Monday, June 14, 2010

हे ईश्वर, यह सब बंद करो| :

अदालत का फैसला आ गया।
25 हजार इंसानों की हत्याओं के दोषियों को 2 साल की कैद और दस मिनट में जमानत मिल गयी। बाहर चींखतें हुए इंसानों की तस्वींरें टीवी चैनल्स पर दिखती रही। अगले दिन के अखबारों में छप गया वो फोटो एक बेहद मासूम सी बच्ची को दफनाते वक्त का। फैसला आया तो कुछ सूझा ही नहीं। दर्द और अपमान के अलावा कोई दूसरी भावना दिमाग में नहीं थीं। लिख नहीं पाया। पुराने सारे मंजर और तस्वीरें एक एक कर टीवी चैनल्स दिखा रहे थे। फैसले की बार-बार हवा में तैरती आवाज दिल को तोड़ रही थी। देश के कानून मंत्री ने कहा कि न्याय को दफन कर दिया गया। किसने ...। अदालत ने, देश के कानून ने, नेताओं ने या खुद जनता ने ये सवाल हवा में गूंज रहा है। लेकिन मुझे इसको लेकर कोई अफसोस नहीं कि ये सब झूठ बोल रहे है। पूरा देश पिछले साठ सालों से इसी तरह से चलाया जा रहा है। जातियों के दम पर टके के नेता चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुंच कर कानून बनाने में जुटे हैं। कौन सा कानून वहीं जो अमीरजादों और ताकतवर लोगों के हक में काम करता रहे। लेकिन ये मरे हुए मन का रूदन है। पुराना पाठ है।
जब हजारों लोग मारे गये। किसी ने तो लापरवाही की होंगी। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का फैसला रहा होंगा। लेकिन किसी को क्या फर्क पड़ता है। केन्द्र हो या राज्य दोनों में दूसरी पार्टियों की सरकारों ने भी राज किया है इस पच्चीस सालों के बीच। लेकिन किसी को को वास्ता नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में बैठे न्यायधीशों को इस बात का याद रहता है कि आरटीआई के माध्यम से सूचना देना सुप्रीम कोर्ट के विशेषाधिकारों का हनन है। बेस्ट बेकरी केस जहीरा शेख का मामला हो या फिर गुजरात में अहसान जाफरी गुलबर्गा सोसायटी का मामला हो सब में नयी परंपरा डाली जा सकती है लेकिन पच्चीस हजार लोगों की अकाल मौत पर नहीं। अगर आप देश को और करीब से समझना चाहते है तो सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सरकार की ओर से और कंपनी की ओर से खड़े वकीलों की फेहरिस्त देख लेंगे तो समझ लेंगें कि क्यों दोगलापन इस देश की रगो में दौड़ रहा है।
आज इस लिये कोई निराशा नहीं है कि ये सब चल रहा है। आज दिल मुठ्ठी में बंद सा लग रहा है तो इस लिये कि देश की जवानी के उपर इस फैसले का कोई फर्क नहीं पड़ा।
देश का भविष्य जो जेसिका लाल को इंसाफ न मिलने पर मोमबत्ती जलाता है तो कोई निरूपमा के कत्ल पर आंसू बहाता है। वो नौजवान चुप है। वो देश का मुस्तकबिल चुप है जिस पर देश की जिम्मेदारी आने वाली है। क्रिकेट के स्टेडियम में तिरंगे को लहराने वाला अपने सर औऱ चेहरे पर तिरंगा बनवाने वालों की जवानी है ये। मौका मिलते ही अमेरिका निकलने की छटपटाहट के साथ जिंदा इन देशभक्त नौजवानों पर देश निसार है। ये नये प्रतिमान गढ़ रहे है। बिना किसी इतिहास बोध के चलती हुई एक पूरी सदी। और आपके पास इस बात का कोई रास्ता नहीं कि अपना गुस्सा कैसे उतारे। ये लोग आसानी से तिरंगा लहरा सकते है दूसरे हाथ से अमेरिका या फिर किसी भी यूरोपिय देश में जाने के लिये रिश्वत दे सकते है। दरअसल देश के लिये नारा लगाने वाले इस जवानी के लिये अमेरिका माई -बाप है। उसकी कल्चर इसका सपना है उसके शहरों में खरीददारी करना सबसे बेहतर लाईफ स्टाईल। ये नौजवान उन रोटियों के लिये जूझते हिेंदुस्तान की लड़ाई लड़ेगे। ये वो नौजवान है जिनकी याद में आजादी की लड़ाई पुरानी बात है। जिनके लिये आउट्रम लेन,हडसन लेन और नील लेन में रहना तैयारी के लिहाज से अच्छा है। किसी को नहीं चुभता कि हडसन और नील ने हजारों हिंदुस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया था निर्दयता पूर्वक। औरतों के साथ बलात्कार हुए बच्चियों को कुचल दिया गया बच्चों को नेजों की नोंकों पर उछाल कर बींद दिया गया। लेकिन ये नाम किसी को नहीं चुभते। दिल्ली के पॉश इलाके में शुमार होते है ये इलाके।
विदेश जाने की चाहत कितनी है इसका अंदाज सिर्फ इस बात से लगा सकते है कि पंजाब में कई ऐसे मामले रिपोर्ट हुए है जिनमें बहन अपने सगे भाई के साथ या बाप अपनी बेटी के साथ मां बेटों के साथ शादी के फर्जी दस्तावेज तैयार कर कर बाहर निकले है। ऐसे ही लोगों के दम पर टिकी है इस देश की देशभक्ति।
लेकिन देशभक्ति से उलट एक बात पर इन लोगों को जरूर ध्यान देना चाहिये कि न्यूक्लियर प्लांट से हुई एक भी चूक हजारों इंसानों का नहीं बल्कि लाखों इंसानों को मौत के घाट उतार देंगी। और तब भी इसी तरह से होना है इस बार 800 करोड़ रूपये मिल गये है लेकिन अगली बार पांच सौ करोड़ रूपये मिलेंगे। हां एक बात और मौत के घाट उतरने वाले भी इस बार वहीं भूखें-नंगें होंगे जिनकी वोट के दम पर नाच रहे कबीलाई नेता संसद में बैठ कर कानून बना रहे है और अमेरिका के तलवे चाट रहे है।
बात खत्म नहीं हो रही है लेकिन मैं कुछ शब्द उधार लेकर खत्म करना चाहता हूं
" सिलेटी बुदबुदाते हुए चेहरों की कतारें, भय का नकाब ओढ़े खाई की गहराई से उठकर ऊपर तक आती हैं, उनकी कलाईयों पर व्यस्त समय अकारण टिक्-टिक् करता और उम्मीद, जलती हुई आँखों, कसमसाती मुट्ठियों के साथ कीचड़ में लोट पोट --हे ईश्वर, यह सब बंद करो|"

2 comments:

sanu shukla said...

ek bhopal hi kya bhaisahab.....poora desh hi desh ki naujawani par sharminda hai....


jhakhjhorta hua umda lekh hai..

Unknown said...

कोई हमें रौंद जाता है..हमारे अपने उसे निकल जाने का रास्ता देते है और हम खामोश रहते है......है ईश्वर मुझे, मरे अपनो को इस खामोशी को तोड़ने की हिम्मत दो....भाई साहब गुनेहगार तो हम सब है....आपने अच्छा लिखा है। काश यहां सारी चीजों में अपना फायदा तलाशने की मानसिकता टूटती ...जो कुछ कर पाने की हालत में है काश यू खामोश ना बैठतें...