Friday, June 4, 2010

लड़कियों, औरतों को सामान कहूं तो मां को क्या कहूं

कुछ और झूठ मेरे चेहरे पर लगा दो
कुछ और मेरा चेहरा सजा दो,
कहीं बचा हो अगर सीने में
दर्द
किसी का, उसे भी हटा दो
तैयार हो रहा हूं मैं
अब
दुनिया से मिलने के लिये।
बहुत मुश्किल है भूलना
सच
कोई याद है तो उसे भी जेहन से मिटा दो।
सीखा है जो मैंने
अब
एक बार फिर उसे दोहरा लूं
सम्मान में किसी के लिये
जब भी मैं झूंकू
इशारा है मेरा
इसका सर उड़ा दों
जब भी मैं खिलखिलाऊं
कुछ मासूमों का रक्त बहा दो.
मैं आंसूं बहाऊँ
तो निर्दोषों की जान से खेलों
मैं कहूं
इसे कुछ देना है
ये मेरा इशारा
उसकी आखिरी रोटी भी ले लो
मेरे सच का मतलब झूठ है
मेरे झूठ में फरेब में
मेरे इश्क में ऐब है
मेरे दोस्ती में दिल्लगी है
यहां तक तो सब ठीक-ठाक है
थोड़ा गड़बड़ आखिरी एक पाठ है
लड़कियों और औरतों को सामान कहूं
तो मां
को क्या कहूं।

4 comments:

दिलीप said...

jhakjhor diyaa aapne to ek aisa sawaal kiya ki rongte khade ho gaye...bahut khoob...

sonal said...

एक नकली व्यक्तित्व ओढ़ कर बैठे है हम सब ...
अंतरात्मा तक पहुँचने वाली रचना

अजित गुप्ता का कोना said...

जैसे-जैसे भोगवाद बढ़ रहा है बेचारी माँ है ही कहाँ? कोई भी लड़की माँ दिखना नहीं चाहती, सभी अविवाहित ही दिखना चाहती हैं। ऐसा लगता है कि वे तैयार हैं दूसरों से प्रेम की पीग बढ़ाने को। पुरूष भी तो केवल स्‍त्री का रूप ही देख रहा है। माँ मानते ही तो कर्तव्‍यबोध से व्‍यक्ति बंध जाता है। वैसे आपकी कविता का भाव मेरी इस टिप्‍पणी से मेल नहीं खाता। वह तो अलग ही भावलोक में ले जाती है।

Shekhar Kumawat said...

bahut khub



फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई