट्ट की पहचान भी कई बार अंग्रेजी फिल्मों की नकल पर ही मोहताज थी। लेकिन पहले हिंदुस्तानी दर्शक हॉलीवुड के फार्मूलों और उसके प्रयोगो से दूर था औऱ उसकी कॉपी करके हिंदुस्तानी दर्शकों को दिखा कर इन काले अंग्रेजों ने खूब तिजोरी भरी। अब खुद हॉलीवुड ने सीधे भारतीय भाषाओं में डब कर अपनी फिल्में हिंदुस्तान में रिलीज करना शुरू कर दिया है तो ऐसे में नकलची बंदरों की ऐसी की तैसी हो हो रही है।
लेकिन मुझे जो सबसे बड़ी हैरानी हो रही है वो महेश भट्ट का हिंदी भाषा के लिये उमड़ा प्रेम। बॉलीवुड में ऐसा कोई बेचारा ही होगा जो इंटरव्यू में हिंदी में बात करता हो। हर हीरो-हीरोइन रोटी के लिेय हिंदी फिल्मों के मोहताज लेकिन अपना नक्शा अंग्रेजी में दिखाते रहे है। ऐसे में हिंदी के लिये बेचारे महेश भट्ट का रोना कैसा लगता है।
हिंदी फिल्मों में सबसे बडी कमी उसके पास अच्छी स्क्रिप्ट औऱ कहानियों का न होना है। ये बेचारे दर्शक की विवशता थी कि वो लगातार जीतेन्द्र, धर्मेंद्र औऱ भी जाने कितने हीरों को सिर्फ पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचते देखने और लाल आंखें कर विलेन को मुक्का मार कर जमीन में धंसाते हुए देखे। हिंदी फिल्में बेचारी एक भी टाईटैनिक पैदा नहीं कर सकी,जुरासिक पार्क की कल्पना नहीं कर सकी। ऐसी तो हजारों बाते है जो आप भी जानते है और लिखी भी जा चुकी है। लेकिन ओम शांति ओम, वांटेड, और भी जाने कितनी हिट फिल्में है उनकी कहानियों में दिमागी दिवालियापन का नजारा ही मिलता है औऱ वो हिट होती है तो स्टारडम के दम पर। अगर किसी दर्शक को सलमान, शाहरूख या ऐसी ही किसी स्टार के बारे में पता न हो औऱ उसको फिल्म दिखा दी जाये तो वो सिनेमा से सिर पीटता हुआ ही बाहर आयेगा।
हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीयों को लेकर, या विदेशी शूटिंग्स् को लेकर या फिर विदेशी कल्चर में ढली ये ही फिल्में तो चल रही है। ऐसे में कहावत है कि सू सू न कह एक बार में ससुरी कर दे। तो फिर विदेशी लोकेशन और उनसे कॉपी की गयी कहानियां देखने की बजाय फिल्में ही देख तो बुरा क्या है।
हिंदी फिल्मों में आतंकवाद को लेकर क्या रूख अपनाया जाता है, देश में भूख से लड रहे करोड़ों लोगों के लिये फिल्मों में क्या है, देश की राजनीति में चल रहे बदलाव को लेकर क्या हो रहा है, सत्ता में बैठे लोग किस तरह से देश बेच रहे है। भ्रष्ट्राचार को लेकर हर आदमी का कैसा सलेक्टिव रूख है ये सब आपको किसी हिंदी फिल्म में नहीं मिला होगा। और हिट फिल्मों की बानगी देखनी हो तो हैरानी होती है कि जोधा-अकबर फिल्म को ऐतिहासिक फिल्म कहा जाता है।
महेश भट्ट से एक सवाल और है कि जब हिंदी फिल्मों में जबर्दस्त पैसों की भरमार और स्टारडम के चलते पंजाबी, कन्नड. और दूसरे भाषायी सिनेमा खत्म हो रहा था तब उनका ये रोना नहीं सुना था रोये थे क्या वो।
लेकिन मुझे जो सबसे बड़ी हैरानी हो रही है वो महेश भट्ट का हिंदी भाषा के लिये उमड़ा प्रेम। बॉलीवुड में ऐसा कोई बेचारा ही होगा जो इंटरव्यू में हिंदी में बात करता हो। हर हीरो-हीरोइन रोटी के लिेय हिंदी फिल्मों के मोहताज लेकिन अपना नक्शा अंग्रेजी में दिखाते रहे है। ऐसे में हिंदी के लिये बेचारे महेश भट्ट का रोना कैसा लगता है।
