सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हो गयी। देश के बड़े घरानों के बडे वकील, सरकारों के प्यारे वकील और पीआईएल में भी सुप्रीम कोर्ट मे दहाड़ते इन वकील साहब को वीआईपी लोगों के ट्रैफिक मूवमेट के दौरान आम आदमी को होने वाली दिक्कतों से परेशानी है। लेकिन याचिका दाखिल हई गुजराल साहब के अंतिम समय पर रूके ट्रैफिक जाम के समय। वकील साहब सुप्रीम कोर्ट से चाहते है कि वो इसका जवाब तलब करे। लगा कि ये क्या है। कोई इस तरह से कर सकता है। वो भी देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री की शवयात्रा पर जो महज एक घंटे में सिमट गयी। इतना ही समय लगा पूरे राजकीय सम्मान से हुई इस अत्येंष्टि में। बात मुख्तसर में इतनी है,इंद्र कुमार गुजराल नहीं रहे। पूर्व प्रधानमंत्री थे। यही दिल्ली में रहते थे। काफी लोगों को याद नहीं था, इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे। टीवी चैनलों ने देश को काफी कुछ नहीं बताया। इंद्र कुमार गुजराल के निधन पर टीवी चैनल्स बौराये भी नहीं। अखबारों को याद था। इसीलिये पहले पन्ने पर उतनी ही जगह थी जितनी बाजार ने इंद्र कुमार गुजराल के लिये नियत की थी। एफएम रेडियों पर बदस्तूर गाने बज रहे थे। ऐसा भी नहीं है कि वो चुपचाप चल बसे हो। और किसी को उनका पता भी न चला हो। वो कई दिन से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे। रात में एक बार अस्पताल गया। न कोई ओबी वैन न कोई कैमरामेन। डॉक्टरों से हाल चाल जानने के लिये दौडते रिपोर्टर भी नहीं दिखे। पूछने पर पता चला कि हां भर्ती तो है। क्या कोई रिपोर्टर आया था। नहीं बस फोन पर दरियाफ्त की थी। उसके बाद किसी टीवी चैनल्स न लाईव दिखाया न किसी डॉक्टर का लाईव बुलेटिन दिया। और जब मौत हुई तो उस दिन किसी भी चैनल के धुरंधर रिपोर्टर फील्ड रिपोर्टिंग में नहीं थे। उनका ऑफ था। किसी का ऑफ कैंसिल नहीं हुआ। 5 जनपथ। ये ही पता था इंद्र कुमार गुजराल का। लेकिन ये ताकत का पता नहीं था। उस दिन यहां कैमरे लगे थे। लेकिन रिपोर्टर जूनियर थे। दिल्ली ने प्रधानमंत्रियों की मौत देखी है। भारी भीड़, रोते बिलखते समर्थक। टीवी पर श्रदांजलि देते नेता। लगभग रो देने के अंदाज में रिपोर्टिंग करते महारथी और पहले से पहले बोलती ऐंकरें। लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था। टाईम दो बजे बताया था शवयात्रा का। लेकिन आधा घंटे पहले ही निकल गयी। आम आदमी की तलाश की लेकिन नहीं दिखा। कुछ सरकारी अफसर जो अब रिटार्यड थे। कुछ केन्द्रीय मंत्री कुछ विपक्षी नेता। रस्म अदायगी थी। अंदर से बाहर आकर कैमरों की तरफ उम्मीद से झांकते नेताओं की बेचैनी पर हंसते रिपोर्टर। किसी को कोई बाईट की जल्दी नहीं। ऑफिस से कोई डिमांड नहीं थी। डिमांड नहीं तो पीटीसी नहीं लाईव नहीं और वॉक थ्रू भी नहीं जो रिपोर्टर को रिपोर्टर बनाते है बॉस लोगों की निगाह में। कुछ देर में एक रिपोर्टर को होश आया कि एक दो बाईट ले लो भाई। शाम को पैकेज तैयार करना है। काम आयेगी। इसके बाद आनंद शर्मा दिखायी दिये। उनको कहा गया वो तैयार हो गये। उन्होंने कुछ ऐसे भाव में कहा कि देश ने अपना सपूत खोया है। बेहद सज्जन आदमी थे। और भी इस तरह की बातें। एक नया रिपोर्टर था। विकी पीडिया पढ़ कर आया था। सवाल करना जरूरी था। क्या गुजराल डाक्ट्रीन अभी भी रिलीवेंस है। क्या कांग्रेस उस पर अमल करेगी। आनंद शर्मा ने जवाब दिया। भारत की नीति है कि अब वो सब देशो के साथ मित्रता रखना चाहता है। भारत ने कभी भी इस बात का समर्थन नहीं किया है कि किसी देश के साथ किसी भी किस्म की दुश्मनी की जाये। कोई सवाल करे उससे पहले ही रिपोर्टर की आवाज आयी हो गया हो गया। फिर नबंर आया कपिल सिब्बल साहब का। कपिल सिब्बल साहब ने भी वहीं बात की। इसके बीच में ही शरद यादव जी आ टपके। उनको किसी रिपोर्टर ने आवाजनहीं दी थी। लेकिन उन्होंने भी बताया गुजराल साहब बड़े ही अच्छे आदमी थे। इसके बाद उनकी शवयात्रा शुरू हो गयी। कुल मिलाकर ट्रक के पीछे लगभग चालीस आदमी थे। जिसमें से नरेश गुजराल को हम लोग पहचान सकते थे। सांसद है। अकाली दल से है। लेकिन और कोई इस तरह का आदमी ट्रक के पीछे पैदल नहीं था। किसी रिपोर्टर ने कहा कि क्या मॉरिशस के पूर्व प्रधानमंत्री की मौत हुई है जो दिल्ली में निर्वासित जीवन जी रहे थे। भारत के लोग बेखबर क्यों है। घरों से झांकने वाले चेहरे कहां है। बाते बहुत सारी है। लेकिन अभी नहीं पहले बात करते है दो हफ्ते पहले हुई बाल ठाकरे की मृत्यु को।
शोक को त्यौहार में बदल देने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने पूरे रौ में था। किसी ने सेनापति कहा। किसी ने शेर कहा। और भी जितने पूजा के तरीके हो सकते है वो कहे गये। टीवी चैनल्स के ऐंकर पागलों की तरह से बर्ताव कर रहे थे। दिल्ली से भेजे गये ऐंकर कम रिपोर्टर, धुरंधर रिपोर्टर और भी जाने कितने लोग चर्चा कर रहे थे। स्टूडियों में बैठकर विरोध करने वाले भी इस बात को कह रहे थे कि आप उनकी राजनीति से सहमत या असहमत हो सकते है लेकिन उनके जीवट की तारीफ करेंगे। हैरानी हो सकती थी। ये वहीं हिंदी चैनल्स थे जो कुछ दिन पहले हिंदीभाषियों पर हुए हमले से हलकान थे। जो भी कह सकते थे वो कह रहे थे। लेकिन आज वही रिपोर्टर बाल ठाकरे की तारीफ में आसमान में छेद कर दे रहे थे।
बाल ठाकरे किसी पद पर नहीं थे। लेकिन उनका पूरा सम्मान किया गया। यहां तक कि राजकीय सम्मान। यात्रा में आठ से दस घंटे लगे। मुंबई का सबसे बड़ा अंहकार कि ये शहर थमता नहीं, गायब था। हर तरफ सब रूका हुआ था। किसी को नहीं चुभा। एक लड़की ने अपने मन की बात फेस बुक पर लिख दी। उसकी दोस्त ने उसको पंसद करने का निशान लगा दिया। बस हर दूसरे राज्य की पुलिस को हमेशा छोटा, और कम समझ का साबित करने वाली महाराष्ट्र पुलिस अपने पूरे शबाब पर आ गयी। उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। शिवसेना के वो लोग जिनकी तारीफ के कशीदें पढ़ते रहे चैनल्स पूरे दिन अपनी औकात में आ गये। लड़की के चाचा के हॉस्पीटल पर हमला कर दिया। अगले दिन जब एक अंग्रेजी चैनल्स ने टीआरपी के सम्मोहन से जाग कर इस खबर को चलाया तो जैसे तिलिस्म टूटा। अचानक इलेक्ट्रानिक मीडिया को ये गुनाहे अजीम दिखा। और सबने बहस को ले गये सबसे नये कानून पर। आईटी एक्ट पर। किसी को नहीं दिखा कि पुलिस का बर्बर चेहरा हमेशा ऐसा ही होता है। किसी भी लड़की को शाम को किसी पुलिस स्टेशन नहीं बुलाया जा सकता। महिला के परिजन साथ में हो। ऐसा आईटी एक्ट में नहीं बल्कि सामान्य कानून में दर्ज है। उसको ताक पर रख दिया। लेकिन किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं दर्ज किया गया।
लेकिन हमारा उस एपिसोड से कोई मोह नहीं है। देश में इस वक्त जो चल रहा वो क्या है इस पर बात करना है। क्या मीडिया इस देश में ये तय कर रहा है कि किसके मरने पर देश को रोना चाहिये और किसके पर नहीं। अगर कोई अराजक भीड़ नहीं और कोई राजनीतिक फसल भी नहीं जिसको बाद में राजनेता काट सके तब कोई भी उस आदमी पर मुकदमा दर्ज कर सकता है। सवाल कई है। क्या राजनेताओं के लिये जातिवाती राजनीति करनी जरूरी है। क्या ऐसे समर्थकों की भीड़ जुटानी जरूरी है जो आपके इशारे पर देश के कानून की ऐसी की तैसी कर दे। या फिर ऐसे लोग जो सत्ता में बैठी जमात को फायदे और नुकसान के बारे में सोचने पर मजबूर कर दे। लेकिन इससे अलग एक ऐसा रास्ता भी है। लालबहादुर शास्त्री और वल्लभ भाई पटेल का। लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर वोटों की फसल नहीं काटी जा सकती है। उनके बेटों ने भी राजनीतिक पार्टियों के कंधों पर चढ़कर पिता की विरासत को चार कंधें दे दिये. लेकिन देश की जनता आज भी लाल बहादुर शास्त्री का नाम गाहे बगाहे बिना सरकार के याद कराये लेती है। लेकिन ये डगर थोडा मुश्किल है। लेकिन गुजराल हो सकते है आसानी से।
