Saturday, December 15, 2012

कोई ख्वाब नहीं है

कोई ख्वाब नहीं है। रात में सोने के बाद जब भी उठता हूं। तो याद नहीं आता कि मैंने कोई ख्वाब देखा है कि नहीं। बच्चों पर निगाह डालता हूं तो सोते हुए भी उनकी पलकों के नीचे हलचल दिखती है। लगता है उनकी आंखों में जरूर कोई ख्बाव पल रहा है। मैं अपनी उलझन कैसे सुलझाउं। पत्नी से पूछता हूं। वो हाथ देखती है और फिर जीभ दिखानें को कहती है। शहर में कोई भी दोस्त नहीं है। ऐसी बात किसी से कर भी नहीं सकता। मुझे ख्वाब नहीं आते। घड़ी की सुईयां मुझे सोचने का वक्त नहीं देती। ऑफिस के लिए भागना है। तेजी से नहाना है। खाना मेज पर लगा है। नौकरानी के पास चाबी है घर की। बच्चों को स्कूल क्रैच भेजना है। खाया, भागा ताला लगाया। सड़क पर आया। निशाने पर ऱखने वाली कारों से बचा। मोटरसाईकिल वालों से टकराया। टैंपू में चढ़ा। तेज आवाज से महबूबा को कोस रहे बेसुरे को सुना। ड्राईवर की बीड़ी से निकले धुएं को पिया। मेट्रो स्टेशन। सीढि़यों पर भागते हुए फ्री का अखबार लेना भूल गया। कोई बात नहीं मांग लूगा। गेट पर लगी भीड़ में सबसे आगे वाले तक कैसे पहुंचना है। कोई बात नहीं दूसरी लाईन बना लेता हूं। कोई बोलता नहीं है बस थोड़े सा बेशर्म बनना है। दरवाजा खुलता है । दीवानावार भागता हूं। चलो सीट तो मिल गई। बूढी औरत खड़ी है। खड़ी रहे मुझे क्या। वो साला जो सामने बैठा है बुढिया का रिश्तेदार है जो बैठा रहेगा। आंखे बंद कर लेता हूं। कुछ देर में जानवरों का आलम दिखने लगेगा। स्टेशन पर बाहर खड़े भीतर धक्का देंगे। भीतर वाले उनको दरवाजों पर रोकेंगे। रोज की तरह से तीन बार दरवाजा बंद खुलेगा। सीटी की आवाज आएंगी। बाहर खड़े को दरवाजे से घकिया देगा गार्ड। गाड़ी चल देंगी। फिर से अगला स्टेशन। कुछ देर बात मेरा स्टेशन। उतरने से पहले एकबार अहसान। आप बैठ जाईंये माता जी। चालीस मिनट से खड़ी बुढ़िया अब मां दिखती है। मुझे तो उतरना ही है। पहले क्यों सीट नहीं दी हरिश्चन्द्र महाजारा कर्ण की औलाद। कोई बात नहीं। दरवाजा बंद हो चुका है। भौंकने वालों से चिढता नहीं। बु़ढिया तो अब तक दुआ कर चुकी होगी मेरे लिये। वैसे भी तेज भागना है नहीं तो एक्जिट गेट पर भीड़ जमा हो चुकी होगी। तेजी से भागते हुऐ एक्जिट गेट पर करता हूं। घ़ड़ी साथ नहीं देती। दस मिनट लेट हो चुका हूं। तेजी से दौड़ता हूं। अर रूको ये लडकी तो ठीक है। इस पर इम्प्रैशन जमाना हूं। अरे इसका तो कोई प्रेमी है। चलों तेजी से दौडो। सीढियां पार करो। लो इन कर दिया। दफ्तर में बास की निगाहों से बचो। यही बैठा रहता है। पता नहीं घर है नहीं है। बॉस को पसंद है तुम्हारी खुशबू। बैठते ही आवाज। आओँ । क्लास शुरू क्लास खतम। ये तय है कि काम नहीं करता हूं कभी बॉस की निगाह में। मैं कई बार आवारा निगाहों से देखता हूं आफिस में काम करने वालों को। लगता है कि काम ही काम में डूबे है। काम कहां है दिखता नहीं। मैं वो सब करने में अब नाकाम हो रहा हूं। रोज रात की परिक्रमा दिन में आते हू बदल जाती है। सोचता हूं कि कल सब ठीक कर लूंगा लेकिन नया दिन भी पिछले दिन की मिरर इमेज ही निकलता है। चलो जल्दी चलो। यूनिट लो फील्ड में चलो। फील्ड में सब लोग अपनी दुनिया में मस्त। फलां नेता के यहां चलना है। फोन करो। सर कैसे है। सर एक छोटी सी मुलाकात। अऱे नहीं भाई समय नहीं है। सर प्लीज जरूरी मामला