हिंदी फिल्मों में सबसे बडी कमी उसके पास अच्छी स्क्रिप्ट औऱ कहानियों का न होना है। ये बेचारे दर्शक की विवशता थी कि वो लगातार जीतेन्द्र, धर्मेंद्र औऱ भी जाने कितने हीरों को सिर्फ पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचते देखने और लाल आंखें कर विलेन को मुक्का मार कर जमीन में धंसाते हुए देखे। हिंदी फिल्में बेचारी एक भी टाईटैनिक पैदा नहीं कर सकी,जुरासिक पार्क की कल्पना नहीं कर सकी। ऐसी तो हजारों बाते है जो आप भी जानते है और लिखी भी जा चुकी है। लेकिन ओम शांति ओम, वांटेड, और भी जाने कितनी हिट फिल्में है उनकी कहानियों में दिमागी दिवालियापन का नजारा ही मिलता है औऱ वो हिट होती है तो स्टारडम के दम पर। अगर किसी दर्शक को सलमान, शाहरूख या ऐसी ही किसी स्टार के बारे में पता न हो औऱ उसको फिल्म दिखा दी जाये तो वो सिनेमा से सिर पीटता हुआ ही बाहर आयेगा।
हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीयों को लेकर, या विदेशी शूटिंग्स् को लेकर या फिर विदेशी कल्चर में ढली ये ही फिल्में तो चल रही है। ऐसे में कहावत है कि सू सू न कह एक बार में ससुरी कर दे। तो फिर विदेशी लोकेशन और उनसे कॉपी की गयी कहानियां देखने की बजाय फिल्में ही देख तो बुरा क्या है।
हिंदी फिल्मों में आतंकवाद को लेकर क्या रूख अपनाया जाता है, देश में भूख से लड रहे करोड़ों लोगों के लिये फिल्मों में क्या है, देश की राजनीति में चल रहे बदलाव को लेकर क्या हो रहा है, सत्ता में बैठे लोग किस तरह से देश बेच रहे है। भ्रष्ट्राचार को लेकर हर आदमी का कैसा सलेक्टिव रूख है ये सब आपको किसी हिंदी फिल्म में नहीं मिला होगा। और हिट फिल्मों की बानगी देखनी हो तो हैरानी होती है कि जोधा-अकबर फिल्म को ऐतिहासिक फिल्म कहा जाता है।
महेश भट्ट से एक सवाल और है कि जब हिंदी फिल्मों में जबर्दस्त पैसों की भरमार और स्टारडम के चलते पंजाबी, कन्नड. और दूसरे भाषायी सिनेमा खत्म हो रहा था तब उनका ये रोना नहीं सुना था रोये थे क्या वो।
Wednesday, January 6, 2010
दिल्ली पुलिस के अंगने में मेहमान यूपी के डान
उत्तर प्रदेश का कुख्यात डान नफीस कालिया दिल्ली में गिऱफ्तार। शार्प शूटर राजपाल नाई दिल्ली में गिरफ्तार। बीस साल से फरार चल रहा यूपी का सबसे बड़ा ईनामी डान ब्रजेश सिंह दिल्ली की स्पेशल टीम ने गिरफ्तार किया। इसके बाद मुन्ना बंजरगी भी गिरफ्तार। ये लिस्ट बहुत लंबी है लेकिन आप सोच रहे होंगे कि इन पुरानी कहानियां से आज क्या रिश्ता। सब गिरफ्तारियों का एक साथ क्या रिश्ता है। इन सबसे एक बात और समान है वो है इन शातिर अपराधियों की गिरफ्तारी के वक्त किसी भी हथियार का न मिलना। क्राईम के क ख ग को जानने वाला भी ये जानता है कि ये लोग शातिर हत्यारे है और पलक झपकते ही अत्याधुनिक हत्यारों से गोलियां बरसा देना इनका शगल है। पुलिस रिकार्ड में इनके पास हथियारों का जो ब्यारौ मिलता है वो भी इस बात की ताईद करता है कि देश भर में अडरवर्ल्ड के पास जो भी हथियार हो सकते है वो इन लोगों के गैंग और इनके पास है लेकिन हैरानी होती है कि जब भी दिल्ली पुलिस को ये अपराधी मिलते है तो गाय से ज्यादा शरीफ होते है। दिल्ली पुलिस लंबे अर्से से इन पर निगाह रखे हुए होती है और ये शरीफ बच्चों की तरह से समर्पण कर देते है। ये कहानी का एक पहलू है। दूसरी तरफ यूपी पुलिस के लोग है जो इनके पीछे सालों से पड़े रहते है लेकिन उनको इन बदमाशों की धूल तक नहीं मिलती। दिल्ली में जब ये अरेस्ट होते है तो यूपी पुलिस के अधिकारी ऑफ द कैमरा इस गिरफ्तारी को डीलिंग का नाम देते है। ऐसे कई मामले है जिनमे साफ तौर पर गिरफ्तारी एक नाटक के हिस्से की तरह से दिखायी देती है। लेकिन कभी जांच नहीं होती है।
एक मामला जहां तक मुझे याद आता है वेस्टर्न यूपी के शार्प शूटर राजपाल नाई का है। 2001-2 में राजपाल नाई को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इस गिरफ्तारी में खास बात थी कि जिस पुलिस इंपेक्टर ने राजपाल को गिरफ्तार किया था वो भी वेस्टर्न यूपी से ही ताल्लुक रखता था। इस बात को लेकर पुलिस प्रेस कांफ्रेस में काफी हो हल्ला मचा। उस समय के डीसीपी क्राईम मुकुंद उपाध्याय ने इस मामले में जांच के आदेश भी दिये। लेकिन ये जांच कहा बिला गयी कोई नहीं जानता। यूपी पुलिस के कई अधिकारी साफ तौर पर इशारा करते है कि ये साफ तौर पर मैनेज की गयी गिरफ्तारी होती है। और इसमें लाखों का लेन-देन होता है। यूपी में ऐसे कई दलाल है जो इस काम में माहिर है। यानि अपराधी और दिल्ली पुलिस के कुछ खास अधिकारियों के बीच सौदा कराने में ताकि सारा मामला इस सफाई से अंजाम दिया जाये कि पुलिस को बहादुरी मिल जाये और डान को सेफ कस्टडी। इस मामले में उसके हथियार औऱ बाकी गैंग मेंबर बाहर रहकर उसके लिये उगाही करते रहते है। कई मामलों में तो पुलिस पार्टी को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन भी हाथ लग जाता है।
हैरानी की बात है कि सालों से ये बात हवा में तैर रही है। इस बात में कई चीजे साफ तौर पर इशारा भी करती है कि इस मामले में सब कुछ फेयर नहीं है। लेकिन होम मिनिस्ट्री से इस मामले में कोई जांच या मीटिंग नहीं होती। एनसीआर पुलिसिंग के नाम पर हर छह महीने पर एक मीटिंग्स भी होती है लेकिन रस्मी बातचीत के अलावा इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता।
एक मामला जहां तक मुझे याद आता है वेस्टर्न यूपी के शार्प शूटर राजपाल नाई का है। 2001-2 में राजपाल नाई को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इस गिरफ्तारी में खास बात थी कि जिस पुलिस इंपेक्टर ने राजपाल को गिरफ्तार किया था वो भी वेस्टर्न यूपी से ही ताल्लुक रखता था। इस बात को लेकर पुलिस प्रेस कांफ्रेस में काफी हो हल्ला मचा। उस समय के डीसीपी क्राईम मुकुंद उपाध्याय ने इस मामले में जांच के आदेश भी दिये। लेकिन ये जांच कहा बिला गयी कोई नहीं जानता। यूपी पुलिस के कई अधिकारी साफ तौर पर इशारा करते है कि ये साफ तौर पर मैनेज की गयी गिरफ्तारी होती है। और इसमें लाखों का लेन-देन होता है। यूपी में ऐसे कई दलाल है जो इस काम में माहिर है। यानि अपराधी और दिल्ली पुलिस के कुछ खास अधिकारियों के बीच सौदा कराने में ताकि सारा मामला इस सफाई से अंजाम दिया जाये कि पुलिस को बहादुरी मिल जाये और डान को सेफ कस्टडी। इस मामले में उसके हथियार औऱ बाकी गैंग मेंबर बाहर रहकर उसके लिये उगाही करते रहते है। कई मामलों में तो पुलिस पार्टी को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन भी हाथ लग जाता है।
हैरानी की बात है कि सालों से ये बात हवा में तैर रही है। इस बात में कई चीजे साफ तौर पर इशारा भी करती है कि इस मामले में सब कुछ फेयर नहीं है। लेकिन होम मिनिस्ट्री से इस मामले में कोई जांच या मीटिंग नहीं होती। एनसीआर पुलिसिंग के नाम पर हर छह महीने पर एक मीटिंग्स भी होती है लेकिन रस्मी बातचीत के अलावा इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता।
Sunday, January 3, 2010
भीमा चला गया...बिना प्रधानमंत्री का भाषण सुने
रात भर नाचता रहा भीमा...होटल से फुटपाथ पर आती रही गानों की आवाज और बेगाने मस्ती में अब्दुल्ला की तरह दीवाना रहा भीमा। रात में सो गया पार्टियों में नाच रहे लोगों की तरह। अगले दिन पार्टियों में झूमने वाले लोग तो नशे में डूबे हैंगओवर के साथ देर में सही लेकिन उठ गये। उठा नहीं तो बस भीमा, वो रात ही इस दुनिया से चला गया। गुब्बारे सी जिंदगी जीता हुआ भीमा दिल्ली की सड़कों पर गुब्बारे बेचता था। साल 2009 की आखिरी रात अमीरों की दया से उसने ज्यादा पैसे कमा लिेये। एक ही रात में तीन सौ रूपये कमा कर भीमा मस्त हो गया। मां को भी पैसे दिये....दादी से भी वायदा किया उसे भी एक चादर दिला देंगा। लेकिन अगली सुबह खुद ही कफन की चादर में लिपट गया भीमा। दिन रात जिस सड़क पर गुब्बारे बेचता था भीमा उसी फुटपाथ पर अपनी जिंदगी के गुब्बारे की डोर तोड़ चला। 31 दिसंबर की रात फुटपाथ पर सो रहा भीमा ठंड की भेंट चढ़ गया। उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि वो अपने लिये झुग्गी का इंतजाम करता। लेकिन भीमा अकेला नहीं हैं, दिल्ली की सड़कों पर खुले आसमान के तले सोने वाले लाखों लोगों में से एक था भीमा। जिंदगी से चिपटे हुये लाखों लोग जिनकी सांसों की डोर कब टूट जाये कोई नहीं जानता। लेकिन तिल-तिल कर रोज मर रहे लाखों बेघरों से भीमा की मौत थोड़ा अलग है। भीमा जब धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था उसी वक्त देश का मीडिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान को लेकर खबर तैयार कर रहे थे कि देश में गरीबी कम हुयी है। देश का प्रधानमंत्री झूठ नहीं बोल सकता। ये भीमा को भी लगता होंगा। लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण तैयार करने वाले और उसके साथ दौरे पर जाने वाले ब्यूरोक्रेट जानते है कि ये सफेद झूठ है जिसके लिये फरेबी आंकड़ों का सहारा लिया गया। हां लेकिन भीमा की मौत से एक परेशानी कम हुई होंगी। रोज-रोज लंबी कारों या लाल बत्ती से कारों में चौराहों से गुजरने वाले ब्यूरोक्रेट और राजनेताओं को कॉमनवेल्थ से पहले जितने लोगों को दिल्ली से भगाना हैं उनमें से एक की संख्या तो कम हो गयी है। हम सुनते रहे कि दिल्ली में बेघरों को रात बिताने के लिये रैन बसेरे होते है लेकिन कोई नहीं जानता दिल्ली में कितने रैनबसेरे है आखिरी रैन बसेरा कब बना था दिल्ली में बेघर रहने वाले लोगों की तादाद कितनी है इसका कोई आंकडा सरकार के पास नहीं है। लेकिन जिस दिन दिल्ली में ओवरब्रिज बनाने के साथ उनका सौंदर्यीकरण का नारा दिया तो पुल के नीचे गरमी और सर्दी से निजात पाने वाले हजारों लोगों को छोड़ दिया गया लम्हा लम्हा मौत का इंतजार करने के लिये। आखिर इनका कोई ताल्लुक देश की तरक्की से नहीं है। देश के स्वाभिमान के तौर पर पेश किये जा रहे कॉमनवेल्थ पर ये बदनुमा दाग है। देश की राजधानी को निखारा जा रहा है। क्योंकि यहां इस साल कॉमनवेल्थ खेल होने है। इसी लिये दिल्ली में बेघरों के लिये बनाये गये रैन बसेरों को भी तोड़ा जा रहा है। खैर पहली जनवरी को भीमा के फूंक या फिर हवा से भरे गये गुब्बारों से खेलने वाले बच्चे कभी नहीं जान पायेंगे कि सुबह जब उनके गुब्बारे कमरों या बरामदे में हवा के बिना इधर उधर पड़े थे ,उस वक्त भीमा की बेसहारा मां और दादी उसके उपर कफन ओढ़ा रही थी। लाश को फूंकने के लिये सड़क पर आने जाने वालों से भीख मांग रही थी। ......इसके बाद पत्थरों के शहर में दो बेसहारा गरीब औरते कैसे मौत का इंतजार करेंगे कोई नहीं जानता। लेकिन हम लोग भी अब अगले साल तक अखबारों में इंतजार करेंगे कि कोई संवाददाता एक ह्यूमन एंगल की स्टोरी लिखे...भीमा नहीं तो कोई कल्लू..राजू या फिर बब्लू मरे।
Friday, January 1, 2010
दिल्ली से भागों भूखे नंगे लोगों कॉमनवेल्थ होगा
भ्रष्ट्राचार को राष्ट्र गौरव में बदलेगा ये साल
..कॉमनवेल्थ गेम्स का हाल
बिल्ली को देखकर कबूतर अपनी आंखें बंद कर सोचने लगते हैं कि उनको नहीं दिख रहा है तो बिल्ली भी उन्हें नहीं देख पा रही होंगी। कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है। मीडिया को लग रहा है कि उसने आंखे बंद कर ली है तो देश को भी नहीं दिख रहा होगा।
नया साल है तो सबका मूड अच्छा ही है देश की तरक्की की नयी उम्मीदें भी है। हर आदमी जश्न के मूड में है। नया साल और दशक भारत का होने जा रहा है ऐसा ही है मीडिया का आकलन और उसकी उतारी हुयी तस्वीर। लेकिन देश के करोड़ो भूख से बिलबिलाते लोगों की बेबसी कनॉट प्लेस के हजारों बल्बों में कहीं खो गयी है। मैं पुराना राग नहीं छेड़ना चाहता। लेकिन एक बात की ओर ध्यान जरूर दिलाना चाहूंगा जिस पर मीडिया जानबूझकर ध्यान नहीं दे रहा है और आम आदमी भी पर्दे के पीछे खेल जा रहे इस की हकीकत को समझ नहीं पा रहा है, वो बात है बाकॉमनवेल्थ खेल को लेकर किया जा रहा खेल। भ्रष्ट्राचार की हजारों कहानियां है लेकिन वो फिर कभी अभी तो मैं एक बात आपके सामने रखने से अपने आप नहीं रोक पा रहा हूं
कल के अखबार में दिल्ली म्युनिसिपल कार्पोरेशन के चेयरमैन का एक ब्यान था. कॉमनवेल्थ खेल के दौरान दिल्ली के फैक्ट्री मालिक अपनी फैक्ट्रियों में स्वेच्छा से काम बंद रखे। कारण कि दिल्ली में पॉल्यूशन कम रहेगा। दलील दी गयी कि चाईना में हुये बीझिंग ओलंपिक के दौरान ऐसा ही किया गया था। काफी खूबसूरत दलील दी गयी। लेकिन ये अपील ही कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सरकार की कार्रवाही का रोड़मैप है ।कॉमनवेल्थ गेम्स में हुआ हजारों करोड़ रूपये का भ्रष्ट्राचार का खेल। हजारों करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट निकले, उनके टेंडर हुये, हजारों करोड़ का बारा न्यारा हुआ औऱ जब भी किसी चीज पर हो हल्ला मचा तो आयोजन समिति से जुड़ें लोगों ने शोर मचा दिया कि देश का गौरव खतरे में है। अक्सर लोगों का सवाल होता था कि क्या कॉमनवेल्थ खेल होंगे की नहीं तब मैं एक ही बात कह पाता था कि काली कमाई पर जिंदा इस देश में इतना पैसा है कि ये लोग नोटो की सड़क पर भी एथलीटों को उठा लायेंगे । लेकिन इससे देश के खेल का परिदृश्य कितना बदलेगा तो जवाब होता था कि जीरो। ऐसे ही एक दिन आयोजन समिति से जुडे एक अधिकारी की बातचीत से अदेंशा हुआ कि कॉमनवेल्थ के वक्त अगर किसी चीज को सबसे बड़ा खतरा होगा तो आम आदमी की आजादी और कमजोर लोगों की रोजी पर संकट आयेगा। लेकिन कैसे इस बात को मैं समझ नहीं पा रहा था।
और फिर फेनेल औऱ उनकी कॉमनवेल्थ टीम के दिल्ली दौरे के वक्त कुछ-कुछ चीजें साफ होनी शुरू हो गयी थी। दो दिन तक उस रास्ते को ही बंद कर दिया गया था जिससे उस टीम को गुजरना था। ये देश में पहला मौका था कि किसी राष्ट्राध्यक्ष के काफिले के गुजरते वक्त सुरक्षा के ख्याल के कुछ घंटे बंद किये गये यातायात के अलावा किसी मौके पर रास्ते बंद किये गये हो। लेकिन कोई आदमी या संस्था इस बात लेकर सड़क पर नहीं आयी और आयोजन समिति और बिल्डर माफिया ग्रुप को इससे एक रास्ता मिल गया कि देश के गौरव के नाम पर भ्रष्ट्राचार का अथाह सागर एक लोटे में भर रखा जा सकता है। उसी वक्त से एक बात साफ हो गयी थी कि सरकार जल्दी-जल्दी प्रोजेक्ट पूरे करने के नाम पर भ्रष्ट्राचार की गंगोत्री की जांच के रास्ते बंद कर देगी। लेकिन आम आदमी का क्या होगा। सड़क और ट्रैफिक की स्थिति से कैसे निबटेगी। और चेयरमैन ने इसका रास्ता सुझा दिया कि पहले फैक्ट्री मालिकों से अपील करो और अगले कदम के तौर पर खेलों के 15 दिन तक उन सब सड़कों से आम आदमी की आवाजाही बंद कर दो जिससे एथलीटों के दल को गुजरना होंगा। बाहर से आऩे वाले वाहनों की संख्या सीमित कर दो या फिर उसको 15 दिन तक बंद कर दो। कोई आदमी इस पर सवाल कर नहीं सकता और अदालतों में देश के हित से जुडे मामलों पर कोई क्या बहस करेगा। लेकिन उन हजारों लाखों लोगों के घर चूल्हा कैसे जलेगा जो रोज दिल्ली की सड़कों और फैक्ट्रियों में अपना खून औऱ पसीना बहाकर मजदूरी कर घर जाते है। .
..कॉमनवेल्थ गेम्स का हाल
बिल्ली को देखकर कबूतर अपनी आंखें बंद कर सोचने लगते हैं कि उनको नहीं दिख रहा है तो बिल्ली भी उन्हें नहीं देख पा रही होंगी। कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है। मीडिया को लग रहा है कि उसने आंखे बंद कर ली है तो देश को भी नहीं दिख रहा होगा।
नया साल है तो सबका मूड अच्छा ही है देश की तरक्की की नयी उम्मीदें भी है। हर आदमी जश्न के मूड में है। नया साल और दशक भारत का होने जा रहा है ऐसा ही है मीडिया का आकलन और उसकी उतारी हुयी तस्वीर। लेकिन देश के करोड़ो भूख से बिलबिलाते लोगों की बेबसी कनॉट प्लेस के हजारों बल्बों में कहीं खो गयी है। मैं पुराना राग नहीं छेड़ना चाहता। लेकिन एक बात की ओर ध्यान जरूर दिलाना चाहूंगा जिस पर मीडिया जानबूझकर ध्यान नहीं दे रहा है और आम आदमी भी पर्दे के पीछे खेल जा रहे इस की हकीकत को समझ नहीं पा रहा है, वो बात है बाकॉमनवेल्थ खेल को लेकर किया जा रहा खेल। भ्रष्ट्राचार की हजारों कहानियां है लेकिन वो फिर कभी अभी तो मैं एक बात आपके सामने रखने से अपने आप नहीं रोक पा रहा हूं