शोक को त्यौहार में बदल देने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने पूरे रौ में था। किसी ने सेनापति कहा। किसी ने शेर कहा। और भी जितने पूजा के तरीके हो सकते है वो कहे गये। टीवी चैनल्स के ऐंकर पागलों की तरह से बर्ताव कर रहे थे। दिल्ली से भेजे गये ऐंकर कम रिपोर्टर, धुरंधर रिपोर्टर और भी जाने कितने लोग चर्चा कर रहे थे। स्टूडियों में बैठकर विरोध करने वाले भी इस बात को कह रहे थे कि आप उनकी राजनीति से सहमत या असहमत हो सकते है लेकिन उनके जीवट की तारीफ करेंगे। हैरानी हो सकती थी। ये वहीं हिंदी चैनल्स थे जो कुछ दिन पहले हिंदीभाषियों पर हुए हमले से हलकान थे। जो भी कह सकते थे वो कह रहे थे। लेकिन आज वही रिपोर्टर बाल ठाकरे की तारीफ में आसमान में छेद कर दे रहे थे।
बाल ठाकरे किसी पद पर नहीं थे। लेकिन उनका पूरा सम्मान किया गया। यहां तक कि राजकीय सम्मान। यात्रा में आठ से दस घंटे लगे। मुंबई का सबसे बड़ा अंहकार कि ये शहर थमता नहीं, गायब था। हर तरफ सब रूका हुआ था। किसी को नहीं चुभा। एक लड़की ने अपने मन की बात फेस बुक पर लिख दी। उसकी दोस्त ने उसको पंसद करने का निशान लगा दिया। बस हर दूसरे राज्य की पुलिस को हमेशा छोटा, और कम समझ का साबित करने वाली महाराष्ट्र पुलिस अपने पूरे शबाब पर आ गयी। उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। शिवसेना के वो लोग जिनकी तारीफ के कशीदें पढ़ते रहे चैनल्स पूरे दिन अपनी औकात में आ गये। लड़की के चाचा के हॉस्पीटल पर हमला कर दिया। अगले दिन जब एक अंग्रेजी चैनल्स ने टीआरपी के सम्मोहन से जाग कर इस खबर को चलाया तो जैसे तिलिस्म टूटा। अचानक इलेक्ट्रानिक मीडिया को ये गुनाहे अजीम दिखा। और सबने बहस को ले गये सबसे नये कानून पर। आईटी एक्ट पर। किसी को नहीं दिखा कि पुलिस का बर्बर चेहरा हमेशा ऐसा ही होता है। किसी भी लड़की को शाम को किसी पुलिस स्टेशन नहीं बुलाया जा सकता। महिला के परिजन साथ में हो। ऐसा आईटी एक्ट में नहीं बल्कि सामान्य कानून में दर्ज है। उसको ताक पर रख दिया। लेकिन किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं दर्ज किया गया।
लेकिन हमारा उस एपिसोड से कोई मोह नहीं है। देश में इस वक्त जो चल रहा वो क्या है इस पर बात करना है। क्या मीडिया इस देश में ये तय कर रहा है कि किसके मरने पर देश को रोना चाहिये और किसके पर नहीं। अगर कोई अराजक भीड़ नहीं और कोई राजनीतिक फसल भी नहीं जिसको बाद में राजनेता काट सके तब कोई भी उस आदमी पर मुकदमा दर्ज कर सकता है। सवाल कई है। क्या राजनेताओं के लिये जातिवाती राजनीति करनी जरूरी है। क्या ऐसे समर्थकों की भीड़ जुटानी जरूरी है जो आपके इशारे पर देश के कानून की ऐसी की तैसी कर दे। या फिर ऐसे लोग जो सत्ता में बैठी जमात को फायदे और नुकसान के बारे में सोचने पर मजबूर कर दे। लेकिन इससे अलग एक ऐसा रास्ता भी है। लालबहादुर शास्त्री और वल्लभ भाई पटेल का। लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर वोटों की फसल नहीं काटी जा सकती है। उनके बेटों ने भी राजनीतिक पार्टियों के कंधों पर चढ़कर पिता की विरासत को चार कंधें दे दिये. लेकिन देश की जनता आज भी लाल बहादुर शास्त्री का नाम गाहे बगाहे बिना सरकार के याद कराये लेती है। लेकिन ये डगर थोडा मुश्किल है। लेकिन गुजराल हो सकते है आसानी से।
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