है। आ जाओं फिर दो घंटे बाद। जानता हूं कि दो घंटे तक बतिया रहा होगा। फलां आदमी। जाते ही पैर छूना होता है तब वो उसी वक्त बुला लेते है। सुईयां सी चुभी देखकर किसी को पैर छूते हुये। लेकिन ये दर्द तो झेलना ही होता है। काम के वक्त मशीन में डूबा वो आदमी पैर नहीं अपनी नौकरी और नावां देखता रहता है। मैं सोचता रहता हूं कि अगर मैंने पैर छुए और मेरे बेटे ने देखा तो क्या वो ये बात समझेंगा कि मैं नौकरी के लिये पैर छू रहा हूं। इसीलिये रीढ़ का दर्द कुछ और बढ़ जाता है लगातार सीधे खड़े खड़े। उलट बात है। दर्द झुकने वालों के होना चाहिये था लेकिन वो तो हंसते हुए दिख रहे है। और मेरा हाल पूछ रहे है कि अरे आपकी मुलाकात नहीं हुई अभी तक हम तो दो घंटे पहले ही हो आये। इसी बीच बॉस के कई फोन आ चुके है । क्या हुआ फलां ने मुलाकात कर ली है। फलां ने ये कर लिया है। आप क्या कर रहे हो। बॉस नौकरी छोड दो। खैर किसी तरह से नमस्कार कर मुलाकात। अब ये मुलाकात ऑफिस में भेजने की मशक्कत। कोई किसी काम में कोई किसी काम में बिजी है। आप जिसको बोलो वही बिजी है। मेल किया। और छोड़ दिया। घंटों तक खूबसूरत सड़कों पर बदसूरत से दिखते हुए निरर्थक मुलाकातों का जाल। अधूरी हंसी या फिर झूठ के कंबल में लिपटी हुई हंसी के साथ थक गये जबड़ों को समेटता हूं। जल्दी चलो। सहकर्मी की भुनभुनाती हुई आवाज। यार तुम्हारी वजह से मेरी शिफ्ट ओवर हो जाती है। उसको समझाना बेकार है। उसकी घड़ी ठीक चलती है। क्या करूं। चलो आजका काम हो गया। भागों जल्दी वापस ऑफिस। बॉस न देख ले। कल की शिफ्ट पूछेगा नहीं लगा देगा। मेरी आदत के विपरीत। मैं अल सुबह उठकर काम करता हूं। और रात में जल्दी बिस्तर तक पहुंचना चाहता हूं। लेकिन कल तुमको आना है दोपहर से रात के बारह बजे। हे भगवान। सुबह पांच बजे उठकर रात के दो बजे तक का काम है कल। क्योंकि दिन में सोता नहीं हूं। मां कहती थी कि दिन में सोने से काहिल बन जाता है आदमी। ऑफिस में तब तक हल्ला मचता हैं। अरे फलां से मुलाकात किसने की है। मैं बोलता हूं। तब आपने बताया क्यों नहीं। अरे आपको मेल किया था। मेल किया था। अरे ये क्या लापरवाही से काम कर रहे हो। मीटिंग्स में हंगामा हुआ है। आपका नाम लेकर बाकायदा पूछा गया है कि आप क्या करते हो।आपका मामला खराब है। ऐसे नहीं चल सकता है। लेकिन मेल तो तमाम लोगों को गया था। उससे क्या होता है आपको फोन करना चाहिये था। हम को देखों हम मेल भेज कर भी कितने फोन करते है ताकि हमारा काम दिख जाये। यार आप करते क्या है। मैं आपको कब तक संभाल पाऊंगा। मुझे माफ करो यार। अपने आप भी कुछ काम कर लिया करो। बॉस का राग सम पर था। खैर एक दो घंटे बाद वापसी की वही साफ कवायद। सीढियां चढ़ते वक्त घर की। वापस सारा दिन अपनी पैंट की जेब में रख लेता हूं। बच्चों को चेहरे पर चढ़ आये दिन के फोटो नहीं दिखाने है। शायद डर जायेगे। मासूम है अभी। पुराना हंसता हुआ चेहरा लगाओं जल्दी जल्दी। पत्नी सात पर्दों के पीछे छिपे चेहरे को भी पहचानती है। फिर वही हुआ होगा। हाथों से सामान पकड़ती है। खाना गर्म करने चलती है कि नहीं यार ऐसे ही दे दो। फिर भी गर्म खाना हाथ तक पंहुच जाता है। धीमे से कमरों को देखता हूं। बिस्तर बिछाता हूं। और रात की नदी में सपनों के सीप खोजना शुरू कर देता हूं।

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