कल के अखबार में दिल्ली म्युनिसिपल कार्पोरेशन के चेयरमैन का एक ब्यान था. कॉमनवेल्थ खेल के दौरान दिल्ली के फैक्ट्री मालिक अपनी फैक्ट्रियों में स्वेच्छा से काम बंद रखे। कारण कि दिल्ली में पॉल्यूशन कम रहेगा। दलील दी गयी कि चाईना में हुये बीझिंग ओलंपिक के दौरान ऐसा ही किया गया था। काफी खूबसूरत दलील दी गयी। लेकिन ये अपील ही कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सरकार की कार्रवाही का रोड़मैप है ।कॉमनवेल्थ गेम्स में हुआ हजारों करोड़ रूपये का भ्रष्ट्राचार का खेल। हजारों करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट निकले, उनके टेंडर हुये, हजारों करोड़ का बारा न्यारा हुआ औऱ जब भी किसी चीज पर हो हल्ला मचा तो आयोजन समिति से जुड़ें लोगों ने शोर मचा दिया कि देश का गौरव खतरे में है। अक्सर लोगों का सवाल होता था कि क्या कॉमनवेल्थ खेल होंगे की नहीं तब मैं एक ही बात कह पाता था कि काली कमाई पर जिंदा इस देश में इतना पैसा है कि ये लोग नोटो की सड़क पर भी एथलीटों को उठा लायेंगे । लेकिन इससे देश के खेल का परिदृश्य कितना बदलेगा तो जवाब होता था कि जीरो। ऐसे ही एक दिन आयोजन समिति से जुडे एक अधिकारी की बातचीत से अदेंशा हुआ कि कॉमनवेल्थ के वक्त अगर किसी चीज को सबसे बड़ा खतरा होगा तो आम आदमी की आजादी और कमजोर लोगों की रोजी पर संकट आयेगा। लेकिन कैसे इस बात को मैं समझ नहीं पा रहा था।
और फिर फेनेल औऱ उनकी कॉमनवेल्थ टीम के दिल्ली दौरे के वक्त कुछ-कुछ चीजें साफ होनी शुरू हो गयी थी। दो दिन तक उस रास्ते को ही बंद कर दिया गया था जिससे उस टीम को गुजरना था। ये देश में पहला मौका था कि किसी राष्ट्राध्यक्ष के काफिले के गुजरते वक्त सुरक्षा के ख्याल के कुछ घंटे बंद किये गये यातायात के अलावा किसी मौके पर रास्ते बंद किये गये हो। लेकिन कोई आदमी या संस्था इस बात लेकर सड़क पर नहीं आयी और आयोजन समिति और बिल्डर माफिया ग्रुप को इससे एक रास्ता मिल गया कि देश के गौरव के नाम पर भ्रष्ट्राचार का अथाह सागर एक लोटे में भर रखा जा सकता है। उसी वक्त से एक बात साफ हो गयी थी कि सरकार जल्दी-जल्दी प्रोजेक्ट पूरे करने के नाम पर भ्रष्ट्राचार की गंगोत्री की जांच के रास्ते बंद कर देगी। लेकिन आम आदमी का क्या होगा। सड़क और ट्रैफिक की स्थिति से कैसे निबटेगी। और चेयरमैन ने इसका रास्ता सुझा दिया कि पहले फैक्ट्री मालिकों से अपील करो और अगले कदम के तौर पर खेलों के 15 दिन तक उन सब सड़कों से आम आदमी की आवाजाही बंद कर दो जिससे एथलीटों के दल को गुजरना होंगा। बाहर से आऩे वाले वाहनों की संख्या सीमित कर दो या फिर उसको 15 दिन तक बंद कर दो। कोई आदमी इस पर सवाल कर नहीं सकता और अदालतों में देश के हित से जुडे मामलों पर कोई क्या बहस करेगा। लेकिन उन हजारों लाखों लोगों के घर चूल्हा कैसे जलेगा जो रोज दिल्ली की सड़कों और फैक्ट्रियों में अपना खून औऱ पसीना बहाकर मजदूरी कर घर जाते है। .
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